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छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala
-----पहली ढाल-----
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता ।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥
जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त ।
तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1)
ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान।
मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2)
तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3)
एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार।
निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4)
दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी।
लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5)
कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6)
कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7)
वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने ।
अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8)
तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै नहिं तिसो ।
तहाँ राध श्रोणित-वाहिनी,कृमि-कुल-कलित देहदाहिनी॥(9)
सेमर-तरु- दल जुत असिपत्र, असि ज्यों देह विदारै तत्र।
मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ॥(10)
तिल-तिल करैं देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड।
सिन्धु-नीरतैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूँद लहाय॥(11)
तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय।
ये दु:ख बहु सागर लौं सहै, करम जोग तैं नर गति लहै॥(12)
जननी-उदर वस्यो नव मास, अंग-सकुचतैं पाई त्रास।
निकसत जे दु:ख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर॥(13)
बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणीरत रह्यो।
अर्धमृतक सम बूढापनो, कैसे रूप लखै आपनो ॥(14)
कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुर-तन धरै।
विषयचाह-दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दु:ख सह्यो॥(15)
जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दु:ख पाय।
तहँ तें चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ॥(16)

----दूसरी ढाल----
ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञानचरण,वश भ्रमत भरत दु:ख जन्म-मरण।
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान॥(1)
जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधै तिनमाँहि विपर्ययत्व।
चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरति चिन्मूरति अनूप॥(2)
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव-चाल।
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान॥(3)
मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव।
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन॥(4)
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।
रागादि प्रगट जे दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन॥(5)
शुभ-अशुभ-बन्ध के फल मंझार,रति अरति करै निजपद विसार।
आतमहित-हेतु विराग-ज्ञान, ते लखें आपको कष्ट दान॥(6)
रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दु:खदायक अज्ञान जान॥(7)
इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानहु मिथ्याचरित्त।
यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह॥(8)
जे कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषैं चिर दर्शनमोह एव।
अन्तर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बरतैं सनेह॥(9)
धारैं कुलिंग लहि महत-भाव, ते कुगुरु जन्म-जल-उपल-नाव।
जे रागद्वेष-मल करि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन।।(10)
ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण-छेव।
रागादि-भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस-थावर मरन-खेत॥(11)
जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म।
याकूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान॥(12)
एकान्तवाद दूषित समस्त, विषयादिक-पोषक अप्रशस्त।
कपिलादिरचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास॥(13)
जो ख्याति-लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध-विध देहदाह।
आतम अनात्म के ज्ञान-हीन, जे जे करनी तन करन-छीन॥(14)
ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित-पन्थ लाग।
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग, अब ‘दौलत’ निज आतम सुपाग।।(15)

----तीसरी ढाल----
आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये।
आकुलता शिवमाँहि न तातैं, शिव-मग लाग्यो चहिये॥
सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरन शिवमग सो दुविध विचारो।
जो सत्यारथरूप सु निश्चय, कारन सो व्यवहारो॥(1)
पर-द्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है।
आप रूप को जानपनो, सो सम्यग्ज्ञान कला है॥
आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित्र सोई।
अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिये, हेतु नियत को होई॥(2)
जीव-अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्धरु संवर जानो।
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यौं का त्यौं सरधानो॥
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो।
तिनको सुनि सामान्य-विशेषै, दृढ प्रतीति उर आनो॥(3)
बहिरातम, अन्तर-आतम, परमातम जीव त्रिधा है ।
देह जीव को एक गिनै बहिरातम - तत्त्व मुधा है ॥
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर-आतम-ज्ञानी।
द्विविध संग बिन शुध-उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी॥(4)
मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी।
जघन कहे अविरत - समदृष्टी, तीनों शिवमगचारी॥
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति निवारी।
श्री अरहन्त सकल परमातम, लोकालोक-निहारी॥(5)
ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल - वर्जित, सिद्ध महन्ता।
ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता॥
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजै।
परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द धूजै॥(6)
चेतनता बिन सो अजीव हैं, पञ्च भेद ताके हैं।
पुद्गल पंच वरन रस गन्ध दो, फरस वसु जाके हैं॥
जिय - पुद्गल को चलन सहाई, धर्म द्रव्य अनरूपी।
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिनमूर्ति निरूपी॥(7)
सकल - द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो।
नियत वरतना निशि-दिन सो, व्यवहार काल परिमानो॥
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा।
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमादसहित उपयोगा॥(8)
ये ही आतम को दु:ख - कारन, तातैं इनको तजिये।
जीव-प्रदेश बँधै विधि सों सो, बन्धन कबहुँ न सजिये॥
शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये।
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये॥(9)
सकल-करमतैं रहित अवस्था, सो शिव, थिर सुखकारी।
इहिविधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी।
देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।
येहू मान समकित को कारन, अष्ट अंग-जुत धारो॥(10)
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो।
शंकादिक वसु दोष बिना संवेगादिक चित पागो॥
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेप हु कहिये।
विन जानेतैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये॥(11)
जिन-वच में शंका न, धारि वृष, भव-सुख-वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै॥
निज-गुन अरु पर औगुन ढाकै, वा निज-धर्म-बढ़ावै।
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-पर को सु दृढ़ावै॥(12)
धर्मीसों गउ-वच्छ-प्रीति-सम, कर जिन-धर्म दिपावै।
इन गुनतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै॥
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै।
मद न रूप को, मद न ज्ञान को, धन बल को मद भानै॥(13)
तप को मद, न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जानै।
मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै॥
कुगुरु-कुदेव-कुवृष-सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है।
जिनमुनि जिनश्रुत बिन, कुगुरादिक तिन्हैं न नमन करै है॥(14)
दोषरहित गुनसहित सुधी जे, सम्यक्दर्श सजै हैं।
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं॥
गेही पै गृह में न रचै ज्यों, जलतैं भिन्न कमल है।
नगरनारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है॥(15)
प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी।
थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत समकितधारी॥
तीन लोक तिहुँ काल माँहि नहिं, दर्शनसो सुखकारी।
सकल धरम को मूल यही इस, बिन करनी दुखकारी॥(16)
मोक्ष-महल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा।
सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा॥
‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै।
यह नर-भव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै॥(17)

