Skip to main content

प्रभु भक्ति शतक -आर्यिकारत्न श्री पूर्णमति माताजी || Prabhu Bhakti Shatak - Aaryika Purnamati Mataji

परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी महाराज की शिष्या परमपूज्य आर्यिकारत्न श्री पूर्णमति माताजी


नाथ आपकी मूर्ति लख जब, मूर्तिमान को लखता हूँ।
ऐसा लगता समवसरण में, प्रभु समीप ही रहता हूँ ॥
सर्व जगत से न्यारा भगवन्, द्वार आपका लगता है ।
अहो - अहो आत्मा से निःसृत, परमानंद बरसता है ॥1॥

नंत काल उपरांत आपने, शाश्वत सिद्ध देश पाया ।
उसी देश का पता जानने, आप शरण में हूँ आया ॥
ऐसा लगा कि शिवपथ की रुचि, मुझमें प्रथम बार जागी ।
राग भाव का राग छोड़ मैं, बन जाऊँ चिर वैरागी ॥ 2 ॥

अनंत अक्षय आत्म निधि पर, प्रभु आपकी नज़र पड़ी ।
धन्य-धन्य वह अद्भुत क्षण जब, स्वानुभूति की लहर उठी ॥
फिर अनुपम आत्मिक धन पाने, ध्यान कुदाली को पाया।
एक अकेले ज्ञान कक्ष में, खोद-खोद निज सुख पाया ॥3 ॥

मेरी नंत गल्तियों को प्रभु, करुणा करके क्षम्य किया ।
पल-पल दोष किये हैं मैंने, फिर भी आकर दर्श दिया ॥
शक्ति मुझे दो ऐसी भगवन्, क्षमा सभी को कर पाऊँ ।
सब जीवों में समानता से, मैत्री भाव से भर जाऊँ ॥ 4 ॥

इस कलयुग में आप मिल गये, और श्रेष्ठ धन क्या होगा ।
इन नयनों को आप दिख गये, और दर्श अब क्या होगा ||
नहीं कामना दृश्य जगत की, मात्र आप दिखते रहना ।
स्मृति दिलाकर मुझको मेरी, झलक दिखाते भी रहना ॥ 5 ॥

जग की सब देहात्मा से जिनमूरत बिल्कुल न्यारी है।
रागद्वेष से भरा जगत प्रभु वीतराग हितकारी हैं ॥
आप मिल गये पुण्य योग से, और अधिक अब क्या पाना ।
जिन भगवन् से निज दर्शन पा, अपने में ही खो जाना ॥ 6 ॥

प्रभो! आपके नंत गुणों की, थाह नहीं मैं पा सकता ।
निकट आपके आना चाहूँ, किंतु नहीं मैं आ सकता ॥
कदमों में नहीं शक्ति प्रभु जी, बालक पर करुणा कर दो।
दर्श करूँ मैं अभी यहीं से, नयनों में ज्योति भर दो ॥ 7 ॥

पर संबंध छोड़कर स्वामी, द्वार आपके आया हूँ ।
शांत भाव में ही प्रभु मिलते, ऋषियों से सुन आया हूँ ॥
भगवन् होने की आशा ले, चरण-शरण में हूँ आया ।
शब्दों से मैं बता न सकता, प्रभु तुमसे क्या- क्या पाया ॥ 8 ॥

नाथ आपने निज दृष्टि को, निज दृष्टा में लगा लिया ।
पर में ले जाने वाले सब, कर्म शत्रु को भगा दिया  ॥
स्वतंत्रता का ध्वज फहराकर, चिन्मय देश विचरते हो ।
निजाधीन अव्यय सुख पाकर, नित आनंदित रहते हो ॥ 9 ॥

आत्मिक गुण गाऊँ प्रभुवर मैं, ऐसी मुझको युक्ति दो ।
भक्ति - रस चख पाऊँ ऐसी, इस रसना में शक्ति दो ॥
बाह्य दृष्टि होने से अब तक, दैहिक गुण गाये स्वामी ।
मुझे ले चलो आत्म देश में, अर्ज करूँ अंतर्यामी ॥ 10 ॥

बाह्य नयन से दिखते ना हो, श्रद्धा नयनों से दिखते ।
तव गुण स्तुति से भर जाऊँ तो, स्वात्म वेदी पर ही दिखते ॥
तुम्हें देख अब ऐसा लगता, क्या देखूँ नश्वर जग को ।
तन मन जीवन धन सब तेरा, मान लिया सब कुछ तुमको ॥11॥

देह बिना नित ज्ञान कक्ष में, नाथ आप क्या करते हो ।
हो कृतकृत्य तदपि भक्तों के, मोह तिमिर को हरते हो ॥
निज को देख लिया है ऐसे, लोकालोक सहज दिखते ।
सकल ज्ञेय ज्ञायक हो तदपि, निज से निज में ही रमते ॥ 12 ॥

