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विशापहार स्त्रोत्रं | Vishapahar Stotra

नमौं नाभिनंदन बली, तत्त्व-प्रकाशनहार| चतुर्थकाल की आदि में, भये प्रथम-अवतार ||१|| स्वात्मस्थित: सर्वगत: समस्त-, व्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्ग:। प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्य:, पायादपायात्पुरुष: पुराण:॥ १॥ निज-आतम में लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे | जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारे || बहुत काल के हो पुनि जरा न देह तिहारी | ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी ||१|| परैरचिन्त्यं युगभारमेक:, स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्य:। स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभो न भानो:, किमप्रवेशे विशति प्रदीप:॥२॥ पर करि के जु अचिंत्य भार जग को अति भारो | सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो || करि न सके जोगिंद्र स्तवन मैं करिहों ताको | भानु प्रकाश न करै दीप तम हरै गुफा को ||२|| तत्त्याज शक्र: शकनाभिमानं, नाहं त्यजामि स्तवनानुबन्धम्। स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं, वातायनेनेव निरूपयामि ॥३॥ स्तवन करन को गर्व तज्यो सक्री बहुज्ञानी | मैं नहिं तजौं कदापि स्वल्प ज्ञानी शुभध्यानी || अधिक अर्थ का कहूँ यथाविधि बैठि झरोके | जालांतर धरि अक्ष भूमिधर को जु विलोके ||३|| त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो, विद्वानशेषं निखिलैरवेद्य:। वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्...