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श्री आदिनाथ जी पूजा - Shree aadinaath ji pooja

अडिल्ल परमपूज्य वृषभेष स्वयंभू देवजू |
पिता नाभि मरुदेवि करें सुर सेवजू ||
कनक वरण तन-तुंग धनुष पनशत तनो |
कृपासिंधु इत आइ तिष्ठ मम दुख हनो |1|
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |


हिमवनोद् भव वारि सु धारिके, जजत हौं गुनबोध उचारिके |
परमभाव सुखोदधि दीजिये, जन्ममृत्यु जरा क्षय कीजिये ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

मलय चन्दन दाहनिकन्दनं, घसि उभै कर में करि वन्दनं |
जजत हौं प्रशमाश्रय दीजिये, तपत ताप तृषा छय कीजिये ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

अमल तन्दुल खंडविवर्जितं, सित निशेष महिमामियतर्जितं |
जजत हौं तसु पुंज धरायजी, अखय संपति द्यो जिनरायजी ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

कमल चंपक केतकि लीजिये, मदनभंजन भेंट धरीजिये |
परमशील महा सुखदाय हैं, समरसूल निमूल नशाय हैं ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

सरस मोदनमोदक लीजिये, हरनभूख जिनेश जजीजिये |
सकल आकुल अंतकहेतु हैं, अतुल शांत सुधारस देतु हैं ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधादिरोगविनाशनाय नैवेद्यं नि0स्वाहा |5|

निविड़ मोह महातम छाइयो, स्वपर भेद न मोहि लखाइयो |
हरनकारण दीपक तासके, जजत हौं पद केवल भासके ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| 

अगर चन्दन आदिक लेय के, परम पावन गंध सु खेय के |
अगनिसंग जरें मिस धूम के, सकल कर्म उड़े यह घूम के ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

सुरस पक्व मनोहर पावने, विविध ले फल पूज रचावने |
त्रिजगनाथ कृपा अब कीजिये, हमहिं मोक्ष महाफल दीजिये ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

जलफलादि समस्त मिलायके, जजत हौं पद मंगल गायके |
भगत वत्सल दीन दयालजी, करहु मोहि सुखी लखि हालजी ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
असित दोज आषाढ़ सुहावनो, गरभ मंगल को दिन पावनो |
हरि सची पितुमातहिं सेवही, जजत हैं हम श्री जिनदेव ही ||
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा द्वितीयादिने गर्भमगंलप्राप्ताय श्री वृषभदेवाय अर्घ्य नि0 |1|

असित चैत सु नौमि सुहाइयो, जनम मंगल ता दिन पाइयो |
हरि महागिरिपे जजियो तबै, हम जजें पद पंकज को अबै ||
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने जन्ममगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य नि0 |2|

असित नौमि सु चैत धरे सही, तप विशुद्ध सबै समता गही |
निज सुधारस सों भर लाइके, हम जजें पद अर्घ चढ़ाइके ||
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने दीक्षामगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं नि0 |3|

असित फागुन ग्यारसि सोहनों, परम केवलज्ञान जग्यो भनौं |
हरि समूह जजें तहँ आइके, हम जजें इत मंगल गाइके ||
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं नि0 |4|

असित चौदसि माघ विराजई, परम मोक्ष सुमंगल साजई |
हरि समूह जजें कैलाशजी, हम जजें अति धार हुलास जी ||
ॐ ह्रीं माघकृष्णा चतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं नि0 |5|


