Skip to main content

PANCH BAALYATI-TIRTHANKAR POOJA / पंच बालयति-तीर्थंकर पूजा

PANCH BAALYATI-TIRTHANKAR POOJA / पंच बालयति-तीर्थंकर पूजा
कविश्री अरदास
(पूजन विधि निर्देश)

(दोहा)
श्री जिन पंच अनंग-जित, वासुपूज्य मल्लि नेम |
पारसनाथ सु वीर अति, पूजूँ चित-धरि प्रेम ||
ॐ ह्रीं श्री पंचबालयति-तीर्थंकरा: अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री पंचबालयति-तीर्थंकरा: अत्र तिष्ट तिष्ट ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पंचबालयति-तीर्थंकरा: अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)

(अथाष्टक)

शुचि शीतल सुरभि सुनीर, लायो भर झारी,
दु:ख जामन मरन गहीर, या कों परिहारी |
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

चंदन केशर कर्पूर, जल में घसि आनो |
भव-तप-भंजन सुखपूर, तुमको मैं जानो ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

वर अक्षत विमल बनाय, सुवरण-थाल भरे |
बहु देश-देश के लाय, तुमरी भेंट धरे ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

यह काम सुभट अतिसूर, मन में क्षोभ करो |
मैं लायो सुमन हुजूर, या को वेग हरो ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

षट् रस पूरित नैवेद्य, रसना-सुखकारी |
द्वय कर्म वेदनी छेद, आनंद ह्वै भारी ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

धरि दीपक जगमग ज्योति, तुम चरणन आगे |
मम मोहतिमिर क्षय होत, आतम गुण जागे ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

ले दशविधि धूप अनूप, खेऊँ गंधमयी |
दशबंध दहन जिनभूप, तुम हो कर्मजयी ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

पिस्ता अरु दाख बदाम श्रीफल लेय घने |
तुम चरण जजूँ गुणधाम द्यो सुख मोक्ष तने ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अरघ बनावत हूँ |
वसुकर्म अनादि संयोग ताहि नशावत हूँ ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अति,
नमूं मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयति- तीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

जयमाला

(दोहा)

बाल ब्रह्मचारी भये, पाँचों श्री जिनराज |
तिनकी अब जयमालिका, कहूँ स्व-पर हितकाज ||

(पद्धरि छन्द)

जय जय जय जय श्री वासुपूज्य, तुम-सम जग में नहिं और दूज |
तुम महाशुक्र-सुरलोक छार, जब मात गर्भ-माँहीं पधार ||

षोडश सपने देखे सुमात, बल अवधि जान तुम जन्म तात |
अति हर्ष धार दंपति सुजान, बहुदान दियो याचक-जनान ||

छप्पन कुमारिका तबै आन, तुम मात-सेव बहुभक्ति ठान |
छ: मास अगाऊ गर्भ आय, धनपति सुवरन-नगरी रचाय ||

तुम तात महल आंगन मँझार, तिहुँकाल रतनधारा अपार |
वरषाए षट् नवमास सार, धनि जिन-पुरुषन नयनन निहार ||

जय ‘मल्लिनाथ’ देवन सुदेव, शत-इन्द्र करत तुम चरण-सेव |
तुम जन्मत ही त्रय ज्ञान धार, आनंद भयो तिहुँजग अपार ||

तब ही ले चहुँ विधि देव-संग, सौधर्म इन्द्र आयो उमंग |
सजि गज ले तुम हरि गोद आप, वन पाँडुक शिल ऊपर सुथाप ||

क्षीरोदधि तें बहु देव जाय, भरि जल घट हाथों हाथ लाय |
करि न्हवन वस्त्र-भूषण सजाय, दे मात नृत्य ताँडव कराय ||

पुनि हर्ष धार हृदय अपार, सब निर्जर तब जय-जय उचार |
तिस अवसर आनंद हे जिनेश, हम कहिवे समरथ नहीं लेश ||

जय यादवपति श्री ‘नेमिनाथ’, हम नमत सदा जुगजोरि हाथ |
तुम ब्याह समय पशुअन पुकार, सुनि तुरत छुड़ाये दया धार ||

कर कंकण अरु सिर मोर बंद, सो तोड भये छिन में स्वच्छंद |
तब ही लौकान्तिक-देव आय, वैराग्य वर्द्धनी थुति कराय ||