----चौथी ढाल----
सम्यक्श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान।
स्व-पर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान॥
सम्यक्साथै ज्ञान होय पै भिन्न अराधो।
लक्षण श्रद्धा जान दुहूमें भेद अबाधो॥
सम्यक् कारण जान ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होतैं हू प्रकाश दीपक तैं होई ॥(1)
तास भेद दो हैं परोक्ष परतछ तिनमाहीं।
मति श्रुत दोय परोक्ष अक्ष मन तैं उपजाहीं॥
अवधिज्ञान मनपर्जय, दो हैं देशप्रतच्छा।
द्रव्य-क्षेत्र-परिमान लिये, जानैं जिय स्वच्छा॥(2)
सकल द्रव्यके गुण अनन्त परजाय अनन्ता।
जानैं एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता॥
ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन।
इह परमामृत जन्म जरा-मृत-रोग-निवारन॥(3)
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिन माँहि, त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते॥
मुनिव्रत धार, अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
पै निजआतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो॥(4)
तातैं जिनवर-कथित, तत्त्व अभ्यास करीजै।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लखि लीजै॥
यह मानुष-परजाय, सुकुल सुनिवो जिन-वानी।
इह विधि गये न मिलैं,सुमणि ज्यों उदधि समानी ||(5)
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै।
ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै॥
तास ज्ञान को कारन स्व-पर-विवेक बखानो।
कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो ॥(6)
जे पूरब शिव गये, जांहिं अरु आगे जै हैं।
सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं॥
विषय-चाह-दव-दाह,जगत-जन अरनि दझावै।
तास उपाय न आन ज्ञान-घनघान बुझावै ॥(7)
पुण्य-पाप-फलमाहिं हरख विलखौ मत भाई।
यह पुद्गल-परजाय उपजि विनसै फिर थाई॥
लाख बात की बात यहै निश्चय उर लावो।
तोरि सकलजग-दन्द-फन्द निज-आतम ध्यावो॥(8)
सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित लीजै।
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै॥
त्रस-हिंसा को त्याग, वृथा थावर न सँघारै।
पर-वधकार कठोर निन्द्य, नहिं वयन उचारै॥(9)
जल मृतिका बिन और नाहिं कछु गहै अदत्ता।
निज वनिता बिन सकल नारि सों रहै विरत्ता।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै।
दश दिशि गमन-प्रमान, ठान तसु सीम न नाखै॥(10)
ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमान, ठान अन सकल निवारा॥
काहू की धन-हानि, किसी जय हार न चिन्तैं।
देय न सो उपदेश होय अघ बनिज कृषी तैं॥(11)
कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै।
असि धनु हल हिंसोपकरन, नहिं दे जस लाधै॥
राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै।
और हू अनरथदण्ड-हेतु, अघ तिन्हैं न कीजै॥(12)
धर उर समता-भाव, सदा सामायिक करिये।
परव - चतुष्टयमाहिं, पाप तजि प्रोषध धरिये॥
भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवारै।
मुनि को भोजन देय, फेर निज करहि अहारै॥(13)
बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै।
मरण समय संन्यास धारि, तसु दोष नसावै॥
यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै।
तहंतै चय नर-जन्म पाय मुनि ह्वै शिव जावै॥(14)

