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दीपावली पूजा - Deepavli-Pooja

श्री ऋषभ देवाय नमः।।
श्री महावीराय नमः।।
श्री गौतम-गणधरायनमः।।
श्री जिन सरस्वत्यै नमः।।
श्री केवलज्ञान लक्ष्म्यै नमः।।

श्री शुभ मिति कार्तिक बदी ३०.. ।। वार् ।। दिनांक // ई. को शुभ बेला में दुकान श्री की बही का मुहूर्त किया

पूजा प्रारम्भ
मंगलाचरण
अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता: सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा:
आचार्या जिनशासनोन्नतिकरा पूज्या उपाध्यायका:
श्रीसिद्धान्तसुपाठका: मुनिवरा: रत्नत्रयाराधका:
पञ्चैते परमेष्ठिन: प्रतिदिनं कुर्वन्तु ते मंगलम्

ॐ जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु ।

णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
णमो आइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्वसाहूणं।

चतत्तारि मंगलम, अरिहंता मंगलम,
सिद्धा मंगलम, साहू मंगलम्। 
केवलि पण्णत्तोधम्मो मंगलम्। 

चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंतालोगुत्तमा 
सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा। 
केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा |

चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, 
सिद्धा सरणं पव्वज्जामि, साहूशरणं पव्वज्जामि, 
केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि।

ॐ अनादि मूलमंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत

देव शास्त्र-गुरु पूजा का अर्घ
जल परम उज्जवल गन्ध अक्षत- पुष्प चरु धरुँ।
वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरुँ।।
इह भाँति अर्ध्य चढाय नित भवि करत शिव पंकति मचूँ।
अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निर्ग्रंथ नित पूजा रचूँ।।
वसुविधि अर्ध्य संजोय कै, अति उछाहमन कीन्।
जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र-गुरु तीन्।।
ॐ श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो अनर्ध्यपद प्राप्तये अर्ध्यम निर्पामीति स्वाहा।

बीस महाराज का अर्घ
जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर थार्।
नमूँ कर जोड, नित प्रति ध्याऊ भोरहिं भोर।।
पाँचों मेरु विदेह सुथान, तीर्थंकर जिन बीस महान।
नमूँ कर जोड नित प्रति ध्याऊ भोरहिं भोर।।
ॐ ह्रीं श्री विदेहक्षेत्रस्य सीमन्धरादि विद्यमांर्विर्शति तीर्थंकरेभ्यो अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।।

सिद्ध पर्मेष्ठी का अर्घ
जल फल वसु वृन्दा, अरघ अमन्दा, जजत अनन्दा के कन्दा।
मेटे भवफन्दा, सब दुःख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा।।
त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवन, नामी, अंतरजामी अभिरामी।
शिवपुर विश्रामी, निज निधिपामी सिद्धजजामी सिरनामी।।
ॐ ह्रीं श्री अनाहत परक्रमाय सर्वकर्म विनिर्मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।

तीस चौबीसी का अर्घ
द्रव्य आठो, जू लीना हैं, अर्घ कर में नवीना हैं ।
पुजतां पाप छीना हैं, भानुमल जोड़ किना हैं ॥
दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दस ताँ विषै छाजै ।
सातशत बीस जिनराजे, पुजतां पाप सब भाजै ॥
ॐ ह्रीं पञ्चभरत-पंचैरावत-सम्बन्धी-दशक्षेत्रान्तर्गत-भुत-भविष्यत्-वर्तमान-सम्बन्धी-तीस-चौबीसी के सात सौ बीस जिनेंद्रेभ्यो-अर्घय्म निर्वपामिति स्वाहा ||      

चौबीस महाराज का अर्घ
फलफल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों।
तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों।।
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही।
पदजजत हरत भव फन्द, पावक मोक्षमही।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांत चतुर्विंशति तिर्थंकरेभ्यो अनर्घ-पद प्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा ||

श्री महावीर अर्घ
जल फल वसु सजि हिम थार, तनमन मोद धरों।
गुण गाऊ भवदधितार, पूजत पाप हरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।

अंतरायकर्म नाशार्थ अर्घ
लाभ की अंतराय के वस जीवसु न लहै।
जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।।
नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै।
अरिहंत सिद्ध अधर धरिकै लाभ यौ कर्म कौ हरै।।
ॐ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पांजलिं क्षिपेत

श्री जिनवाणी पूजा

जनम जरा मृतु, क्षय करै, हरै कुनय जड रीति;
भव सगरसों ले तिरै, पूजै जिन वच प्रीति.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वत्यै पुष्पांजलि निर्वपामीति स्वाहा.