कर संसार भ्रमण जीवों को, मैंने बहुत सताया है ।
किंतु क्षमा सिंधु तुमने ही, सबसे क्षमा कराया है ॥
नाथ आपकी विराटता का, दर्शन कर आनंद लिया ।
निज सम सब जीवों को माना, मैंने सबको क्षमा किया ॥ 13 ॥

जब-जब देखूँ ऐसा लगता, प्रथम बार ही देखा है।
समीप पल-पल रहना चाहूँ, किन्तु कर्म की रेखा है ॥
कर्मों की दीवार तोड़कर, शीघ्र पास में आ जाऊँ ।
पास आपके आ जाऊँ तो, निज को भी मैं पा जाऊँ ॥ 14 ॥

जब मैं प्रभु सम्मुख आऊँ तब, सब विकल्प शांति पाते ।
निर्विकल्प दशा पाने के, भाव हृदय में भर जाते ॥
एकमात्र सान्निध्य आपका, अपूर्व आनंद देता है ।
जो सुत माँ की गोद प्राप्त कर, आत्म शांति को पाता है ॥ 15 ॥

प्रभु-कृपा पाकर ही मुझको, आत्म तत्त्व से रुचि हुई ।
आतम-दृष्टा प्रभु को लखकर, दृष्टि मेरी शुचि हुई ॥
जग के सारे जड़ वैभव से, किञ्चित् तृप्ति नहीं मिली।
जन्म अंध को नयन मिले त्यों, हरष - हरष मन कली खिली ॥16॥

पैर स्खलित होते हैं मेरे, सँभल नहीं मैं पाता हूँ ।
दृष्टि खींचकर लाता निज में, फिर पर में खो जाता हूँ ॥
आओ नाथ सँभालो मुझको, पर परणति में जाने से ।
नहीं ध्यान रखती क्या माता, सुत को नीचे गिरने से ॥17॥

जब मैं पर से दृष्टि हटाकर, आप गुणों में खो जाता ।
अपना ही अस्तित्व भुलाकर, मात्र आपका हो जाता ॥
इतने अच्छे लगते भगवन्, शब्द नहीं कुछ मेरे पास ।
मात्र यही अनुभूति मुझको, रहते पल-पल मेरे पास ॥ 18 ॥

मानव कृति जगत में जितनी, राग-द्वेष से भरी पड़ी ।
कर्मों की पर्तों में लिपटी, खरा रूप ना दिखे कहीं ॥
वीतराग को जबसे निरखा, नज़र कहीं ना टिकती है।
आँख मींच लूँ तो भी भगवन्, छवि आपकी दिखती है ॥ 19 ॥

ज्ञान कक्ष मेरा यह भगवन्, नंत काल से मैला है।
मोह ज़हर से नाथ अभी तक, मम मन हुआ विषैला है ॥
कर्म वर्गणाओं को भी यह, कर्म रूप कर देता है।
कर्म बाँध अज्ञान दशा में, उदय समय पर रोता है ॥20 ॥

मैं ही मेरा हो ना पाया, कौन यहाँ मेरा होगा ।
मात्र आपको अपना माना, तुम्हें ध्यान रखना होगा ॥
मैंने अपना सारा जीवन, प्रभुवर तुमको सौंप दिया।
हे जिन ! निज का बोध करा दो, अनगिन को भी बोध दिया ॥ 21 ॥

नाथ आपकी दिव्य छवि जब, मेरे हृदय उतरती है।
नंत भवों के कालुष को वह, क्षणभर में ही हरती है ॥
इक चिनगारी सारे वन को, ज्यों पल भर में दहती है।
त्यों अविरल ही स्मृति आपकी, पाप कर्म क्षय करती है ॥ 22 ॥
 
अहं भाव जो पड़ा हृदय में, वही मुझे दुख देता था ।
नाथ आपके समीप मुझको, कभी न आने देता था ॥
अर्हत् जिन तुमको लखकर अब, अर्ह भाव उतर आया ।
शाश्वत सुख ही पाना चाहूँ, और नहीं कुछ मन भाया ॥ 23 ॥

अनंत करुणा बरसाई प्रभु, बस इतना ही मैं जानूँ ।
जग में रह जग को ना जानूँ, नाथ आपको पहचानूँ ॥
मम चेतन में तुम्हीं बसे हो, अब मुझको ना भय होता ।
बालक माँ की पकड़ अंगुली, निर्भय होकर चल लेता ॥24 ॥

मेरे हृदय कमल पर कैसी, आई दिव्य सुगंधी है।
दिव्यकमल की परम महक यह, नाथ आपके गुण की है ॥
दूर रहे रवि पर सरवर के, कमलों को विकसित करता ।
भक्त परम श्रद्धा से भगवन्, अति निकटता पा जाता ॥ 25 ॥

नंत गुणों की महक प्राप्त कर, प्रभु जीवन आह्लादित है ।
कब होंगे मम प्रगट नंत गुण, वह शुभ घड़ी प्रतीक्षित है ॥
ऐसी दिव्य सुगंध घ्राण बिन, चेतनता में आती है।
असंख्यात आतम प्रदेश में, बगिया- सी महकाती है ॥ 26 ॥

