Skip to main content

|| देव शास्र गुरु पूजा || (केवल-रवि-किरणों )-कविश्री युगलजी बाबू जी - Dev Shastra Pooja - Kavi Yugal Kishor Ji Keval ravi kirano se

|| देव शास्र गुरु पूजा ||
कविश्री युगलजी बाबू जी

केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर|
उस श्री जिनवाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन||
सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण|
उन देव-परम-आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)।
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)।
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)।


इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया|
यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया||
मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर-ममता में अटकाया हूँ |
अब निर्मल सम्यक्-नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है|
अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है||
प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है|
संतप्त-हृदय प्रभु! चंदन-सम, शीतलता पाने आया है||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

उज्ज्वल हूँ कुंद-धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किंचित् भी|
फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही||
जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, नश्वर वैभव को अपनाया|
निज शाश्वत अक्षय निधि पाने, अब दास चरण रज में आया||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

यह पुष्प सुकोमल कितना है! तन में माया कुछ शेष नहीं|
निज-अंतर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं||
चिंतन कुछ फिर सम्भाषण कुछ, क्रिया कुछ की कुछ होती है|
स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ, जो अंतर-कालुष धोती है||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

अब तक अगणित जड़-द्रव्यों से, प्रभु! भूख न मेरी शांत हुर्इ|
तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही||
युग-युग से इच्छा-सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ|
पंचेन्द्रिय-मन के षट्-रस तज, अनुपम-रस पीने आया हूँ||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा|
झंझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा||
अतएव प्रभो! यह नश्वर-दीप, समर्पण करने आया हूँ|
तेरी अंतर लौ से निज, अंतर-दीप जलाने आया हूँ||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़-कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या-भ्रांति रही मेरी|
मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी||
यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ|
निज-अनुपम गंध-अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है|
मैं आकुल-व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है||
मैं शांत निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचरि मेरी|
यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलंं निर्वपामीति स्वाहा।

क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है|
काषायिक भाव विनष्ट किये, निज-आनंद अमृत पीता है||
अनुपम-सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है|
दर्शन-बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरिहन्त-अवस्था है||
यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु! निज-गुण का अर्घ्य बनाऊँगा|
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अरिहन्त-अवस्था पाऊँगा||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

----जयमाला----
(ज्ञानोदय छंद)
भव-वन में जी भर घूम चुका, कण-कण को जी भर-भर देखा |
मृग-सम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ||(1)
झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएँ |
तन जीवन यौवन अस्थिर हैं, क्षण भंगुर पल में मुरझाएँ ||(2)
सम्राट् महाबली सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या |
अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ||(3)
संसार महा-दु:खसागर के, प्रभु! दु:खमय सुख-आभासों में |
मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कंचन-कामिनि-प्रासादों में ||(4)
मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते |
तन-धन को साथी समझा था, पर वे भी छोड़ चले जाते ||(5)
मेरे न हुए ये मैं इनसे, अतिभिन्न अखंड निराला हूँ |
निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम-रस पीनेवाला हूँ ||(6)
जिसके श्रृंगारों में मेरा, यह महँगा जीवन घुल जाता |
अत्यन्त अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता ||(7)
दिन-रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता |
मानस वाणी अरु काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता ||(8)
शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अंतस्थल |
शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अंतर्बल ||(9)
फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें |
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ||(10)
हम छोड़ चलें यह लोक तभी, लोकांत विराजें क्षण में जा |
निज-लोक हमारा वासा हो, शोकांत बनें फिर हमको क्या ||(11)
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नयतम सत्वर टल जावे |
बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर मोह विनश जावे ||(12)
चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी |
जग में न हमारा कोर्इ था, हम भी न रहें जग के साथी ||(13)
(देव-स्तवन)
चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जावे |
मुरझार्इ ज्ञान-लता मेरी, निज-अंतर्बल से खिल जावे ||(14)
सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा-ज्वाला |
परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला ||(15)
तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय-सुख की ही अभिलाषा |
अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुख की भी परिभाषा ||(16)
तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे |
अतएव झुकें तव चरणों में, जग के माणिक-मोती सारे ||(17)
(शास्त्र-स्तवन)
स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं |
उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं ||(18)
(गुरु-स्तवन)
हे गुरुवर! शाश्वत सुख-दर्शक, यह नग्न-स्वरूप तुम्हारा है |
जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्श कराने वाला है ||(19)
जब जग विषयों में रच-पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो |
अथवा वह शिव के निष्कंटक- पथ में विष-कंटक बोता हो ||(20)
हो अर्ध-निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों |
तब शांत निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिंतन करते हो ||(21)
करते तप शैल नदी-तट पर, तरु-तल वर्षा की झड़ियों में |
समतारस पान किया करते, सुख-दु:ख दोनों की घड़ियों में ||(22)
अंतर-ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ |
भव-बंधन तड़-तड़ टूट पड़ें, खिल जावें अंतर की कलियाँ ||(23)
तुम-सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियाँ |
दिन-रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ ||(24)

हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम! प्रणाम |
हे शांति-त्याग के मूर्तिमान, शिव-पंथ-पथी गुरुवर! प्रणाम ||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

Artist - कविश्री युगलजी बाबू जी

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज << >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें..<< https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद

समाधी मरण | Samadhi Maran Path

गौतम स्वामी वन्दों नामी मरण समाधि भला है। मैं कब पाऊँ निशदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है॥ देव-धर्म-गुरु प्रीति महादृढ़ सप्त व्यसन नहिं जाने। त्यागे बाइस अभक्ष्य संयमी बारह व्रत नित ठाने॥१॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधे। बनिज करै परद्रव्य हरे नहिं छहों करम इमि साधे॥ पूजा शा गुरुन की सेवा संयम तप चहु दानी। पर-उपकारी अल्प-अहारी सामायिक-विधि ज्ञानी॥२॥ जाप जपै तिहूँ योग धरै दृढ़ तन की ममता टारै। अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचारै॥ आग लगै अरु नाव डुबै जब धर्म विघन है आवे। चार प्रकार अहार त्याग के मंत्र सु मन में ध्यावै॥३॥ रोग असाध्य जरा बहु देखै कारण और निहारे। बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवन को डारै॥ जो न बनै तो घर में रहकरि सब सों होय निराला। मात-पिता सुत-तिय को सोंपे निजपरिग्रह अहि काला ४ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुखिया धन देई। क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मन की शल्य हनेई॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरै मैं बहु कीन बुराई। तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सब बगसो भाई॥५॥ धन धरती जो मुख सों मांगै सबको दे सन्तोषै। छहों काय के प्र

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ज्यो

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द

RISHIMANDAL STOTRAM / ऋषिमण्डल स्तोत्रम्

ऋषिमण्डल स्तोत्रम् आद्यंताक्षरसंलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यत्स्थितम् | अग्निज्वालासमं नादं बिन्दुरेखासमन्वितम् ||१|| अग्निज्वाला-समाक्रान्तं मनोमल-विशोधनम् | दैदीप्यमानं हृत्पद्मे तत्पदं नौमि निर्मलम् ||२|| युग्मम् | ॐ नमोऽर्हद्भ्य : ऋषेभ्य: ॐ सिद्धेभ्यो नमो नम: | ॐ नम: सर्वसूरिभ्य: उपाध्यायेभ्य: ॐ नम: ||३|| ॐ नम: सर्वसाधुभ्य: तत्त्वदृष्टिभ्य: ॐ नम: | ॐ नम: शुद्धबोधेभ्यश्चारित्रेभ्यो नमो नम: ||४|| युग्मम् | श्रेयसेऽस्तु श्रियेऽस्त्वेतदर्हदाद्यष्टकं शुभम् | स्थानेष्वष्टसु संन्यस्तं पृथग्बीजसमन्वितम् ||५|| आद्यं पदं शिरो रक्षेत् परं रक्षतु मस्तकम् | तृतीय रक्षेन्नेत्रे द्वे तुर्यं रक्षेच्च नासिकाम् ||६|| पंचमं तु मुखं रक्षेत् षष्ठं रक्षतु कण्ठिकाम् | सप्तमं रक्षेन्नाभ्यंतं पादांतं चाष्टमं पुन: ||७|| युग्मम् | पूर्व प्रणवत: सांत: सरेफो द्वित्रिपंचषान् | सप्ताष्टदशसूर्यांकान् श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् ||८|| पूज्यनामाक्षराद्यास्तु पंचदर्शनबोधकम् | चारित्रेभ्यो नमो मध्ये ह्रीं सांतसमलंकृतम ||9|| जाप्य मंत्र:- ॐ ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रूं ह

जलाभिषेक - Jal abhishek Mantra -Duravnamra

दुरावनम्र-सुरनाथ-किरीट-कोटि- संलग्न-रत्न-किरण-च्छवि-धुसराध्रिम । प्रस्वेद-ताप-मल-मुक्तमपि-प्रकृष्टै- र्भक्तया जलै-र्जिनपर्ति बहुधाभिषेच्चे ।। मंत्र-१: ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनाभिषेचयामीस्वाहा । मंत्र-२: ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं क्रपालसंतम वृषभादि वर्धमानांत-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परमदेवं आध्यानाम आध्ये जम्बुदीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे देशे.... नाम नगरे एतद .... जिन चैत्यालये वीर निर्वाणसंवत ...... मासोत्तम-मासे ...... मासे . पक्षे........ तिथौ ......... वासरे प्रशस्त ग्रहलग्न होरायं मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्रविकानाम सकलकर्म-क्षयार्थ जलेनाभिषेकं करोमि स्वाहा । इति जलस्नपनम् अभिषेक से संबंधित रचना See More >>