छीरो दधि गंगा विमल, तरंगा सलिल, अभंगा, सुख संगा;
भरि कंचन झारी, धारी निकारी, तृषा निवारी, हित चंगा.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती-देव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा.

कर-पूर मंगाया चन्दन आया, केशर लाया रंग भरी;
शारत-पद वंदो, मन अभिनंदों, पाप निकंदो दाह हरी.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा.

सुख दास कमोदं, धारक मोदं अति अनु मोदं चंद-समं;
बहु भक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, मात ममं.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा.

बहु फूल सुवासं, विमल प्रकाशं, आनंद रासं लाय धरे;
मम काम मिटायो, शील बढ़ायो, सुख उपजायो दोष हरे.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा.

पकवान बनाया, बहु धृत लाया, सब विध भाया मिष्ठ महा;
पजुं थुति गाऊं, प्रीति बढ़ाऊं, क्षुधा नशाऊं हर्ष लहा.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै नैवेध्यम निर्वपामीति स्वाहा.

कर दीपक जोतं, तन क्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहिं चढ़ै;
तुम हो परकाशक, भरम विनाशक हम घट भासक ज्ञान बढ़ै.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै दीपं निर्वपामीति स्वाहा.

शुभ गंध दशोंकर, पाव कमें धर, धूप मनोहर खेवत हैं;
सब पाप जलावे,पुण्य कमावे, दास कहावे सेवत हैं.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै धूपम् निर्वपामीति स्वाहा.

बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्री फल भारी ल्यावत हैं;
मन वांछित दाता मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै फलम् निर्वपामीति स्वाहा.

नयनन सुख कारी, मृदु गुन धारी, उज्जवल भारी, मोल धरैं;
शुभ गंध सम्हारा, वसन निहारा, तुम तन धारा ज्ञान करैं.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा.

जल चंदन अक्षत फल चरु, अरु दीप धूप अति फल लावै;
पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुख पावै.
तीर्थंकर की ध्वनि, गण धर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई;
सो जिनवर वानी, शिव सुख दानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा.

जयमाला 
ओंकार ध्वनि सार, द्वाद-शांग वाणी विमल;
नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करै जड़ता हरै.
पहलो आचा रंग बखानो, पद अष्टा-दश सहस प्रमानो;
 दूजो सूत्र कृतं अभिलाष, पद छत्तीस सहस गुरु भाषं.
तीजो ठाना अंग सुजानं, सहस बयालिस पद सरधानं;
 चौथो सम वायांग निहारं, चौसठ सहस लाख इक धारम्.
पंचम व्याख्या प्रज्ञप्ति दरसं, दोय लाख अटठाइस सहसं;
 छटठो ज्ञातृ कथा विस्तारं, पांच लाख छप्पन हज्जारं.
सप्तम उपास काध्य नंगं, सत्तर सहस ग्यार लख भंगं;
अष्टम अंत कृत दस ईसं, सहस अठाइस लाख तेईसं.
नवम अनुत्तर दश सुविशालं, लाख बानवै सहस चवालं;
 दशम प्रश्न व्याकरण विचारं, लाख तिरानव सोल हजारं.
ग्यारस सूत्र विपाक सु भाखं, एक कोड चौरासी लाखं;
चार कोड़ि अरु पंद्रह लाखं, दो हजार सब पद गुरु शाखं.
द्वादश दृष्टि वाद पन भेदं, इक सो आठ कोड़ि पन वेदं;
अड़सठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंच पद मिथ्या हन हैं.
इक सौ बारह कोड़ि बखानो, लाख तिरासी ऊपर जानो;
 ठावन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्व पद माने.
साढ़े इकावन आठ हि लाखं, सहस चुरासी छह सौ भाखं;
 साढ़े इकीस श्लोक बताये, एक एक पद के ये गाये.
दोहा
जा बानी के ज्ञान ते, सूझे लोक अलोक;
ज्ञानत जग जय-वंत हो, सदा देत हूँ धोक.
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भ्व सरस्वती देव्यै महार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा.