जब-जब भगवन् मैंने अपने, अहं भाव को सुला दिया ।
तब-तब अपने समीप में ही, तुमने मुझको बुला लिया ॥
नंत विराट रूप लख मुझको, अति अचरज ही होता है।
अब तक समय गँवाया मैंने, सोच यही मन रोता है ॥27॥

भगवन् मैं आह्वान करूँ, मम ज्ञान कक्ष में आ जाओ।
कर्म लुटेरे लूट रहे हैं, मुझको निज धन दिलवाओ ॥
आप धर्म नेता हो स्वामी शक्तिशाली मैं हूँ कमर ।
अतः पुकार रहा हूँ भगवन्, नज़र करो इक मेरी ओर ॥28॥

मान लिया जब तुमको अपना, जग से क्या लेना देना ।
जगत रूठ जाए तो भी प्रभु, इससे मेरा क्या होना ॥
मैं हूँ सिर्फ आपके जैसा, यही आपने बतलाया ।
कितना अपनापन प्रभु मुझसे, आज समझ में है आया ॥ 29 ॥

नाथ आपकी कृपा न हो तो, कैसे तव गुण गा पाता ।
मुझ पर नज़र न होती तो क्या, पास आपके आ पाता ॥
जग के अशुभ विकल्प छुड़ाकर, मुझे पास ले आते हो ।
कितने अपने लगते हो तब, मेरे हृदय समाते हो ॥30॥

मन के सारे बाह्य द्वार को, प्रभु सम्मुख आ बंद किया।
नाथ आपने मम चेतन में, समकित मणि को दिखा दिया ॥
सूरज से भी अधिक तेजमय, इसमें निज आतम दिखता ।
जगमगात अनमोल मणि यह, प्रभु कृपा बिन ना मिलता ॥31॥

भावों की भाषा को भगवन्, बिन बोले सुन लेते हो ।
नयन बिना खोले श्रद्धा की, आँखों से दिख जाते हो ॥
क्षेत्र निकटता की भी स्वामी, नहीं जरूरत होती है।
श्रद्धा पूरित चेतन में प्रभु, उपस्थिति तब लगती है ॥32॥

प्रभु आपकी सन्निधि पाकर, मन कहता है यहीं रहूँ ।
प्रभु कृपा का सदुपयोग यह, क्रोध मान छल नहीं करूँ ॥
मौलिक वस्तु को यदि माता, सौंपे बालक के कर में ।
वस्तु गँवा दे बालक तो माँ, निज से दूर करे पल में ॥33॥

नाथ आपके स्मरण मात्र से, आतम पुलकित होता है।
सब विषाद मिट जाते पल में, मन निर्मल हो जाता है ॥
बसे रहो प्रभु यूँ ही हर पल, सुख आनंद बरसता है ।
हुई चेतना मौन मात्र अब, अनुभव ही गहराता है ॥34॥

पूर्व अनंत भवों में मैंने, नंत जीव को तड़पाया ।
उन सबसे मैं क्षमा माँग लूँ, भाव हृदय में भर आया ॥
उन जीवों के निकट पहुँच कर, कैसे क्षमा कराऊँ मैं ।
आप सर्व व्यापी होने से, शरण आपकी आऊँ मैं ॥35॥

मैं बिल्कुल ही शून्य पात्र था, आप कृपा से पूर्ण भरा ।
शुष्क हो रहा था यह पौधा, हुआ आपसे हरा भरा ॥
मौलिक श्रद्धा धन जो पाया, प्रभु आपके कारण ही ।
अन्य आपसा दाता जग में, मुझको दिखता कहीं नहीं ॥36॥

इस भव वन में कर्म सिंह से, हूँ भयभीत बुलालो पास।
या फिर मेरे आतम में प्रभु, एक बार ही कर लो वास ॥
प्रभु आगमन की आहट से, मैं निर्भय हो जाऊँगा ।
स्वतंत्र होकर श्रद्धा पथ से, चलकर निजगृह आऊँगा ॥37॥

भववर्द्धक जग वैभव सारे, मुझे अनंतों बार मिले ।
किंतु ज्ञान बगिया में भगवन्, समकित सुमनस् नहीं खिले ॥
बागवान बनकर प्रभु आओ, अपनी वाणी से सींचो ।
सही न जाती विरह वेदना, अब निज ओर मुझे खींचो ॥38॥

जग के प्राणी जो नहीं सुनते, वही आप सुन लेते हो ।
शब्दों की भी नहीं जरूरत, बिना कहे दे देते हो ॥
यही आपकी अनंत करुणा, छोड़ प्रभु अब जाऊँ कहाँ ।
जहाँ पिता परमेश्वर मेरे, बालक भी अब रहे वहाँ ॥39॥

