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Showing posts with the label जिनवाणी-Jinvani

|| देव शास्र गुरु पूजा || (केवल-रवि-किरणों )-कविश्री युगलजी बाबू जी - Dev Shastra Pooja - Kavi Yugal Kishor Ji Keval ravi kirano se

|| देव शास्र गुरु पूजा || कविश्री युगलजी बाबू जी केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर| उस श्री जिनवाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन|| सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण| उन देव-परम-आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)। ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)। ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)। इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया| यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया|| मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर-ममता में अटकाया हूँ | अब निर्मल सम्यक्-नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है| अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है|| प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है| संतप्त-हृदय प्रभु! चंदन-सम, श...

श्रुत पंचमी पर्व कथा | Shrut Panchami parva katha

 वीर निर्वाण संवत 614 में आचार्य धरसेन काठियावाड स्थित गिरिनगर (गिरनारपर्वत) की चन्द्रगुफा में रहते थे। जब वे बहुत वृद्ध हो गये थे और अपना जीवन अल्प जाना, तब श्रुत की रक्षार्थ उन्होंने महिमानगरी में एकत्रित मुनिसंघ के पास एक पत्र भेजा। तब मुनि संघ ने पत्र पढ कर दो मुनियों को गिरनार भेज दिया। वे मुनि विद्याग्रहण करने में तथा उनका स्मरण रखने में समर्थ, अत्यंत विनयी, शीलवान तथा समस्त कलाओं मे पारंगत थे। जब वे दोनों मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे तब धरसेनाचार्य ने एक स्वप्न देखा कि दो वृषभ आकर उन्हें विनयपूर्वक वन्दना कर रहे हैं। उस स्वप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दो मुनि विनयवान एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ हैं। तब उनके मुख से अनायास ही “जयदु सुय देवदा” अर्थात् श्रुत की जय हो ऐसे आशीर्वादात्मक वचन निकल पडे। । दूसरे दिन दोनों मुनिवर वहाॅ आ पहुॅचे और विनय पूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वंदना की। दो दिन पश्चात श्रीधरसेनाचार्य ने विद्यामंत्र देकर उनकी परीक्षा की। एक को अधिकाक्षरी मंत्र (एक अक्षर अधिक वाला) और दूसरे को हीनाक्षरी (एक अक्षर न्यून वाला) विद्यामंत्र देकर उपवास...

स्तुति पाठ | Stuti Path | Mai tum charan kamal gun gaye ...

तुम तरण-तारण भव-निवारण, भविक मन आनन्दनो | श्री नाभिनन्दन जगत-वन्दन, आदिनाथ निरंजनो || तुम आदिनाथ अनादि सेऊँ, सेय पद-पूजा करूं | कैलाशगिरि पर ऋषभ जिनवर, पद कमल हरिदै धरूं || तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महाबली | इह विरद सुनकर शरण आयो, कृपा कीज्यो नाथ जी || तुम चन्द्रवदन सुचन्द्रलक्षण चन्द्रपुरी परमेश्वरो | महासेन-नन्दन जगत-वंदन, चन्द्रनाथ जिनेश्वरो || तुम शांति पांच, कल्याण पूजों, शुद्ध मन-वच-काय जू | दुर्भिक्ष चोरी पापनाशन, विघन जाय पलाय जू || तुम बालब्रम्ह विवेक-सागर, भव्य कमल विकाशनो | श्री नेमिनाथ पवित्र दिनकर, पाप-तिमिर विनाशनो || जिन तजी राजुल राजकन्या, कामसैन्या वश करी | चारित्ररथ चढ़ी भये दूलहा, जाय शिव-रमणी वरी || कंदर्प दर्प सु सर्प-लक्ष्छन, कमठ-शठ निर्मद कियो | अश्वसेन-नंदन जगत-वन्दन सकल संघ मंगल कियो || जिन धरी बालकपणे दीक्षा, कमठ-मान विदारकैं | श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के पद, मैं नमों शिर नायकैं || तुम कर्मघाता मोक्षदाता, दीन जानि दया करो | सिद्धार्थ-नंदन जगत-वंदन, महावीर जिनेश्वरो || छत्र तीन सोहै सुर नर मोहै, विनती अब धारिये | कर जोड़ी सेवक विनवै प्रभु, आवागमन निवारिय...