जयमाला
जय जय जिनचन्दा आदि जिनन्दा, हनि भवफन्दा कन्दा जू |
वासव शतवंदा धरि आनन्दा, ज्ञान अमंदा नन्दा जू |1|
त्रिलोक हितंकर पूरन पर्म, प्रजापति विष्णु चिदातम धर्म |
जतीसुर ब्रह्मविदाबंर बुद्ध, वृषंक अशंक क्रियाम्बुधि शुद्ध |2|
जबै गर्भागम मंगल जान, तबै हरि हर्ष हिये अति आन |
पिता जजनी पद सेव करेय, अनेक प्रकार उमंग भरेय |3|
जन्मे जब ही तब ही हरि आय, गिरेन्द्रविषै किय न्हौन सुजाय |
नियोग समस्त किये तित सार, सु लाय प्रभू पुनि राज अगार |4|
पिता कर सौंपि कियो तित नाट, अमंद अनंद समेत विराट |
सुथान पयान कियो फिर इंद, इहां सुर सेव करें जिनचन्द |5|
कियौ चिरकाल सुखाश्रित राज, प्रजा सब आनँद को तित साज |
सुलिप्त सुभोगिनि में लखि जोग, कियो हरि ने यह उत्तम योग |6|
निलंजन नाच रच्यो तुम पास, नवों रस पूरित भाव विलास |
बजै मिरदंग दृम दृम जोर, चले पग झारि झनांझन जोर |7|
घना घन घंट करे धुनि मिष्ट, बजै मुहचंग सुरान्वित पुष्ट |
खड़ी छिनपास छिनहि आकाश, लघु छिन दीरघ आदि विलास |8|
ततच्छन ताहि विलै अविलोय, भये भवतैं भवभीत बहोय |
सुभावत भावन बारह भाय, तहां दिव ब्रह्म रिषीश्वर आय |9|
प्रबोध प्रभू सु गये निज धाम, तबे हरि आय रची शिवकाम |
कियो कचलौंच प्रयाग अरण्य, चतुर्थम ज्ञान लह्यो जग धन्य |10|
धर् यो तब योग छमास प्रमान, दियो श्रेयांस तिन्हें इखु दान |
भयो जब केवलज्ञान जिनेंद्र, समोसृत ठाठ रच्यो सु धनेंद्र |11|
तहां वृष तत्व प्रकाशि अशेष, कियो फिर निर्भय थान प्रवेश |
अनन्त गुनातम श्री सुखराश, तुम्हें नित भव्य नमें शिव आश |12|
यह अरज हमारी सुन त्रिपुरारी, जन्म जरा मृतु दूर करो |
शिवसंपति दीजे ढील न कीजे, निज लख लीजे कृपा धरो |13|
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||


जो ऋषभेश्वर पूजे, मनवचतन भाव शुद्ध कर प्रानी |
सो पावै निश्चै सों, भुक्ति औ मुक्ति सार सुख थानी |14|
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)

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सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद

समाधी मरण | Samadhi Maran Path

गौतम स्वामी वन्दों नामी मरण समाधि भला है। मैं कब पाऊँ निशदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है॥ देव-धर्म-गुरु प्रीति महादृढ़ सप्त व्यसन नहिं जाने। त्यागे बाइस अभक्ष्य संयमी बारह व्रत नित ठाने॥१॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधे। बनिज करै परद्रव्य हरे नहिं छहों करम इमि साधे॥ पूजा शा गुरुन की सेवा संयम तप चहु दानी। पर-उपकारी अल्प-अहारी सामायिक-विधि ज्ञानी॥२॥ जाप जपै तिहूँ योग धरै दृढ़ तन की ममता टारै। अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचारै॥ आग लगै अरु नाव डुबै जब धर्म विघन है आवे। चार प्रकार अहार त्याग के मंत्र सु मन में ध्यावै॥३॥ रोग असाध्य जरा बहु देखै कारण और निहारे। बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवन को डारै॥ जो न बनै तो घर में रहकरि सब सों होय निराला। मात-पिता सुत-तिय को सोंपे निजपरिग्रह अहि काला ४ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुखिया धन देई। क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मन की शल्य हनेई॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरै मैं बहु कीन बुराई। तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सब बगसो भाई॥५॥ धन धरती जो मुख सों मांगै सबको दे सन्तोषै। छहों काय के प्र

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