नाथ आपको हृदय बसाकर, फिर क्यों मैं बाहर आता ।
बुला रहा मुझको कोई यह, बार-बार भ्रम हो जाता ॥
इसी तरह प्रभु प्रमाद वश मैं, अविनय बार-बार करता ।
क्षमा कीजिए भगवन् मुझको, भावों से भरकर कहता ॥ 40 ॥

निकट आपके जो पल बीते, वो ही सफल हुए स्वामी ।
अपूर्व स्वर्णिम अवसर थे वो, पुलकित हुआ हृदय स्वामी ॥
हर -पल वह रस पीना चाहूँ, और नहीं कुछ मन भाता ।
बार-बार मन विकल्प तजकर, पास आपके आ जाता ॥ 41 ॥

कितना अच्छा लगता भगवन्! मुझको तव मूरत लखना ।
जग में एक अकेला होकर, मात्र आपका हो जाना ॥
भक्ति कूप को मेरे भगवन्, और अधिक अब गहराओ ।
श्रद्धा जल से भरे कूप को, आकर पावन कर जाओ ॥ 42 ॥

नाथ आपके गुणोद्यान में, विचरण करने जब आया ।
कषाय रिपु तब शीघ्र निकट आ, चित्त पकड़ बाहर लाया ॥
चउ कषाय को मीत बनाकर, नाथ बहुत पछताता हूँ ।
कुछ उपाय बतला दो भगवन्, कषाय से दुख पाता हूँ ॥ 43 ॥

भक्ति की मैं रीत न जानूँ, नाथ आपही सिखला दो ।
अपने शाश्वत अनंत गुण में, प्रवेश मुझको करवा दो ॥
एक-एक गुण का भावों से, गहन गहनतम चिंतन हो ।
इस जीवन का सदुपयोग हो, भगवन् इतना संबल दो ॥44 ॥

महा भयानक भवअटवी में, मुझे न अब भय लगता है।
क्योंकि बसे हो आप हृदय में, अतः निडर मन रहता है ॥
कर्मों की जो घनी वनी है, उससे अब क्या घबराना ।
कर्म अचेतन मैं हूँ चेतन, स्वात्म शक्ति को पहचाना ॥ 45 ॥

पुण्य मुझे जो भटका दे वह, पुण्य कभी ना मैं चाहूँ ।
मुक्ति तक जो पहुँचा दे वह, पुण्य सातिशय अपनाऊँ ॥
पुण्य भाव में अहं भाव से, मुझे न किञ्चित् सौख्य मिला ।
जबसे विरत हुआ मैं इससे, नाथ आपने दर्श दिया ॥ 46 ॥

मेरी लघु श्रद्धा वेदी पर, आप विराजे जब स्वामी ।
हर्षित हो तब स्वात्म गुणों का, आह्वानन करता स्वामी ॥
स्वानुभूति के गीत गूँजते, बजी विरागी शहनाई ।
पल-पल मेरे हृदय विराजो, हे मेरे प्रिय जिनराई ॥47 ॥

शाश्वत सुखानुभूति की प्रभो, मुझमें प्यास जगा देना ।
यही अरज है जहाँ आप हो, मुझको शीघ्र बुला लेना ॥
जिस पथ से प्रभु आप गये हो, वह पथ मुझको दर्शा दो ।
चलने की श्रद्धा औ शक्ति, नाथ आप ही प्रगटा दो ॥ 48 ॥

देहादिक के कार्य किये पर, लगता कुछ भी किया नहीं।
प्रभु-भक्ति अर्चन करने से, लगा कार्य कुछ किया सही ॥
स्वात्म ध्यान पलभर भी हो तो, लक्ष्य दिखाई देता है।
हे कारुण्य-धाम जिनवर तव करुणा से यह होता है । 49 ॥

गहन प्रेम का प्रतीक है यह, आप अकेले में मिलते ।
किञ्चित् भी यदि विकल्प हो तो, प्रभुवर आप नहीं दिखते ॥
एक अकेला हो जाऊँ बस, यही भावना है स्वामी ।
देह रहित हो विदेह पद को, पा जाऊँ अंतर्यामी ॥50॥

निज स्वरूप रत रहने वाले, मुझको पर से विरत करो ।
निज गुण की महिमा बतलाकर, मुझको निज में निरत करो ॥
सारे जग में एकमात्र प्रभु, आप परम हितकारी हो ।
मुझे भरोसा पूर्ण आप पर, दयासिंधु उपकारी हो ॥51॥

पल-पल मुझको देख रहे पर, नहीं आपको देख सका ।
तीन लोक में घूम लिया पर ढूँढ़ ढूँढ़कर बहुत थका ॥
दिव्यध्वनि से पता चला कि, तुम मुझमें ही रहते हो ।
दिया तले अंधियारा है यह, मम प्रभु मुझमें बसते हो ॥ 52 ॥