माँ जिनवाणी ममता न्यारी,| Maa jinvani mamata nyari

माँ जिनवाणी ममता न्यारी, प्यारी प्यारी गोद हैं थारी। आँचल में मुझको तू रख ले, तू तीर्थंकर राज दुलारी ॥ वीर प्रभो पर्वत निर्झरनी, गौतम के मुख कंठ झरी हो । अनेकांत और स्यादवाद की, अमृत मय माता तुम्ही हो । भव्य जानो की कर्ण पिपिसा, तुमसे शमन हुई जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० सप्त्भंगमय लहरों से माँ, तू ही सप्त तत्व प्रगटाये । द्रव्य गुणों अरु पर्यायों का, ज्ञान आत्मा में करवाये । हेय ज्ञेय अरु उपादेय का, बहन हुआ तुमसे जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० तुमको जानू तुमको समझू, तुमसे आतम बोध में पाऊ । तेरे आँचल में छिप छिप कर, दुग्धपान अनुयोग का पाऊ । माँ बालक की रक्षा करना, मिथ्यातम को हर जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० धीर बनू में वीर बनू माँ, कर्मबली को दल दल जाऊ । ध्यान करू स्वाध्याय करू बस, तेरे गुण को निशदिन गाऊ । अष्ट करम की हान करे यह, अष्टम क्षिति को दे जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० ऋषि यति मुनि सब ध्यान धरे माँ, शरण प्राप्त कर कर्म हरे । सदा मात की गोद ...

जिनवर जिनवाणी | Jinvar Jinvani

जिनवर जिनवाणी नो भण्डार, वंदन करिए बारम्बार ।। श्री अरिहंत वाणी नो सार, गौतम स्वामी गुंथे छे माल । कुंद कुंद स्वामी रचनार, वंदन करिए०० चौदह पूरब नो छे सार, ॐ कार धुनी नो छे भण्डार । जिनवाणी जिन तारण हार, वंदन करिए०० गुंथा पाहुऊ समय सार, मूलाचार छे मुनियों नो सार । रत्न करंड रत्नों नो भण्डार, वंदन करिए ०० मिथ्यात्म अने राग ने द्वेष, कषाय ने तू करिए न लेश । विषय विष नो छे भण्डार, वंदन करिए०० वीर वाणी नो एकज सार, स्व नि स्व पर ने पर जान । आतम अनन्त ज्ञान भण्डार, वंदन करिए०० लाखों जीवों नी तारण हार, मयंक विनये बारम्बार । अनेकांत स्यादवाद प्रकाश, वंदन करिए००

म्हारी माँ जिनवाणी | Mhari Maa Jinvani

श्लोक द्वादाशंक वाणी नमो, षट कायक सुखकार । जा प्रसाद शिव मग दीपे, पंचम काल मजार ।। म्हारी माँ जिनवाणी थारी तो जय जयकार २ चरणा मा राखी लीजो, भव सागर तारी दीज्यो । कर दीज्यो इतणों उपकार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० कुंद कुंद सा थार बेटा, दुखड़ा सब जग का मेटा । राच्यो समय को सार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० शरणा जो तेरी आये, भवसागर से तिर जाये । तू ही हैं तारन हार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० गणधर किन्नर गुण गाते, मुनिवर भी ध्यान लगाते । गाते सब तेरा गुणगान, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० जिसने भी तुझको ध्याया, आतम का सुख हैं पाया । आतम की महिमा अपार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ०

जय जिनवाणी माता Jai jinvani mata

जय जिनवाणी माता, रख लाज हमारी, जय जिनवाणी २ आज सभा में मैया तोहे पुकारू २ आज सभा में तोहे पुकारू, जग की भाग्य विधाता ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। आन के मेरे कंठ विराजो मैया २ आन के मेरे कंठ विराजो, स्वर सरगम की गाथा ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। शाष्त्र ग्रंथो का बोध नहीं हैं मैया २ शाष्त्र ग्रंथो का बोध नहीं हैं, हमको कुछ नहीं आता ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। योगेन्द्र सागर तुम्हे पुकारे मैया २ योगेन्द्र सागर तुम्हे पुकारे, तुमको शीश नवाता ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। जय जिनवाणी माता, रख लाज हमारी । जय जिनवाणी माता ।।

