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जिन चतुर्विंशिका | Jin Chaturvinshika

श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं, कीर्तिप्रमोदास्पदम्
वाग्देवीरतिकेतनं जयरमा, क्रीडानिधानं महत्।
स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं, य: प्रार्थितार्थप्रदं
प्रात: पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनाङ्घ्रिद्वयम्॥ १॥

वसन्ततिलका छन्द:
शान्तं वपु: श्रवणहारि वचश्चरित्रं
सर्वोपकारि तव देव तत: श्रुतज्ञा:।
संसारमारवमहास्थलरुन्द्रसान्द्र च्-
छायामहीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते॥ २॥

शार्दूलविक्रीडितछन्द:
स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननी, गर्भान्धकूपोदरा-
दद्योद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फुटम्।
त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदा, नन्दाय लोकत्रयी-
नेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्दिप्रभाचन्द्रिकम्॥ ३॥

नि:शेषत्रिदशेन्द्रशेखरशिखा, रत्नप्रदीपावली-
सान्द्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटी, माणिक्यदीपावलि:।
क्वेयं श्री: क्व च नि:स्पृहत्वमिदमि-त्यूहातिगस्त्वादृश:
सर्वज्ञानदृशश्चरित्रमहिमा, लोकेश! लोकोत्तर:॥ ४॥

राज्यं शासनकारिनाकपति, यत्त्यक्तं तृणावज्ञया
हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा, यन्मोहमल्लो जित:।
लोकालोकमपि स्वबोधमुकुरस्यान्त:कृतं यत्त्वया
सैषाश्चर्यपरम्परा जिनवर! क्वान्यत्र सम्भाव्यते॥ ५॥

दानं ज्ञानधनाय दत्तमसकृत्,पात्राय सद्वृत्तये
चीर्णान्युग्रतपांसि तेन सुचिरं, पूजाश्च बह्व्य: कृता:।
शीलानां निचय: सहामलगुणै:, सर्व: समासादितो
दृष्टस्त्वं जिन! येन दृष्टिसुभग:, श्रद्धापरेण क्षणम्॥ ६॥

प्रज्ञापारमित: स एव भगवान्, पारं स एव श्रुत-,
स्कन्धाब्धेर्गुणरत्नभूषण इति, श्लाघ्य: स एव धु्रवम्।
नीयन्ते जिन ! येन कर्णहृदया-लङ्कारतां त्वद्गुणा:,
संसाराहिविषापहारमणयस्ा्, त्रैलोक्यचूडामणे:!॥ ७॥

मालिनी छन्द:
जयति दिविजवृन्दान्दोलितैरिन्दुरोचिर्-
निचयरुचिभिरुच्चैश्चामरैर्वीज्यमान:।
जिनपतिरनुरज्यन्मुक्तिसाम्राज्यलक्ष्मी -
युवतिनवकटाक्षक्षेपलीलां दधानै:॥ ८॥

स्रग्धरा छन्द:
देव: श्वेतातपत्र, त्रयचमरिरुहा, शोकभाश्चक्रभाषा-
पुष्पौघासारसिंहासनसुरपटहै-रष्टभि: प्रातिहार्यै:।
साश्चर्यैभ्र्राजमान:, सुरमनुजसभाम्-भोजिनी भानुमाली
पायान्न:पादपीठी,कृतसकलजगत्पालमौलिर्जिनेन्द्र:॥ ९॥

नृत्यत्स्वर्दन्तिदन्ताम्बु-रुहवननटन्-नाकनारीनिकाय:
सद्यस्त्रैलोक्ययात्रोत्सवकरनिनदा, तोद्यमाद्यन्निलिम्प:।
हस्ताम्भोजातलीलाविनिहितसुमनोद्दामरम्यामरस्त्री-
काम्य:कल्याणपूजा, विधिषु विजयते, देव! देवागमस्ते॥ १०॥

शार्दूलविक्रीडित छन्द:
चक्षुष्मानहमेव देव! भुवने, नेत्रामृतस्यन्दिनं
त्वद्वक्त्रेन्दुमतिप्रसादसुभगैस्, तेजोभिरुद्भासितम्।
येनालोकयता मयानतिचिराच्चक्षु: कृतार्थीकृत
द्रष्टव्यावधिवीक्षण-व्यतिकरव्याजृम्भमाणोत्सवम्॥ ११॥

वसन्ततिलका छन्द:
कन्तो: सकान्तमपि मल्लमवैति कश्चिन्-
मुग्धो मुकुन्दमरविन्दजमिन्दुमौलिम्।
मोघीकृतत्रिदशयोषिदपाङ्गपातस् -
तस्य त्वमेव विजयी जिनराज! मल्ल:॥ १२॥

मालिनी छन्द:
किसलयतिमनल्पं, त्वद्विलोकाभिलाषात्-
कुसुमितमतिसान्द्रं, त्वत्समीपप्रयाणात्।
मम फलितममन्दं, त्वन्मुखेन्दोरिदानीं
नयनपथमवाप्ताद्, देव! पुण्यद्रुमेण॥ १३॥