ज्ञान गंगन में आप चन्द्रमा, मैं धरती की धूल प्रभो ।
क्षमा सिंधु हो आप प्रभु मैं, पल-पल करता भूल विभो ॥
कहाँ आप और कहाँ प्रभु मैं, फिर भी मुझको अपनाया ।
आप वीतरागी मैं रागी, फिर भी तव शरणा पाया ॥ 53॥

तेरा दिया हुआ प्रभु सब कुछ, तू ही मेरा दाता है।
शरण आपकी पाकर मैंने, पायी आतम साता है ॥
किसी अन्य दर पर जाने की, नहीं भावना शेष रही ।
वीतराग की छाँव मिल गई, कोई कामना रही नहीं ॥ 54॥

प्रिय मीत से अन्तर्मन की, सारी बातें कह सकते ।
किंतु आपसे निजात्म की भी अद्भुत बातें कह सकते ॥
इसीलिए तो श्रद्धा पूर्वक, प्रभुवर आप निकट आता ।
नाथ आपकी समीपता से, पाता हूँ अनुपम साता ॥ 55 ॥

बीहड़ भवकानन में भगवन्! एक आपकी ज्योति है।
सारा जग जल बिंदु सम प्रभु अपूर्व अद्भुत मोती हैं ॥
निज शुद्धातम प्रगटाने की, मात्र हृदय में आश जगी ।
स्वात्म ज्ञान सरवर के जल को पीने की बस प्यास लगी ॥ 56 ॥

गिरि कन्दरा और गुफा में, ढूँढ़ा भगवन् नहीं मिले।
जब-जब बैठा आँख मूँदकर, निज में ही प्रभु आप मिले ॥
परम सुरक्षित स्थान आपका, पर का जहाँ प्रवेश नहीं ।
नाथ आपके सौख्य बराबर, जग में सुख लवलेश नहीं ॥ 57 ॥

निकट बैठने योग्य बनाया, यह क्या प्रभु कृपा कम है।
बैठ न पाया सिद्धालय में, अब तक यह मुझको गम है॥
दिव्यध्वनि से नाथ आपने, नंत-नंत उपकार किया ।
फिर भी प्रभु मैं रहा अभागा, मोहवशी भव भ्रमण किया ॥ 58 ॥

विरागता अनुभूत हुई जो, यही भक्ति का फल मानूँ ।
राग - द्वेष में बीत गये क्षण, उनको निष्फल ही जानूँ ॥
नाथ आपके गुणवादन में, जीवन का हर पल बीते ।
अंत समय में नयन बंद हो, भक्ति रस पीते-पीते ॥ 59 ॥

स्वार्थी जग से मन की बातें, करके अब तक पछताया ।
क्योंकि मेरे दुख संकट में, कोई काम नहीं आया ॥
यदपि आप कुछ नहीं बोलते, फिर भी सब कुछ कह देते।
सुनते हुए न दिखते हो पर, बिना कहे ही सुन लेते ॥ 60 ॥

मन वच तन औ निज चेतन में, नाथ आप ही आप बसे ।
फिर भी प्रभु प्रत्यक्ष दर्श को, मेरे दो नयना तरसे ॥
देह रहित कैसे होंगे प्रभु, बार-बार मन पूछ रहा ।
वीतराग इक इक गुण की अब, गहराई में डूब रहा ॥ 61॥

जो अनमोल निधि दी उससे, उऋण कैसे होऊँ मैं ।
एकमात्र ही उपाय है बस, तुम जैसा बन जाऊँ मैं॥
तभी सर्व ऋण चुक पायेगा, यही समझ में आता है।
करूँ रात-दिन बात आपकी, यही हृदय को भाता है ॥62 ॥

नाथ आप 'पर' कहलाते हो, फिर भी परम कहाते हो ।
आप अन्य होकर भी भगवन्, अनन्य जैसे लगते हो ॥
कहे भले जगवासी अपना, पर सब स्वारथ सपना है।
दिव्यध्वनि में कहा आपने, केवल आतम अपना है ॥ 63 ॥

जगत जनों को देखा जाना, फिर भी मेरे नहीं हुए ।
अब तक ना देखा प्रभु तुमको, फिर भी मेरे मीत हुए ॥
कितना निर्मल स्वभाव भगवन्,भव्यों का मन हरता है ।
प्रेम दया करुणा का झरना, नाथ आपसे झरता है ॥ 64 ॥

आप परम मैं पामर भगवन्, मैं हूँ पतित आप पावन ।
मैं हूँ पतझड़ बारह मास बरसने वाले तुम सावन ॥
अपनी दिव्यशक्ति को भगवन्, मेघ धार बन बरसा दो ।
नंत काल से मैला बालक, करुणाकर प्रभु नहला दो ॥65 ॥

जब-जब भक्ति द्वार से भगवन्, आप शरण में आता हूँ।
मानगलित हो जाता तत्क्षण, लघुता को पा जाता हूँ ॥
किंतु जब-जब बुद्धि द्वार से, अहं भाव भरकर आया ।
निज दर्शन की बात दूर है, जिन दर्शन ना कर पाया ॥66 ॥

