Skip to main content

अहिच्छत्र पारसनाथ पूजा - Ahichchhatr Parasnaath pooja

श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथ पूजन 

(स्थापना)
हे पार्श्वनाथ करुणानिधान महिमा महान मंगलकारी। 
शिव भर्तारी, सुख भंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी।।
तुम धर्मसेत, करुणानिकेत आनन्द हेत अतिशय धारी। 
तुम चिदानन्द आनन्द कन्द दुख-द्वन्द फन्द संकटहारी।।
आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा। 
अपने उर के सिंघासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा।।
मेरा निर्मल मन टेर रहा हे नाथ हृदय में आ जाओ। 
मेरे सूने मन मंदिर में पारस भगवान समा जाओ।।

ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। 

भव वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खाई। 
भव सागर के अथाह दुख में सुख की जल बिन्दु नहीं पाई।।
जिस भांति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझाई है। 
अपनी अतृप्ति पर, अब तुमसे जय पाने की सुधि आई है।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। 

क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब नभ से ज्वाला बरसाई थी। 
उस आत्मध्यान की मुद्रा में आकुलता तनिक न आई थी।।
विघ्नों पर बैर-विरोधों पर मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ। 
मन की आकुलता मिट जाये ऐसी शीतलता पा जाऊँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।

तुमने कर्मो पर जय पाकर मोती सा जीवन पाया है। 
यह निर्मलता मैं भी पाऊँ मेरे मन यही समाया है।।
यह मेरा अस्तव्यस्त जीवन इसमें सुख कहीं न पाता हूँ। 
मैं भी अक्षय पद पाने को शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान नि. स्वाहा।

अध्यात्मवाद के पुष्पों से जीवन फुलवारी महकाई। 
जितना जितना उपसर्ग सहा उतनी उतनी द्रढ़ता आई।।
मैं इन पुष्पों से वञ्चित हूँ अब इनको पाने आया हूँ। 
चरणों पर अर्पित करने को कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा। 

जय पाकर चपल इन्द्रियों पर अन्तर की क्षुधा मिटा डाली। 
अपरिग्रह की आलोक शक्ति अपने अन्दर ही प्रगटा ली।।
भटकाती फिरती क्षुधा मुझे मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ। 
इच्छाओं पर जय पाने को मैं शरण तुम्हारी आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।

अपने अज्ञान अंधेरे में वह, कमठ फिरा मारा मारा। 
व्यन्तर विमानधारी था पर, तप के उजियारे से हारा।।
मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ। 
जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।

तुमने तपके दाबानाल में, कर्मों की धूप जलाई है। 
जो सिद्ध शिला तक आ पहुंची, वह निर्मल गंध उड़ाई है।।
मई कर्म बन्धनों में जकड़ा, भाव बन्धन घबराया हूँ। 
वसु-कर्म दहन के लिए, तुम्हें मैं धूप चढ़ाने आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।

तुम महा तपस्वी शांति मूर्ति उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये। 
तप के फल ने पध्मावति के इन्द्रों के आसन कम्पाये। 
ऐसे उत्तम फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ। 
ऐसा शिव सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।

संघर्षों में उपसर्गों में, तुमने समता का भाव धरा। 
आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा।।
मैं अष्ट द्रव्य से पूजा का, शुभ थाल सजा कर लाया हूँ। 
जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ।।
 ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं नि. स्वाहा।

पंचकल्याणक 
वैशाख कृष्ण दुतिया के दिन तुम वामा के उर में आये। 
श्री अश्वसेन नृप के घर में, आनन्द भरे मंगल छाये।।
ॐ ह्रीं वैशाखाकृष्णद्वितीत्यायां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनथजिनेन्द्राय अर्घं नि. स्वाहा।

जब पौष कृष्ण एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला। 
भूले भटके भ्रमते जगको, आत्मोन्नति का आलोक मिला।।
ॐ ह्रीं पौष कृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्रायअर्घं नि. स्वाहा। 

एकादशि पौषकृष्ण, तुमने संसार अथिर पाया। 
दीक्षा लेकर आध्यात्मिक पथ, तुमने तप द्वारा अपनाया।।
ॐ ह्रीं पौष कृष्णैकादशी दिने तपोमंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्रायअर्घं नि. स्वाहा। 

अहिच्छत्र धरा पर जी भर कर, की क्रूर कमठ ने मनमानी। 
तब कृष्णा चैत्र चतुर्थी को, पद प्राप्त किया केवलज्ञानी।।
यह वन्दनीय हो गई धरा, देश भव का बैरी पछताया। 
देवों ने जय जयकारों से, सारा भूमण्डल गुंजाया।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थीदिवसे श्रीअहिच्छत्रतीर्थे ज्ञानसाम्राज्यप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घं नि. स्वाहा।

श्रावण शुक्ला सप्तमी केदिन, सम्मेद शिखर ने यशपाया।
'सुवरणगिरी' भद्रकूट से जब, शिव मुक्तिरामा को परिणाया।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवरणभद्रकूटाद् मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्रायअर्घं नि. स्वाहा। 

जयमाला 
सुरनर किन्नर गणधर फणधर, योगीजन ध्यान लगाते हैं। 
भगवान तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीवर गाते हैं।।

जो ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दुख उनकै पास न आते हैं। 
जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट काट जाते हैं।।

तुम कर्मदली, तुम महाबली, इन्द्रियसुख पर जय पाई है। 
मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समयी है।।

तुमने शरीर औ आत्मा के, अंतर स्वाभाव को जाना है।
नश्वर शरीर का मोह तजा, निश्चय स्वरुप पहिचाना है।।

तुम द्रव्य मोह, औ भाव मोह, इन दोनों से न्यारे न्यारे। 
जो पुद्गल के निमित्त कारण, वे रागद्वेष तुमसे हारे।।

तुम पर निर्जन वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर पानी। 
आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमनी।।

यह सहन शक्तियों का बल है, जो तप के द्वारा आया था। 
जिसने स्वार्गों में देवों के, सिंघासन को कम्पाया था।।

'अहि' का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र स्वर्ग से आया था। 
ध्यानस्थ आप के ऊपर प्रभु फण-मण्डप बनकर छाया था।।

उपसर्ग कमठ का नष्ट किया मस्तक पर फणमण्डप रचकर। 
पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंघासन पर।।

तप के प्रभाव से देवों ने, व्यंतर की माया विनशाई।
पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आई।।

उपसर्गों का आतंक तुम्हें, हे प्रभु तिलभर न डिगा पाया।
अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया।।

शठ कमठ, बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था। 
अध्यात्म आत्मबल का गौरव, यह मूरख समझ न पाया था।।

दश भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी। 
फिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी।।

यह बैर महा दुखदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है।
यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है।।

जिनको भव सुख की चाह नहीं, दुख से न जरा भय खाते हैं । 
वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भव सागर से तिर जाते हैं।।

जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं। 
सब ऋद्धि-सिद्धियां नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं।।

जो निर्विकल्प चैतन्य रूप, शिव का स्वरुप तुमने पाया। 
ऐसा पवित्र पद पाने को, मेरा अन्तर मन ललचाया।।

कार्माण वर्गणायें मिलकर, भाव वन में भ्रमण कराती हैं। 
जो शरण तुम्हारी आते हैं, ये उनके पास न आती हैं।।

तुमने सब बैर विरोधों पर, समदर्शी बन जय पाई है। 
मैं भी ऐसी समता पाऊँ, यह मेरे हृदय समाई है।।

अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो। 
तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो।।

तुम हो त्रिकालदर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है।
तुम हो महान अतिशयधारी, तुम में आनन्द समाया है।।

चिन्मूरति आप अनन्तगुणी, रागादि न तुमको छू पाये। 
इस पर भी हर शरणागत पर, मनमाने सुख साधन आये।।

तुम रागद्वेष से दूर दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है। 
स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है।।

अपनी सुगन्ध क्या फूल कहीं, घर घर आकर बिखराते हैं। 
सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं।।

भौतिक पारसमणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है। 
हे पार्श्व प्रभो तुमको छूकर, आत्मा कुन्दन बन जाती है।।

तुम सर्व शक्ति धारी हो प्रभु, ऐसा बल मैं भी पाऊँगा। 
यदि यह बल मुझको भी दे दो, फिर कुछ न मांगने आऊँगा।।

कह रहा भक्ति के वशीभूत, हे दया सिन्धु स्वीकारो तुम। 
जैसे तुम जग से पार हुये, मुझको भी पार उतारो तुम।।

जिसने भी शरण तुम्हारी ली, वह खाली हाथ न आया है। 
अपनी अपनी आशाओं का, सबने वांछित फल पाया है।।

बहुमूल्य सम्पदायें सारी, ध्याने वालों ने पाई हैं। 
पारस के भक्तों पर निधियाँ, स्वयमेव सिमट कर आई हैं।।

जो मन से पूजा करते हैं, पूजा उनको फल देती है। 
प्रभु-पूजा भक्त पुजारी के, सारे संकट हर लेती है।।

जो पथ तुमने अपनाया है, वह सीधा शिव को जाता है। 
जो इस पथ का अनुयायी है, वह परम मोक्ष पद पाता है।।

ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय महार्घं नि. स्वाहा।

पार्श्वनाथ भगवान को, जो पूजे धर ध्यान। 
उसे लोक परलोक के, मिलें सकल वरदान।।

।। पुष्पांजलि क्षिपेत् ।।

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...