त्रिभुवनवनपुष्यत्, पुष्पकोदण्डदर्प-
प्रसरदवनवाम्भो, मुक्तिसूक्तिप्रसूति:।
स जयति जिनराज-, व्रातजीमूतसङ्घ:
शतमखशिखिनृत्या-,रम्भनिर्बन्धबन्धु:॥ १४॥

स्रग्धरा छन्द:
भूपालस्वर्गपाल-, प्रमुखनरसुरश्रेणिनेत्रालिमाला-
लीलाचैत्यस्य चैत्या-लयमखिलजगत्कौमुदीन्दोर्जिनस्य।
उत्तंसीभूतसेवाञ्जलिपुटनलिनीकुड्मलस्त्रि:परीत्य,
श्रीपादच्छाययापस्थितभवदवथु: संश्रितोस्मीव मुक्तिम्॥

वसन्ततिलका छन्द:
देव! त्वदङ्-िघ्रनखमण्डलदर्पणेऽस्मिन् -
नघ्र्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्र:।
श्रीकीर्तिकान्तधृति - सङ्गमकारणानि
भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि॥ १६॥

मालिनी छन्द:
जयति सुरनरेन्द्र-, श्रीसुधानिर्झरिण्या:
कुलधरणिधरोऽयं, जैनचैत्याभिराम:।
प्रविपुलफलधर्मा-, नोकहाग्रप्रवाल-
प्रसरशिखरशुम्भत्-, केतन: श्रीनिकेत:॥ १७॥

विनमदमरकान्ता, कुन्तलाक्रान्तकान्ति-
स्फुरितनखमयूखद्योतिताशान्तराल:।
दिविजमनुजराज-, व्रातपूज्यक्रमाब्जो
जयति विजितकर्मा-,रातिजालो जिनेन्द्र:॥ १८॥

वसन्ततिलका छन्द:
सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय,
दृष्टव्यमस्ति यदि मङ्गलमेव वस्तु।
अन्येन किं तदिह नाथ! तवैव वक्त्रं,
त्रैलोक्यमङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम्॥ १९॥

शार्दूल विक्रीडित छन्द:
त्वं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्, त्वं काव्यबन्धक्रम-
क्रीडानन्दनकोकिलस्त्वमुचित:, श्रीमल्लिकाषट्पद:।
त्वं पुन्नागकथारविन्दसरसी, हंसस्त्वमुत्तंसकै:
कैर्भूपाल न धार्यसे गुणमणिस्रङ्मालिभिर्मौलिभि:॥ २०॥

मालिनी छन्द:
शिवसुखमजरश्री, सङ्गमं चाभिलष्य
स्वमभिनियमयन्ति, क्लेशपाशेन केचित्।
वयमिह तु वचस्ते, भूपतेर्भावयन्तस्-
तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशाम:॥ २१॥

शार्दूल विक्रीडित छन्द:
देवेन्द्रास्तव मज्जनानि विदधु, र्देवाङ्गना मङ्गला-
न्यापेठु: शरदिन्दुनिर्मलयशो, गन्धर्वदेवा जगु:।
शेषाश्चापि यथानियोगमखिला:, सेवां सुराश्चक्रिरे
तत्िकं देव! वयं विदध्म इति नश्िचत्तं तु दोलायते॥ २२॥

देव! त्वज्जननाभिषेकसमये, रोमाञ्चसत्कञ्चुकै-
र्देवेन्द्रैर्यदनर्ति नत्र्तनविधौ, लब्धप्रभावै: स्फुटम्।
किञ्चान्यत्सुरसुन्दरीकुचतट, प्रान्तावनद्धोत्तम-
प्रेङ्खद्वल्लकिनादझङ् -कृतमहो, तत्केन संवण्र्यते ॥ २३॥

देव! त्वत्प्रतिबिम्बमम्बुजदल, स्मेरेक्षणं पश्यतां
यत्रास्माकमहो महोत्सवरसो, दृष्टेरियान्वर्तते।
साक्षात्तत्र भवन्तमीक्षितवतां, कल्याणकाले तदा
देवानामनिमेषलोचनतया, वृत्त: स किं वण्र्यते॥२४॥

दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं
दृष्टं सिद्धरसस्य सद्मसदनं दृष्टं च चिन्तामणे:।
किं ट्टष्टेरथवानुषङ्गिकफलैरे-,भिर्मयाद्य ध्रुवं
दृष्टं मुक्ितविवाहमङ्गलगृहं, दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥ २५॥

दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्र! विकसद्भूपेन्द्रनेत्रोत्पले
स्नातं त्वन्नुतिचन्द्रिकाम्भसि भवद्विद्वच्चकोरोत्सवे।
नीतश्चाद्य निदाघज: क्लमभर:, शान्तिं मया गम्यते
देव! त्वद्गतचेतसैव भवतो, भूयात्पुनर्दर्शनम् ॥ २६॥

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