हृदयांगन को स्वच्छ कर दिया, नाथ शीघ्र अब आ जाओ ।
पाप धूल कहीं जम ना जाए, आ जाओ प्रभु आ जाओ ॥
पञ्चेन्द्रिय मन द्वार खुले हैं, अतः नाथ घबराता हूँ ।
रहे आपके योग्य हृदय बस, यही भावना भाता हूँ ॥ 67 ॥

नाथ आपकी पावन मूरत, जबसे मेरे नयन बसी ।
सच कहता हूँ तबसे भगवन्, अन्य दरश की चाह नशी ॥
दिव्य तेजमय रूप आपका, समा न पाया अपने में ।
इसीलिए तो नयन बंद कर, दरश करूँ प्रभु सपने में ॥68 ॥

नहीं माँगता नाथ आपसे, मेरे दुख का क्षय कर दो।
दुःख सह सकूँ शांत भाव से, मुझमें वो शक्ति भर दो ॥
नहीं कामना इन्द्रिय सुख से, मेरी झोली भर जाए ।
निजानुभव करके मम आतम, भवसागर से तर जाए ॥ 69 ॥

पास नहीं वह आँखें मेरे, जिससे तुमको देख सकूँ ।
वाणी पास न मेरे जिससे, व्यथा आप से बोल सकूँ ॥
जान सकूँ हे नाथ आपको, ज्ञान नहीं वो मेरे पास ।
श्रद्धा की दे सकूँ निशानी, वस्तु नहीं कुछ मेरे पास ॥ 70 ॥

तव करुणा के आगे सारे, जग का वैभव तुच्छ रहा।
जो पल बीता तव चरणों में, पल-पल वह अनमोल रहा ॥
मन यह सार्थक हुआ नाथ अब, तव गुण का चिंतन करके ।
सफल हुए यह नयन आज प्रभु, भक्ति के अश्रु जल से ॥ 71 ॥

जगत जनों की अनुरक्ति से, हुआ जगत का ही वर्धन ।
जड़ पदार्थ से राग किया तो हुआ कर्म का ही बंधन ॥
जब संबंध किया प्रभु तुमसे, निज प्रभुता का भान हुआ ।
व्यर्थ गँवाया काल अभी तक, हे जिनवर यह ज्ञान हुआ ॥ 72 ॥

विरह वेदना सही न जाती, नाथ समीप बुलाओ ना।
या फिर अपने भक्त हृदय में, आप स्वयं आ जाओ ना ॥
नाथ आपके चरण-कमल इस, भक्त हृदय में बस जायें ।
या फिर मेरा हृदय कमल यह, तव चरणों में रह जाये ॥73 ॥

नाथ दूर हटते ही तुमसे, यह दुष्कर्म सताते हैं ।
निज शुद्धातम गृह से बाहर ले जाकर तड़पाते हैं ॥
नोकर्मों को बुला - बुलाकर, दुख देते हैं मुझे अपार ।
फिर भी मैं इनके धोखे में आ जाता हूँ बारंबार ॥74 ॥

सर्व विकार अन्य हैं मुझसे, ऐसा तुमने ज्ञान दिया ।
नाथ आपके वचनामृत सुन, अध्यातम रसपान किया ॥
फिर भी विभाव परिणतियों से, मेरा मन भयभीत रहा।
निर्विकल्प निज स्वभाव में प्रभु, आतम रहना चाह रहा ॥ 75 ॥

मैं अज्ञानी अबोध बालक, कर्म मैल से गंदा हूँ ।
मेरे पास ज्ञान चक्षु हैं, फिर भी प्रभु मैं अंधा हूँ ॥
क्योंकि निज का आतम मुझको, नहीं दिखाई देता है।
इसीलिए बालक प्रभु तेरा, तेरे लिए तरसता है ॥76॥

क्या निज पिता पुत्र को अपना, वैभव नहीं दिखाता है।
अपने सुत को निजी वंश की, सारी रीत सिखाता है ॥
मैं हूँ आप वंश का भगवन्, दर्शन दो निज वैभव का ।
पूज्य पिता सम प्रभु कृपा से, मिट जाए दुख भव-भव का ॥77॥

जब बालक रोता है तब माँ, आकर उसे उठा लेती ।
सुत का रोग जानकर माता, औषध उसे पिला देती ॥
वीतराग प्रभु जननी अपने, सुत को चरण शरण लो ना ।
अनादि से रोते बालक को, जिनश्रुत सुधा पिला दो ना ॥ 78 ॥

नाथ आपके अनंत गुण की, जब-जब महिमा आती है।
सच कहता हूँ पर की चर्चा, किञ्चित् नहीं सुहाती है ॥
नाथ आपकी परम कृपा से, आज यहाँ तक आ पाया।
और तनिक हो जाए कृपा तो, पाऊँ ज्ञान परम काया ॥79 ॥