श्री गौतम गणधर पूजा
श्री गौतम गणईश शीष यह तुम्हे नमा कर
आव्हानन अब करूँ आय तिष्ठो मानस पर।
पाके केवल ज्योति ज्ञाननिधि हुए गुणाकर।
निज लक्ष्मी का दान करो मेरे घट आ कर।
श्री गौतम गण ईश जी तिष्ठो मम उर आय।
ज्ञान-लक्ष्मी पति बने, मेरी मानव काय।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्त श्री गौतमगणधराय पुष्पांजलिः।

गांगेय वारि शुचि प्रासुक दिव्य ज्योति।
जन्मादि कष्ट निज वारण को लिया ये।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

कर्पूर युक्त मलयागिर को घिसाया
संसार ताप शमनार्थ इसे बनाया
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय सुगन्धं निर्वपामीति स्वाहा।

मुक्ताभ अक्षत सुगन्धि चुना चुना के,
व्याधिध्न अक्षत-पदार्थ सजा सजा के।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

कन्दर्प दर्प दलनार्थ नवीन ताजे,
बेला गुलाब मच्कुन्द सु पार्जाती।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतमपदाम्बुजमें चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

क्षीरादि मिश्रित अमीघ बल प्रदाता,
पक्कान्न थाल यह भूख निवारने को।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।

रत्नादि दीप नवज्योति कपूर वर्ती,
उद्दाम-मोह-तम- तोम सभी हटाने।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय दीपम निर्वपामीति स्वाहा।

अज्ञान मोह मद से भव में भ्रमाता,
ये दुष्ट कर्म, तिस नाशन को दशांगी।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय धूपम निर्वपामीति स्वाहा।

केला अनार सह्कार सुपक्क जामू,
ये सिद्धमिष्ठ फल मोक्षफलाप्ति को मैं।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय फलम निर्वपामीति स्वाहा।

पानीय आदि वसु द्रव्य सुगन्धयुक्त,
लाया प्रशांत मन से निज रूप पाने।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम पदाम्बुज में चढाता।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

वीर जिनेश्वर के प्रथम गणधर-गौतम-पांय।
नमन करुँ कर जोडकर स्वर्ग मोक्ष फल दाय।।
हरिगीत्तिका
जय देव श्रीगौतम गणेश्वर्। प्रार्थना तुमसे करूँ।
सब हटा दो कष्ट मेरे अर्घ ले आरती करूँ।
हे गणेश। कृपा करो, अब आत्म ज्योति पसार दो।
हम हैं तुम्हारे सदय हो दुर्वासनायें मार दो।
वीर प्रभुनिर्वाण-क्षण में था सम्हाला आपने।
अब चोड तुमको जाउँ कहँ घेरा चहूँ दिशि पाप ने।
है दिवस वह ही नाथ। स्वामीवीर के निर्वाण का।
जग के हितैषी बिज्ञ गौतम ईष केवल ज्ञान का।
नाथ। अब कर के कृपा हम्को सहारा दीजिये।
दीपमाला-आरती पूजा गृहम मम कीजिये।
दीपमाला-आरती पूजा गृहण मम कीजिये।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।

ज्योति पुंज गणपति प्रभो। दूर करो अज्ञान
समता रस से सिक्त हो नया उगे उर भानु।।
पुष्पांजलिं क्षिपेत

श्री महावीर स्वामी की आरती
जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।
कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभो।। ॐ जय महावीर.
सिद्धार्थ घर जन्मे, वैभवथा भारी।
बाल ब्रह्मचारी व्रत पाल्यौ, तपधारी।। ॐ जय महावीर.
आतम ज्ञान विरागी, सम दृष्टिधारी।
माया मोह विनाशक, ज्ञान ज्योतिजारी।। ॐ जय महावीर.
जग में पाठ अहिंसा, आपहि विस्तार्यौ।
हिंसा पाप मिटा कर, सुधर्म परचारयौ।। ॐ जय महावीर.
यहि विधि चाँदनपुर में,अतिशय दर्शायौ।
ग्वाल मनोरथ पूर्यो, दूध गाय पायौ।। ॐ जय महावीर.
प्राणदान मंत्री को, तुमने प्रभु दीना।
मन्दिर तीन शिखर का निर्मित है कीना।। ॐ जय महावीर.
जयपुर नृप भी तेरे, अतिशय के सेवी।
एक ग्राम तिन दीनों, सेवा हित यह भी।। ॐ जय महावीर.
जो कोइ तेरे दर पर इच्छा कर आवे।
धन, सुत सब कुछ पावे संकट मिट जावे।। ॐ जय महावीर.
निश दिन प्रभु मन्दिर में जगमग ज्योति करै।
हरिप्रसाद चरणों में, आनन्द मोद भरैं।। ॐ जय महावीर.

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 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

BHAKTAMAR STOTRA MAHIMA / भक्तामर-स्तोत्र महिमा

पं. हीरालाल जैन ‘कौशल’ श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात, भक्ति मन लाई | सब संकट जायँ नशाई || जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे | चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१|| मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था | मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२|| उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था | हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३|| मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे | क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४|| मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था | हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५|| सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके | कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६|| राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था | मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७|| जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है | जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ...