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Showing posts with the label श्री पार्श्वनाथ- Parshvanath Ji

श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा | SHRI PARSHWANATH JIN POOJA

SHRI PARSHWANATH JIN POOJA / श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा कवि श्री बख्तावरसिंह (गीता छन्द) वर स्वर्ग प्राणत सों विहाय सुमात वामा-सुत भये | अश्वसेन के पारस जिनेश्वर चरन जिनके सुर नये || नव-हाथ-उन्नत तन विराजे उरग-लच्छन अति लसें | थापूँ तुम्हें जिन आय तिष्ठो! करम मेरे सब नसें || ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (इति स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (इति सन्निधिरणम्) (चामर छन्द) क्षीर-सोम के समान अम्बु-सार लाय के | हेमपात्र धारि के सु आपको चढ़ाय के || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा | दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||­ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। ।१। चंदनादि केशरादि स्वच्छ गंध लेय के | आप चर्ण चर्चुं मोह-ताप को हनीजिये || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा | दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||­ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवताप-विनाशनाय चंदनं ...

श्री पार्श्वनाथ-जिन पूजा(पुष्पेन्दु) कविश्री ‘पुष्पेन्दु’ | SHRI PARSHVANATH JIN POOJA(PUSHPENDU)

SHRI PARSHVANATH JIN POOJA(PUSHPENDU) / श्री पार्श्वनाथ-जिन पूजा(पुष्पेन्दु) कविश्री ‘पुष्पेन्दु’ हे पार्श्वनाथ! हे अश्वसेन-सुत! करुणासागर तीर्थंकर | हे सिद्धशिला के अधिनायक! हे ज्ञान-उजागर तीर्थंकर || हमने भावुकता में भरकर, तुमको हे नाथ! पुकारा है | प्रभुवर! गाथा की गंगा से, तुमने कितनों को तारा है || हम द्वार तुम्हारे आये हैं, करुणा कर नेक निहारो तो | मेरे उर के सिंहासन पर, पग धारो नाथ! पधारो तो || ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वानम्) ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र!अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:!ठ! (स्थापनं) ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सत्रिधिकरणम्) (शंभु छन्द) मैं लाया निर्मल जलधारा, मेरा अंतर निर्मल कर दो | मेरे अंतर को हे भगवन! शुचि-सरल भावना से भर दो || मेरे इस आकुल-अंतर को, दो शीतल सुखमय शांति प्रभो | अपनी पावन अनुकम्पा से, हर लो मेरी भव-भ्रांति प्रभो || ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१। प्रभु! पास तुम्हारे आया हूँ, भव-...

अहिच्छत्र पारसनाथ पूजा - Ahichchhatr Parasnaath pooja

श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथ पूजन  (स्थापना) हे पार्श्वनाथ करुणानिधान महिमा महान मंगलकारी।  शिव भर्तारी, सुख भंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी।। तुम धर्मसेत, करुणानिकेत आनन्द हेत अतिशय धारी।  तुम चिदानन्द आनन्द कन्द दुख-द्वन्द फन्द संकटहारी।। आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा।  अपने उर के सिंघासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा।। मेरा निर्मल मन टेर रहा हे नाथ हृदय में आ जाओ।  मेरे सूने मन मंदिर में पारस भगवान समा जाओ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।  भव वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खाई।  भव सागर के अथाह दुख में सुख की जल बिन्दु नहीं पाई।। जिस भांति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझाई है।  अपनी अतृप्ति पर, अब तुमसे जय पाने की सुधि आई है।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिने...

तुम से लागी लगन.. पारस प्यारा (Tumse Lagi Lagan Le Lo Apni Sharan Paras Pyara)

श्री पाश्र्वनाथ स्तुति || SHRI PARSHVANATH STUTI कविश्री ‘पंकज’ तुम से लागी लगन, ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा, मेटो मेटो जी संकट हमारा । निशदिन तुमको जपूँ, पर से नेह तजूँ, जीवन सारा, तेरे चरणों में बीत हमारा ॥टेक॥ अश्वसेन के राजदुलारे, वामा देवी के सुत प्राण प्यारे। सबसे नेह तोड़ा, जग से मुँह को मोड़ा, संयम धारा ॥ मेटो मेटो जी संकट हमारा ॥ इंद्र और धरणेन्द्र भी आए, देवी पद्मावती मंगल गाए । आशा पूरो सदा, दुःख नहीं पावे कदा, सेवक थारा ॥ मेटो मेटो जी संकट हमारा ॥ जग के दुःख की तो परवाह नहीं है, स्वर्ग सुख की भी चाह नहीं है। मेटो जामन मरण, होवे ऐसा यतन, पारस प्यारा ॥ मेटो मेटो जी संकट हमारा ॥ लाखों बार तुम्हें शीश नवाऊँ, जग के नाथ तुम्हें कैसे पाऊँ । ‘पंकज’ व्याकुल भया, दर्शन बिन ये जिया लागे खारा ॥ मेटो मेटो जी संकट हमारा ॥ तुम से लागी लगन, ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा, मेटो मेटो जी संकट हमारा ।

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...