बड़ी-बड़ी चट्टान कर्म की, प्रभु दर्शन से रोक रही ।
तूफां औ पुरजोर आँधियाँ, स्वभाव जल को सोख रहीं ॥
विकार से पूरित दरिया में, नाथ बचाओ डूब रहा ।
दो हस्तावलम्ब अब अपना, देखो भक्त पुकार रहा ॥80 ॥

आज्ञाकारी पुत्र पिता से, मनवांछित वस्तु पाता ।
परम पितामह भगवन् तुमसे, सब कुछ मुझको मिल जाता ॥
चाह किए बिन कल्पतरु सम, फल देते प्रभु परम उदार ।
परम कृपालु नाथ आपको, अतः नमूँ मैं बारंबार ॥81 ॥

अनंत गुणमणि का प्रकाश मुझ चिदातमा में भरा हुआ ।
इसकी सम्यक् ज्योति में ही, नाथ आपका दरश हुआ ॥
इन गुणद्युति में इतनी शक्ति, लोकालोक निहार सके ।
इस शक्ति को प्रगटाया प्रभु, मुझमें भी शक्ति प्रगटे ॥ 82 ॥

निर्वाछक भावों से भगवन्, भक्ति आपकी करता हूँ ।
किंतु आपसे जुदा करे उन, कर्म फलों से डरता हूँ ॥
मुझसे सब कुछ छिन जाए पर, भक्ति आपकी बनी रहे ।
इतनी कृपा रहे प्रभु मुझ पर, श्रद्धा तुम पर घनी रहे ॥ 83 ॥

हे भगवन्! मैं अहो भाव से, जितना - जितना भरता हूँ ।
ऐसा लगता नाथ आपके, अति निकट ही रहता हूँ ॥
मेरी श्रद्धा की डोरी को, कोई काट नहीं सकता ।
है विश्वास अटल प्रभु के बिन, कोई न मेरा हो सकता ॥ 84 ॥

जिनवर भक्ति से अंतस् के, नंत दीप जल उठते हैं।
तव गुण चर्चा से हे भगवन्, मौन मुखर हो जाते हैं॥
तेरे दर्शन से आतम के प्रदेश सुमनों सम खिलते ।
आप मिलन से ऐसा लगता, निज परमातम से मिलते ॥ 85 ॥

नाथ आप हो विराट कैसे, मेरे हृदय समाओगे ।
निर्विकल्प प्रभु मैं विकल्प युत, मम गृह कैसे आओगे ॥
यही सोचकर चिंतित था पर, नाथ आज निश्चित हुआ ।
श्रद्धा के लघु दीपक में जब, अपूर्व दीपक समा गया ॥ 86 ॥

मात्र आप सम हो जाने की, इस आतम में प्यास जगी ।
प्रभु निकटता पाकर मुझको, अर्द्ध निशा भी दिवस लगी ॥
नहीं चाह पर पदार्थ की अब, आप आपमय हो जाऊँ ।
विभावमय परदेश छोड़कर, चिन्मय देश पहुँच जाऊँ ॥ 87 ॥

नाथ आपकी भक्ति से मम, हृदय कली चट-चट खिलती ।
पवित्र अद्भुत ऊर्जा पाकर, खोयी आत्म निधि मिलती ॥
चित्त शांत होता तब अद्भुत, नाद सुनाई देता है।
उस पल में प्रभु आप और मैं, और न कोई होता है ॥ 88 ॥

चिन्मय गुण की शुद्ध गुफा में, हे भगवन् तुम बसते हो ।
चित् शक्ति जहँ जगमग करती, दिव्य ज्योतिमय लसते हो ॥
हे प्रभु तव प्रकाश सन्निधि में, मिथ्यातमस तिरोहित हो ।
तव वचनों की अपूर्व द्युति से, मेरा जीवन बोधित हो ॥ 89 ॥

जब-जब टूटा नाथ आपका, यह वात्सल्य जोड़ देता ।
जब-जब कर्म धूप से झुलसा, कृपा- छाँव तेरी पाता ॥
सचमुच आप अनन्य मीत हो, अद्भुत करुणा बरसाते ।
इसीलिए तो नैन आपको, देख-देखकर हरणाते ॥ 90 ॥

भवसिंधु में डूब रहा तब, था विश्वास बचाओगे ।
जब-जब कर्म तपन से बिखरा, था विश्वास समेटोगे ॥
जब-जब गिरा उठाया तुमने, तुमको पाकर सब पाया ।
जगा दिया जब-जब मैं सोया, माता जैसा सुख पाया ॥91॥

हर पल तेरे आशीषों की, वर्षा में ही जीता हूँ ।
वरना तन कबसे मिट जाता, यही सोचता रहता हूँ ॥
आप कृपा की खुशबू मुझको, हर पल पुलकित करती है।
मन वीणा के तार-तार को, झंकृत करती रहती है ॥ 92 ॥

मेरा शुभ उपयोग नाथ सान्निध्य आपका नित चाहे ।
क्योंकि आपकी सन्निधि मुझको, बतलाती शिव की राहें ॥
इक पल का भी विरह आपका, सहा नहीं अब जाता है।
नाथ तुम्हें बिन देखे मुझको, रहा नहीं अब जाता है ॥ 93 ॥

