सुश्रीमतीह जननी च पिता मलप्पा जज्ञे द्वितीयतनयो भुवि योऽद्वितीयः। विद्याधरोऽपि सुतरां हृदयस्थविद्यो विद्यादिसागरमुनीन्द्र! हरारिविद्याः।।1।। पापास्पदानि निविड़ानि विभञ्जनार्थं पुण्यास्पदानि विविधानि विवर्धनार्थम्। कर्माणि वर्यवर! ते शरणं दधेऽहं प्रीणातु मां भवहरं चरणारविन्दम् ।।2।। सद्दृष्टिबोधचरणावरणैकभूषा- सदवीर्यवासिततपोधरणैकवेषम्। यस्यांगदेवनिलयस्य विभूषणं स्यात् तस्य प्रवन्द्यचरणं परिणौमि भक्तया ।।3।। यस्मान्भवद्विशददेहमनोविचेष्टास् स्याद्वादगुम्फितवचाः प्रमुदे विशुद्धाः। तस्मात् सदैव सुजनैः परिवेष्टमानश् चन्द्रो यथा वियति राजति तारकाभिः ।।4।। संसारसिन्धुमतुलं तरितुं तु कोऽलं यस्मिन् विमूढमनसा विगतोऽतिकालः। विद्यापते! गुरुगुरो! कृपया महाध्व प्राप्तो मयाऽपि भवतो भवतः सुरक्षा ।।5।। नाशीर्वचः कमपि पश्यति नापि दृग्भ्या- मात्यन्तिकं विरतभावमुखं विधत्ते। तस्मादहं भगवतोप्यनुभामि शस्यो नम्रे जने वितनुते रतिमेष सूरि ।।6।। येनैध्यते विनयमूलमुदस्य दोषं ज्ञानार्क भूरिकिरणैर्भुवि पुण्यसस्यम्। क्षिप्तं क्षणं प्रतिनवं जगतां हिताय किं चिन्त्यते नु महते सुगुरोर्हिताय ।।7।। यावत्प्रतिष्ठ
तीर्थंकर भगवान पुष्पदंतनाथ का जीवन परिचय तीर्थंकर सुविधिनाथ, जो पुष्पदन्त(Puphpdant) के नाम से भी जाने जाते हैं, वर्तमान काल के 9वें तीर्थंकर है। इनका चिन्ह ‘मगर’ हैं। किसी दिन भूतहित जिनराज की वंदना करके धर्मोपदेश सुनकर विरक्तमना राजा दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगरूपी समुद्र का पारगामी होकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया और समाधिमरण के प्रभाव से प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हो गया। पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की काकन्दी नगरी में इक्ष्वाकुवंशीय काश्यप गोत्रीय सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा था, उनकी जयरामा नाम की पट्टरानी थी। उन्होंने फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन ‘प्राणतेन्द्र’ को गर्भ में धारण किया और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र ने बालक का नाम ‘पुष्पदन्त’ रखा। पुष्पदन्तनाथ राज्य करते हुए एक दिन उल्कापात से विरक्ति को प्राप्त हुए तभी लौकान्तिक देवों से स्तुत्य भगवान इन्द्र के द्वारा लाई गई ‘सूर्यप्रभा’ पालकी में बैठकर मगसिर सुदी प्रतिपदा को दीक्षित हो गये। शैलपुर नगर के पुष्पमित्र राजा ने भगवान को प्रथम आहारदान दिया था। केवल ज्ञान