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Shri Suparasnath Bagwaan | श्री सुपार्श्वनाथ भगवान

परिचय धातकीखंड के पूर्व विदेह में सीतानदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का देश है, उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिषेण राजा राज्य करता था। कदाचित् भोगों से विरक्त होकर नन्दिषेण राजा ने अर्हन्नन्दन गुरू के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन कर दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। सन्यास से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम ग्रैवेयक के विमान में अहमिन्द्र हो गये। गर्भ और जन्म इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष सम्बन्धी काशीदेश में बनारस नाम की नगरी थी उसमें सुप्रतिष्ठित महाराज राज्य करते थे। उनकी पृथ्वीषेणा रानी के गर्भ में भगवान भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन आ गये। अनन्तर ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन उस अहमिन्द्र पुत्र को उत्पन्न किया। इन्द्र ने जन्मोत्सव के बाद सुपार्श्वनाथ नाम रखा। तप सभी तीर्थंकरों को अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देशसंयम हो जाता है। किसी समय भगवान ऋतु का परिवर्तन देखकर वैराग्य को प्राप्त हो गये। तत्क्षण देवों द्वारा लाई गई ‘मनोगति’ पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में जाकर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन वेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ...

चालीसा : श्री सुपार्श्वनाथ जी | Suparasnath ji Chalisa

लोक शिखर के वासी हैं प्रभु, तीर्थंकर सुपार्श्व जिननाथ । नयन द्वार को खोल खड़े हैं, आओ! विराजो! हे जगनाथ ।। सुन्दर नगरी वाराणसी स्थित, राज्य करें रजा सुप्रतिष्टित । पृथ्वीसेना उनकी रानी, देखे स्वप्ना सोलह अभिरामी ।। तीर्थंकर सूत गर्भ में आये, सुरगण आकर मोद मनाये । शुक्ल ज्येष्ठ द्वादशी शुभ दिन, जन्मे अहमिन्द्र योग में श्रीजिन ।। जन्मोत्सव की ख़ुशी असीमित, पूरी वाराणसी हुई सुशोभित । बढे सुपाश्वजिन चन्द्र समान, मुख पर बसे मंद मुस्कान ।। समय प्रवाह रहा गतिशील, कन्याएं परनाई सुशील । लोक प्रिय शासन कहलाता, पर दुष्टों का दिल दहलाता ।। नित प्रति...

श्री सुपार्श्वनाथ जी जिन पूजा - Shree Suparshvnaath ji jin pooja

जय जय जिनिंद गनिंद इन्द, नरिंद गुन चिंतन करें | तन हरीहर मनसम हरत मन, लखत उर आनन्द भरें || नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ट पृथी प्रिया | तिन नन्दके पद वन्द वृन्द, अमंद थापत जुतक्रिया || ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | उज्ज्वल जल शुचि गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो || तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निध...