----पाँचवी ढाल----
मुनि सकलव्रती बड़भागी, भवभोगन तैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई॥(1)
इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै॥(2)
जोवन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी।
इन्द्रिय भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥(3)
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते।
मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥(4)
चहुँगति दु:ख जीव भरै हैं, परिवर्तन पंच करै हैं।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ॥(5)
शुभ-अशुभ करम फल जेते, भोगैं जिय एकहिं तेते।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ॥(6)
जल-पय ज्यौं जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा॥(7)
पल-रुधिर राध-मल-थैली, कीकस वसादि तैं मैली।
नवद्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी ॥(8)
जो जोगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे ॥(9)
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके॥(10)
निज काल पाय विधि झरना, तासौं निज-काज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ॥(11)
किन हू न कर्यो न धरै को, षट्द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमाँहिं बिन समता, दु:ख सहै जीव नित भ्रमता॥(12)
अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ॥(13)
जे भाव मोह तैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै ॥(14)
सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये।
ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी॥(15)

----छठवीं ढाल----
षट्काय जीव न हनन तैं, सब विधि दरब-हिंसा टरी।
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी॥
जिनके न लेश मृषा न जल मृण हू बिना दीयो गहैं।
अठदशसहस विधि शीलधर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं ॥(1)
अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दशधा तैं टलैं।
परमाद तजि चउ कर मही लखि, समिति ईर्या तैं चलैं॥
जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुतिसुखद सब संशय हरैं।
भ्रम-रोग-हर जिनके वचन, मुखचन्द्र तैं अमृत झरैं॥(2)
छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को।
लैं तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन पोषते तजि रसन को।
शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकैं गहैं लखिकैं धरैं।
निर्जन्तु थान विलोक तन-मल, मूत्र श्लेषम परिहरैं ॥(3)
सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम ध्यावते।
तिन सुथिर-मुद्रा देखि मृग-गण, उपल खाज खुजावते॥
रस रूप गन्ध तथा फरस, अरु शब्द शुभ असुहावने।
तिनमें न राग विरोध, पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने ॥(4)
समता सम्हारैं थुति उचारैं, वन्दना जिनदेव को।
नित करैं श्रुतरति करै प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेव को॥
जिनके न न्हौंन न दन्त-धोवन, लेश अम्बर आवरन।
भूमाहिं पिछली रयनि में कछु, शयन एकासन करन ॥(5)
इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज पान में।
कचलोंच करत न डरत परीषह, सों लगे निज ध्यान में॥
अरि मित्र महल मसान कंचन-काँच निन्दन-थुति करन।
अर्घावतारन असि-प्रहारन, में सदा समता धरन ॥(6)
तप तपैं द्वादश धरैं वृष दश, रत्न-त्रय सेवैं सदा।
मुनि-साथ में वा एक विचरैं चहैं नहिं भव-सुख कदा॥
यों है सकलसंयमचरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब॥(7)
जिन परमपैनी सुबुधि - छैनी, डारि अन्तर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तैं, निज-भाव को न्यारा किया।।
निजमाहिं निज के हेतु निज कर, आपको आपै गह्यो।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मंझार कछु भेद न रह्यो॥(8)
जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न, विकल्प वच भेद न जहाँ।
चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ॥
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दसा।
प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये तीनधा एकै लसा ॥(9)
परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखैं।
दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखैं।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं।
चित् पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुणकरण्ड च्युत पुनि कलनितैं॥(10)
यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो॥
तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउ-घातिविधि कानन दह्यो।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोक को शिवमग कह्यो॥(11)
पुनि घाति शेष अघातिविधि, छिन माहिं अष्टम-भू बसैं।
वसुकर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं॥
संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये।
अविकार अकल अरूप शुचि,चिद्रूप अविनाशी भये ॥(12)
निजमाँहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित भये।
रहि हैं अनन्तानन्तकाल, यथा तथा शिव परिणये॥
धनि धन्य हैं जे जीव, नर-भव पाय, यह कारज किया।
तिनही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार तजि वर सुख लिया॥(13)
मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं।
अरु धरैंगे ते शिव लहैं तिन, सुयश-जल-जग-मल हरैं॥
इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह सिख आदरो।
जबलौं न रोग जरा गहै तबलौं झटिति निज हित करो॥(14)
यह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये।
चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निजपद बेइये॥
कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दु:ख सहै।
अब ‘दौल’ होउ सुखी स्व-पद रचि, दाव मत चूकौ यहै ।।(15)
(दोहा)
इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख।
कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि ‘बुधजन’ की भाख॥(1)
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द - अर्थ की भूल।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव-कूल॥(2)

Artist - श्री दौलतराम जी

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श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...