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श्री महावीर-जिन पूजा | Shree Mahavira Jin Puja

| | श्री महावीर-जिन पूजा | |
(मत्त-गयंद छन्द)
श्रीमत वीर हरें भव-पीर, भरें सुख-सीर अनाकुलताई  |
केहरि-अंक अरीकर-दंक, नयें हरि-पंकति-मौलि सुहाई  ||
मैं तुमको इत थापत हूं प्रभु! भक्ति-समेत हिये हरषाई  |
हे करुणा-धन-धारक देव! इहाँ अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई  ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव: भव: वषट्! (इति सन्निधिकरणम्)

क्षीरोदधि-सम शुचि नीर, कंचन-भृंग भरूं |
प्रभु वेग हरो भवपीर, यातैं धार करूं ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।

मलयागिर चंदनसार, केसर-संग घसूं |
प्रभु भव-आताप निवार, पूजत हिय हुलसूं ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।

तंदुल सित शशिसम शुद्ध, लीनों थार भरी |
तसु पुंज धरौं अविरुद्ध, पावों शिवनगरी ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।

सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे |
सो मनमथ-भंजन हेत, पूजूँ पद थारे ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वन्सनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।

रस रज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी |
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

तम खंडित मंडित नेह, दीपक जोवत हूँ |
तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोवत हूँ ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।

हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा |
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।

रितुफल कल-वर्जित लाय, कंचनथार भरूं |
शिवफलहित हे जिनराय, तुम ढिंग भेंट धरूं ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।

जल-फल वसु सजि हिम-थार, तन-मन मोद धरूं |
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरूं ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।

पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
(राग टप्पा)
मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी,
मोहि राखो हो शरणा |
गरभ साढ़-सित-छट्ठ लियो थिति, त्रिशला-उर अघहरना ||
सुरि-सुरपति तित सेव करी नित, मैं पूजूँ भवतरना |
नाथ! मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी,
मोहि राखो हो शरणा |
ॐ ह्रीं अषाढ़शुक्ल-षष्ठ्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१।

जनम चैत-सित-तेरस के दिन, कुंडलपुर कन वरना |
सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजूं भवहरना |
नाथ! मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी,
मोहि राखो हो शरणा |
ॐ ह्रीं चैत्र-शुक्ल-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।

मगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना |
नृप-कुमार घर पारन कीनों, मैं पूजूं तुम चरना |
नाथ! मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी,
मोहि राखो हो शरणा |
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्ण-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३।

शुक्ल-दशैं-बैसाख दिवस अरि, घाति चतुक क्षय करना |
केवल लहि भवि भवसर तारे, जजूं चरन सुखभरना |
नाथ! मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी,
मोहि राखो हो शरणा |
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ल-दशम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।

कार्तिक-श्याम-अमावस शिव-तिय, पावापुर तें वरना |
गण-फनिवृन्द जजें तित बहुविध, मैं पूजूं भयहरना |
नाथ! मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी,
मोहि राखो हो शरणा |
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्ण-अमावस्यायां मोक्षमंगल-मंडितायअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।


------------जयमाला-------------------
(छन्द हरिगीतिका – २८ मात्रा)
गणधर अशनिधर चक्रधर, हलधर गदाधर वरवदा |
अरु चापधर विद्या-सु-धर, तिरशूलधर सेवहिं सदा ||
दु:खहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं |
सुकुमाल गुन-मनिमाल उन्नत, भाल की जयमाल है |
(छन्द घत्ता)
जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं |
भवताप-निकंदन, तनकन-मंदन, रहित-सपंदन नयनधरं ||
जय केवलभानु-कला-सदनं, भवि-कोक-विकासन कंज-वनं |
जगजीत महारिपु-मोहहरं, रजज्ञान-दृगांबर चूर करं ||१||
गर्भादिक-मंगल मंडित हो, दु:ख-दारिद को नित खंडित हो |
जगमाँहिं तुम्हीं सतपंडित हो, तुम ही भवभाव-विहंडित हो ||२||
हरिवंश-सरोजन को रवि हो, बलवंत महंत तुम्हीं कवि हो |
लहि केवलधर्म प्रकाश कियो, अब लों सोर्इ मारग राजति हो ||३||
पुनि आप तने गुण माहिं सही, सुर मग्न रहें जितने सबही |
तिनकी वनिता गुन गावत हैं, लय-ताननि सों मनभावत हैं ||४||
पुनि नाचत रंग उमंग भरी, तुव भक्ति विषै पग एम धरी |
झननं झननं झननं झननं, सुर लेत तहाँ तननं तननं ||५||
घननं घननं घन-घंट बजे, दृम दृम दृम दृम मिरदंग सजे |
गगनांगन-गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ||६||
धृगतां धृगतां गति बाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है |
सननं सननं सननं नभ में, इकरूप अनेक जु धारि भ्रमें ||७||
किन्नर-सुरि बीन बजावत हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावत हैं |
करताल विषैं करताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें ||८||
इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी |
तुमही जगजीवन के पितु हो, तुमही बिन कारन तें हितु हो ||९||
तुमही सब विघ्न-विनाशन हो, तुमही निज-आनंद-भासन हो |
तुमही चित-चिंतित दायक हो, जगमाँहिं तुम्हीं सब-लायक हो ||१०||
तुमरे पन-मंगल माँहिं सही, जिय उत्तम-पुन्य लियो सबही |
हम तो तुमरी शरणागत हैं, तुमरे गुन में मन पागत है ||११||
प्रभु मो-हिय आप सदा बसिये, जबलों वसु-कर्म नहीं नसिये |
तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुत-चिंतन चित्त रतों ||१२||
तबलों व्रत-चारित चाहतु हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों |
तबलों सतसंगति नित्त रहो, तबलों मम संजम चित्त गहो ||१३||
जबलों नहिं नाश करों अरि को, शिव नारि वरों समता धरि को |
यह द्यो तबलों हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ||१४||
(घत्ता छन्द)
श्रीवीर जिनेशा नमित-सुरेशा, नागनरेशा भगति-भरा |
‘वृन्दावन’ ध्यावें विघन-नशावें, वाँछित पावें शर्म वरा ||
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
श्री सन्मति के जुगल-पद, जो पूजें धरि प्रीत |
‘वृन्दावन’ सो चतुर नर, लहे मुक्ति नवनीत ||
।।इत्याशीर्वाद: पु्ष्पांजलिं क्षिपेत्।।


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