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ज्ञान पच्चीसी | Gyaan Pachchisi

सुर-नर-तिरयग योनि में, नरक-निगोद भ्रमंत | महामोह की नींद सों, सोये काल अनंत || १ || जैसें ज्वर के जोर सों, भोजन की रूचि जाय | तैसें कुकर्म के उदय, धर्म-वचन न सुहाय || २ || लगै भूख ज्वर के गए, रूचि सों लेय आहार | अशुभ गये शुभ के जगे, जानै धर्म-विचार || ३ || जैसें पवन झकोर तैं, जल में उठै तरंग | त्यों मनसा चंचल भई, परिग्रह के परसंग || ४ || जहाँ पवन नहिं संचरै, तहाँ न जल-कल्लोल | त्यों सब परिग्रह त्यागतैं, मनसा होय अडोल || ५ || ज्यों काहू विषधर डसै, रूचिसों नीम चबाय | त्यों तुम ममतासों मढ़े, मगन विषय-सुख पाय || ६ || नीम रसन परसै नहीं, निर्विष तन जब होय | मोह घटे ममता मिटे, विषय न वांछै कोय || ७ || ज्यों सछिद्र नौका चढ़े, बूड़हि अंध अदेख | त्यों तुम भव जल में परे, बिन विवेक धर भेख || ८ || जहाँ अखंडित गुन लगे, खेवट शुद्ध-विचार | आतम-रूचि-नौका चढ़े, पावहु भवजल पार || ९ || ज्यों अंकुश मानैं नहीं, महामत्त गजराज | त्यों मन तिसना में फिरैं, गिनै न काज अकाज || १० || ज्यों नर दाव उपाय कैं, गहि आनैं गज साधि | त्यों या मन बस करन कों, निर्...