तत्क्षण शिविका लायो सुरेन्द्र, आरूढ़ भये ता पर जिनेन्द्र |
सो शिविका निजकंधन उठाय, सुर नर खग मिल तपवन ठराय ||

कच लौंच वस्त्र भूषण उतार, भये जती नगन मुद्रा सुधार |
हरि केश लेय रतनन पिटार, सो क्षीर उदधि माहीं पधार ||

जय ‘पारसनाथ’ अनाथ नाथ, सुर-असुर नमत तुम चरण माथ |
जुग-नाग जरत कीनो सुरक्ष, यह बात सकल-जग में प्रत्यक्ष ||

तुम सुरधनु-सम लखि जग असार, तप तपत भये तन ममत छाँड़ |
शठ कमठ कियो उपसर्ग आय, तुम मन-सुमेरु नहिं डगमगाय ||

तुम शुक्लध्यान गहि खड्ग हाथ, अरि च्यारि घातिया करे सुघात |
उपजायो केवलज्ञान भानु, आयो कुबेर हरि वच प्रमाण ||

की समोशरण रचना विचित्र, तहाँ खिरत भई वाणी पवित्र |
मुनि सुर नर खग तिर्यंच आय, सुनि निज निज भाषा बोध पाय ||

जय ‘वर्द्धमान’ अंतिम जिनेश, पायो न अंत तुम गुण गणेश |
तुम च्यारि अघाती कर महान्, लियो मोक्ष स्वयं सुख अचलथान ||

तब ही सुरपति बल अवधि जान,सब देवन युत बहु हर्ष ठान |
सजि निजवाहन आयो सुतीर, जहँ परमौदारिक तुम शरीर ||

निर्वाण महोत्सव कियो भूर, ले मलयागिर चंदन कपूर |
बहुद्रव्य सुगंधित सरस सार, ता में श्री जिनवर वपु पधार ||

निज अगनि कुमारिन मुकुट नाय, तिहँ रतनन शुचि ज्वाला उठाय |
तस सर माँहिं दीनी लगाय, सो भस्म सबन मस्तक चढ़ाय ||

अति हर्ष थकी रचि दीप माल, शुभ रतन मई दश-दिश उजाल |
पुनि गीत-नृत्य बाजे बजाय, गुणगाय-ध्याय सुरपति सिधाय ||

सो थान अबै जग में प्रत्यक्ष, नित होत दीपमाला सुलक्ष |
हे जिन तुम गुण महिमा अपार, वसु सम्यक् ज्ञानादिक सुसार ||

तुम ज्ञान माँहिं तिहुँलोक दर्व, प्रतिबिम्बित हैं चर अचर सर्व |
लहि आतम अनुभव परम ऋद्धि, भये वीतराग जग में प्रसिद्ध ||

ह्वे बालयती तुम सबन एम, अचरज शिव कांता वरी केम |
तुम परम शांति मुद्रा सुधार, किया अष्ट कर्म रिपु को प्रहार ||

हम करत वीनती बार-बार, करजोर स्व-मस्तक धार-धार |
तुम भये भवोदधि पार-पार, मोको सुवेग ही तार-तार ||

अरदास दास ये पूर-पूर, वसु-कर्म-शैल चकचूर-चूर |
दु:ख-सहन दास अब शक्ति नाहिं, गहि चरण-शरण कीजे निवाह ||

(चौपाई)

पाँचों बालयती तीर्थेश, तिनकी यह जयमाल विशेष |
मन वच काय त्रियोग सम्हार, जे गावत पावत भव-पार ||
ॐ ह्रीं श्री पंचबालयति-तीर्थंकरजिनेन्द्रेभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

ब्रह्मचर्य सों नेह धरि, रचियो पूजन ठाठ |
पाँचों बालयतीन का, कीजे नितप्रति पाठ ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

BHAKTAMAR STOTRA MAHIMA / भक्तामर-स्तोत्र महिमा

पं. हीरालाल जैन ‘कौशल’ श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात, भक्ति मन लाई | सब संकट जायँ नशाई || जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे | चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१|| मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था | मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२|| उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था | हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३|| मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे | क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४|| मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था | हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५|| सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके | कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६|| राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था | मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७|| जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है | जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...