प्रभो! आप यदि दूर रहे तो, मुझे कौन समझायेगा ।
राह भटक जाऊँ तो मुझको, सत्पथ कौन दिखायेगा ॥
यही सोच पल-पल मैं भगवन्, पास आपके रहता हूँ ।
तव चरणों में रहूँ सुरक्षित, दुष्कर्मों से डरता हूँ ॥ 94 ॥

विकल्प जब आ घेरे मुझको, नाथ आप ना दिख पाते ।
विस्मित- सा रह जाता तब मैं, आँखों से आँसू बहते ॥
नाथ प्रार्थना करके तुमसे, जाल विकल्पों का हटता ।
तभी आपके दर्शन में ही, निज का मैं दर्शन करता ॥ 95 ॥

नाथ आपका गुणानुवादन, किञ्चित् भी ना कर पाता ।
पूर्ण ज्ञानमति प्रभु आप हो, मैं अल्पज्ञ हूँ शरमाता ॥
तव सन्निधि में बैठ सकूँ बस इतनी शक्ति दे देना ।
तव अनंत गुण निरख सकूँ बस इतनी भक्ति दे देना ॥ 96 ॥

जिन अणुओं की देह धरी थी, उनको वापिस लौटा दी ।
मलिन देह को परमौदारिक, शुद्ध बनाकर ही नाशी ॥
अशुद्ध को भी शुद्ध बनाकर, देना यह सज्जन की रीत ।
ऐसे गुणसागर जिनवर को, मानूँ शाश्वत अपना मीत ॥97 ॥

प्रभु शब्द कितना प्यारा है, प्रभु मूरत अति ही प्यारी ।
मूर्तिमान प्रभुवर उपकारी, हृदय बसे अतिशयकारी ॥
प्रभुवर का सुखधाम और निष्काम रूप प्रत्यक्ष लखूँ ।
लक्ष्य यही बस प्रभु आपसा, निजानंद - रस शीघ्र चखूँ ॥ 98 ॥

हे प्रभु! यह जड़ देह सदा, तव भक्ति में संलग्न रहे।
वचन आपके गुण गुंजन में, मन में चिंतन धार बहे ॥
ज्ञान-दर्श दो उपयोगों में, ज्ञेय दृश्य प्रभु आप रहे ।
असंख्य निज आतम प्रदेश पर, शुद्धातम का ध्यान रहे ॥ 99 ॥

तन मन प्राण रहित होकर भी, नाथ आप जी लेते हो ।
निराहार होकर स्वातम रस, एकाकी पी लेते हो ॥
कहलाते हो निराकार पर, कितने अनुपम दिखते हो ।
सिद्धालय वासी होकर भी, मम आतम में बसते हो ॥100 ॥

जबसे रिश्ता जोड़ा तुमसे, जग से रिश्ता टूट गया ।
कृपा आपकी मिली तभी से, शिव का मारग सूझ गया ॥
जब मैं आत्मरूप ही रहता, तब ही आप मुझे मिलते।
अतः अकेला अच्छा लगता, क्योंकि आप मिलते रहते ॥ 101 ॥

ज्ञान रूप दर्पण में मेरे, ज्यों प्रभु छवि उभरती है।
उसी छवि में मुझको मेरी, आतम निधि झलकती है ॥
उस पल ऐसा लगता भगवन् ! अब कुछ पाना शेष नहीं ।
नाथ आप ही पहुँचा देना, मुझको शाश्वत सिद्ध मही ॥ 102 ॥

लिखने का उद्देश्य नहीं कुछ, मात्र स्वयं को लख पाऊँ ।
शाब्दिक भक्ति रहे न केवल, रत्नत्रय रस चख पाऊँ ॥
चाह यही भगवान् बनूँ पर, प्रमाद मुझको घेर रहा ।
अंतर कृपा करो प्रभु ऐसी, पाऊँ शाश्वत शरण महा ॥ 103 ॥

हे भक्ति के स्वर अब मुझको, निज भगवन् से मिलवा दो।
अंतर अनहद नाद सुनाकर, चिन्मय आनंद बरसा दो ॥
स्वानुभूति की लय में प्रभु की, निर्जन वन में ध्वनि सुनूँ।
अपूर्व आत्मानंद प्राप्त कर, केवलि जिन अरहंत बनूँ ॥ 104 ॥

चूलगिरि श्री सिद्धक्षेत्र जहाँ, अद्भुत शांति मुझे मिली।
विशाल जिनबिंबों के दर्शन, कर अंतस् की कली खिली ॥
प्रभुवर को सर्वस्व मानकर, तीन योग से भक्ति की ।
गुरु को अर्पित भक्ति शतक यह, गुरु करे मम "पूर्णमति " ॥105 ॥

॥ इति शुभं भूयात् ॥

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...