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विद्याष्टकम | Vidhya Asthakam

           सुश्रीमतीह जननी च पिता मलप्पा जज्ञे द्वितीयतनयो भुवि योऽद्वितीयः। विद्याधरोऽपि सुतरां हृदयस्थविद्यो विद्यादिसागरमुनीन्द्र! हरारिविद्याः।।1।। पापास्पदानि निविड़ानि विभञ्जनार्थं पुण्यास्पदानि विविधानि विवर्धनार्थम्। कर्माणि वर्यवर! ते शरणं दधेऽहं प्रीणातु मां भवहरं चरणारविन्दम् ।।2।। सद्दृष्टिबोधचरणावरणैकभूषा- सदवीर्यवासिततपोधरणैकवेषम्। यस्यांगदेवनिलयस्य विभूषणं स्यात् तस्य प्रवन्द्यचरणं परिणौमि भक्तया ।।3।। यस्मान्भवद्विशददेहमनोविचेष्टास् स्याद्वादगुम्फितवचाः प्रमुदे विशुद्धाः। तस्मात् सदैव सुजनैः परिवेष्टमानश् चन्द्रो यथा वियति राजति तारकाभिः ।।4।। संसारसिन्धुमतुलं तरितुं तु कोऽलं यस्मिन् विमूढमनसा विगतोऽतिकालः। विद्यापते! गुरुगुरो! कृपया महाध्व प्राप्तो मयाऽपि भवतो भवतः सुरक्षा ।।5।। नाशीर्वचः कमपि पश्यति नापि दृग्भ्या- मात्यन्तिकं विरतभावमुखं विधत्ते। तस्मादहं भगवतोप्यनुभामि शस्यो नम्रे जने वितनुते रतिमेष सूरि ।।6।। येनैध्यते विनयमूलमुदस्य दोषं ज्ञानार्क भूरिकिरणैर्भुवि पुण्यसस्यम्। क्षिप्तं क्षणं प्रतिनवं जगतां हिताय किं चिन्त्यते नु महते सुगु...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र टीका & भावार्थ || Shri Kalyan Mandir Stotra translation and meaning

वसन्ततिलका छन्द) (मंगलाचरण) कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ (युग्मम्) अन्वयार्थ – (कल्याणमंदिरम्) कल्याणों के मंदिर (उदारम्) दाता या महान् (अवद्यभेदि) पापों को नष्ट करने वाले (भीताभयप्रदम्) संसार से डरे हुए जीवों को अभयपद देने वाले (अनिन्दितं) प्रशंसनीय (संसार-सागर-निमज्ज-दशेषजन्तुपोतायमानम् ) संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए समस्त जीवों के लिए जहाज के समान (जिनेश्वरस्य) जिनेन्द्र भगवान् के (अङ्घ्रिपद्मम्) चरण-कमलों को (अभिनम्य) नमस्कार करके (गरिमाम्बुराशेः) गौरव के समुद्र- स्वरूप (यस्य) जिन पार्श्वनाथ की (स्तोत्रम् विधातुम्) स्तुति करने के लिए (स्वयं सुविस्तृतमतिः) स्वयं विशाल बुद्धि वाले (सुरगुरुः) बृहस्पति भी (विभुः) समर्थ (न ‘अस्ति’) नहीं है (कमठ - स्मयधूमकेतोः) कमठ का मान भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप ( तस्य तीर्थेश्वरस्य) उन पार्श्वनाथ भग...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र पद्यानुवाद || Shri Kalyan Mandir Stotra translation

 अनुपम करुणा की सु-मूर्ति शुभ, शिव मन्दिर अघनाशक मूल । भयाकुलित व्याकुल मानव के, अभयप्रदाता अति- अनुकूल ॥ बिन कारन भवि जीवन तारन, भवसमुद्र में यान-समान। ऐसे पद्मप्रभु पारस, के पद अर्चू मैं नित अम्लान॥१॥ जिसकी अनुपम गुणगरिमा का, अम्बुराशि सा है विस्तार | यश-सौरभ सु-ज्ञान आदि का, सुरगुरु भी नहिं पाता पार ॥ हठी कमठ शठ के मदमर्दन, को जो धूमकेतु-सा शूर । अति आश्चर्य कि स्तुति करता, उसी तीर्थपति की भरपूर ॥२॥ अगम अथाह सुखद शुभ सुन्दर, सत्स्वरूप तेरा अखिलेश ! क्यों कर कह सकता है मुझसा, मन्दबुद्धि मूरख करुणेश ! ॥ सूर्योदय होने पर जिसको, दिखता निज का गात नहीं । दिवाकीर्ति क्या कथन करेगा, मार्तण्ड का नाथ ! कहीं ? ॥३ ॥ यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय - विधि के क्षय से । तो भी गिन न सकेँ गुण तुव सब, मोहेतर कर्मोदय से ॥ प्रलयकाल में जब जलनिधि का, बह जाता है सब पानी । रत्नराशि दिखने पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानी ? ॥४ ॥ तुम अतिसुन्दर शुद्ध अपरिमित, गुणरत्नों की खानिस्वरूप । वचननि करि कहने को उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप ॥ यथा मन्दमति लघुशिशु अपने, दोऊ कर को कहै पसार । जल - निधि को देखहु रे मानव...

RISHIMANDAL STOTRAM / ऋषिमण्डल स्तोत्रम्

ऋषिमण्डल स्तोत्रम् आद्यंताक्षरसंलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यत्स्थितम् | अग्निज्वालासमं नादं बिन्दुरेखासमन्वितम् ||१|| अग्निज्वाला-समाक्रान्तं मनोमल-विशोधनम् | दैदीप्यमानं हृत्पद्मे तत्पदं नौमि निर्मलम् ||२|| युग्मम् | ॐ नमोऽर्हद्भ्य : ऋषेभ्य: ॐ सिद्धेभ्यो नमो नम: | ॐ नम: सर्वसूरिभ्य: उपाध्यायेभ्य: ॐ नम: ||३|| ॐ नम: सर्वसाधुभ्य: तत्त्वदृष्टिभ्य: ॐ नम: | ॐ नम: शुद्धबोधेभ्यश्चारित्रेभ्यो नमो नम: ||४|| युग्मम् | श्रेयसेऽस्तु श्रियेऽस्त्वेतदर्हदाद्यष्टकं शुभम् | स्थानेष्वष्टसु संन्यस्तं पृथग्बीजसमन्वितम् ||५|| आद्यं पदं शिरो रक्षेत् परं रक्षतु मस्तकम् | तृतीय रक्षेन्नेत्रे द्वे तुर्यं रक्षेच्च नासिकाम् ||६|| पंचमं तु मुखं रक्षेत् षष्ठं रक्षतु कण्ठिकाम् | सप्तमं रक्षेन्नाभ्यंतं पादांतं चाष्टमं पुन: ||७|| युग्मम् | पूर्व प्रणवत: सांत: सरेफो द्वित्रिपंचषान् | सप्ताष्टदशसूर्यांकान् श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् ||८|| पूज्यनामाक्षराद्यास्तु पंचदर्शनबोधकम् | चारित्रेभ्यो नमो मध्ये ह्रीं सांतसमलंकृतम ||9|| जाप्य मंत्र:- ॐ ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रूं ह...