Skip to main content

देव शास्र गुरु पूजा | Dev Shastra Guru Pooja

|| देव शास्र गुरु पूजा ||

प्रथम देव अरहंत, सुश्रुत सिद्धांत जू |
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त, मुकतिपुर पन्थ जू ||
तीन रतन जग मांहि सो ये भवि ध्याइये |
तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये ||
दोहा – पूजौं पद अरहंत के, पूजौं गुरुपद सार |
पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ||
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननं) |
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापनं) |
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधि करणं)|

सुरपति उरग नरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपद-प्रभा |
अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा ||
वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धांत, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मल छीन |
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्व0 स्वाहा |1|

जे त्रिजग उदर मंझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे |
तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ||
तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घिसि सचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – चंदन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन |
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्व0 स्वाहा |2|

यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई |
अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही ||
उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल पुंज धरि त्रय गुण जचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – तंदुल शालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन |
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व0 स्वाहा |3|

जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज प्रकाशन भान हैं |
जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं ||
लहि कुंद कमलादिक पुहुप, भव भव कुवेदनसों बचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – विविध भांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन |
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्व0 स्वाहा |4|

अति सबल मद-कंदर्प जाको क्षुधा-उरग अमान है |
दुस्सह भयानक तासु नाशन को सु गरुड़ समान है ||
उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन |
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्व0 स्वाहा |5|

जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली |
तिंहि कर्मघाती ज्ञानदीप प्रकाश ज्योति प्रभावली ||
इह भांति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन |
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्व0 स्वाहा |6|

जे कर्म-ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै |
वर धूप तासु सुगन्धता करि, सकल परिमलता हंसै ||
इह भांति धूप चढ़ाय नित भव ज्वलनमाहिं नहीं पचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – अग्निमांहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन |
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्व0 स्वाहा |7|

लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं |
मोपै ब उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं ||
सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – जे प्रधान फल फलविषैं, पंचकरण-रस लीन |
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व0 स्वाहा |8|

जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरुं |
वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनम के पातक हरुं ||
इहि भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा – वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन |
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्व0 स्वाहा |9|

जयमाला
देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार |
भिन्न भिन्न कहुं आरती, अल्प सुगुण विस्तार |1|
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि |
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर |2|
शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार |
देवाधिदेव अरहंत देव, वंदौं मन-वच-तन करि सुसेव |3|
जिनकी ध्वनि ह्वै ओंकाररुप, निर-अक्षर मय महिमा अनूप |
दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत |4|
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग |
रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय |5|
गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय-निधि अगाध |
संसारदेह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिवपद निहार |6|
गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भवतारन तरन जिहाज ईस |
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु-नाम जपौं मन-वचन-काय |7|
सोरठा – कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरे |
द्यानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवे |8|
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
दोहा – श्रीजिन के परसाद तें, सुखी रहें सब जीव |
या तें तन मन वचन तें, सेवो भव्य सदीव ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षेपत्) |

तीस चौबीसी का अर्घ्य
द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ्य कर में नवीना है |
पूजतां पाप छीना है, ‘भानुमल’ जोड़ि कीना है ||
दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै |
सात शत बीस जिनराजै, पूजतां पाप सब भाजै ||
ॐ ह्रीं पंचभरत, पंच ऐरावत, दशक्षेत्रविषयेषु त्रिंशति चतुर्विशत्यस्य 
सप्तशत विंशति जिनेंद्रेभ्यः नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुलपुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूपफलार्घ्य कैः |
धवल मंगल-गानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे |1|
ॐ ह्रीं सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-
अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-
ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति
विद्यमानतीर्थंकरेभ्य नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...