दोहा) चौबीसों परिग्रह रहित, चौबीसों जिन राज । वीतराग सर्वज्ञ जिन, हितकर सर्व समाज । (हरिगीतिका) श्री आदिनाथ अनादि मिथ्या मोह का मर्दन किया । आनन्दमय ध्रुवधाम निज भगवान का दर्शन किया। निज आतमा को जानकर निज आतमा अपना लिया। निज आतमा में लीन हो निज आतमा को पा लिया ।।(1) जिन अजित जीता क्रोध रिपु निज आतमा को जानकर। निज आतमा पहिचान कर निज आतमा का ध्यान धर। उत्तम क्षमा की प्राप्ति की बस एक ही है साधना । आनन्दमय ध्रुवधाम निज भगवान की आराधना ।।(2) सम्भव असम्भव मान मार्दव धर्ममय शुद्धात्मा । तुमने बताया जगत को सब आतमा परमातमा । छोटे-बड़े की भावना ही मान का आधार है। निज आतमा की साधना ही साधना का सार है।।(3) निज आतमा को आतमा ही जानना है सरलता । निज आतमा की साधना आराधना है सरलता । वैराग्य-जननी नन्दिनी अभिनन्दिनी है सरलता । है साधकों की संगिनी आनन्द-जननी सरलता ।।(4) हे सर्वदर्शी सुमति जिन! आनन्द के रसकन्द हो। हो शक्तियों के संग्रहालय ज्ञान के घनपिण्ड हो। निर्लोभ हो निर्दोष हो निष्क्रोध हो निष्काम हो । हो परम-पावन पतित-पावन शौचमय सुखधाम हो।(5...
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