श्री जिनवाणी माता की आरती | Jinvani Mata Aarti

ॐ जयजिनवाणी माता, ॐ जय जिनवाणी माता, तुमको निशदिन ध्यावे, सुरनर मुनि ज्ञानी ॥ टेक श्री जिनगिरिथी निकसी, गुरु गौतम वाणी, जीवन भ्रम तम नाशन, दिपक दरशाणी ॥ॐजय॥ कुमत कुलाचल चूरन, वज्र सम सरधानी। नव नियोग निक्षेपन, देखत दरपानी ॥ॐजय॥ पातक पंक पखालन, पुन्य परम वाणी। मोह महार्णव डूबता, तारन नौकाणी ॥ॐजय॥ लोका लोक निहारन, दिव्य नयन स्थानी। निज पर भेद दिखावन, सुरज किरणानी ॥ॐजय॥ श्रावक मुनिगण जननी, तुम ही गुणखानी। सेवक लख सुखदायक, पावन परमाणी ॥ॐजय॥ ॐ जय जिनवाणी माता, ॐ जय जिनवाणी माता, तुमको निश दिन ध्यावे, सुरनर मुनि ज्ञानी॥

जिनवाणी स्तुति || Jinvani Stuti

मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकासवे को, आपा-पर भासवे को, भानु-सी बखानी है । छहों द्रव्य जानवे को, बन्ध-विधि भानवे को, स्व-पर पिछानवे को, परम प्रमानी है ॥ अनुभव बतायवे को, जीव के जतायवे को, काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है । जहाँ-तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को, सुख विस्तारवे को, ये ही जिनवाणी है ॥ हे जिनवाणी भारती, तोहि जपों दिन रैन, जो तेरी शरणा गहै, सो पावे सुख चैन । जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोकालोक, सो वाणी मस्तक नवों, सदा देत हों ढोक ॥ जिनवाणी से संबंधित रचना See More >>

जिनवाणी स्तुति || JINVANI STUTI /

वीर हिमाचल तें निकसी गुरु गौतम के मुख-कुंड ढरी है | मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ आतप दूर करी है || ज्ञान-पयोनिधि-माँहि रली, बहु-भंग-तरंगनि सों उछरी है | ता शुचि-शारद-गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी करि शीश धरी है || या जग-मंदिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छयो अति-भारी | श्री जिन की ध्वनि दीपशिखा-सम जो नहिं होति प्रकाशनहारी || तो किस भाँति पदारथ-पाँति! कहाँ लहते रहते अविचारी | या विधि संत कहें धनि हैं धनि हैं जिन-बैन बड़े उपकारी || (दोहा) जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोक-अलोक | सो वाणी मस्तक नमूं, सदा देत हूँ धोक ||

सरस्वती-स्तवन || SARASVATI - ISTAVAN

 सरस्वती-स्तवन जगन्माता ख्याता, जिनवर मुखांभोज उदिता | भवानी कल्याणी, मुनि मनुज मानी प्रमुदिता || महादेवी दुर्गा, दरणि दु:खदाई दुर्गति | अनेका एकाकी, द्वययुत दशांगी जिनमती ||१|| कहें माता तो कों, यद्यपि सबही अनादिऽनिधना | कथंचित् तो भी तू, उपजि विनशे यों विवरना || धरे नाना जन्म, प्रथम जिन के बाद अब लों | भयो त्यों विच्छेद, प्रचुर तुव लाखों बरस लों ||२|| महावीर स्वामी, जब सकलज्ञानी मुनि भये | बिडौजा के लाये, समवसृत में गौतम गये || तबै नौकारूपा, भव जलधि माँही अवतरी | अरूपा निर्वर्णा, विगत भ्रम साँची सुखकरी ||३|| धरें हैं जे प्राणी, नित जननि तो कों हृदय में | करें हैं पूजा व, मन वचन काया करि नमें || पढ़ावें देवें जो, लिखि-लिखि तथा ग्रन्थ लिखवा | लहें ते निश्चय सों, अमर पदवी मोक्ष अथवा ||४|| ।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।