Skip to main content

श्री सुपार्श्वनाथ जी जिन पूजा - Shree Suparshvnaath ji jin pooja

जय जय जिनिंद गनिंद इन्द, नरिंद गुन चिंतन करें |
तन हरीहर मनसम हरत मन, लखत उर आनन्द भरें ||
नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ट पृथी प्रिया |
तिन नन्दके पद वन्द वृन्द, अमंद थापत जुतक्रिया ||
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |


उज्ज्वल जल शुचि गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

मलयागिर चंदन घसि सार, लीनो भवतप भंजनहार |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

देवजीर सुखदास अखंड, उज्ज्वल जलछालित सित मंड |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

प्रासुक सुमन सुगंधित सार, गुंजत अलि मकरध्वजहार |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

छुधाहरण नेवज वर लाय, हरौं वेदनी तुम्हें चढ़ाय |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|

ज्वलित दीप भरकरि नवनीत, तुम ढिग धारतु हौं जगमीत |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|

दशविधि गन्ध हुताशन माहिं, खेवत क्रूर करम जरि जाहिं |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

श्रीफल केला आदि अनूप, ले तुम अग्र धरौं शिवभूप |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय |
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0

ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
सुकल भादव छट्ठ सु जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये |
करत सेव शची रचि मात की, अरघ लेय जजौं वसु भांत की ||
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |1|

सुकल जेठ दुवादशि जन्मये, सकल जीव सु आनन्द तन्मये |
त्रिदशराज जजें गिरिराजजी, हम जजें पद मंगल साजजी ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |2|

जनम के तिथि पे श्रीधर ने धरी, तप समस्त प्रमादन को हरी |
नृप महेन्द्र दियो पय भाव सौं, हम जजें इत श्रीपद चाव सों ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |3|

भ्रमर फागुन छट्ठ सुहावनो, परम केवलज्ञान लहावनो |
समवसर्न विषैं वृष भाखियो, हम जजें पद आनन्द चाखनो ||
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा षष्ठीदिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |4|

असित फागुन सातय पावनो, सकल कर्म कियो छय भावनो |
गिरि समेदथकी शिव जातु हैं, जजत ही सब विघ्न विलातु हैं ||
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तमीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |5|

जयमाला
दोहाः- तुंग अंग धनु दोय सौ, शोभा सागरचन्द |
मिथ्यातपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद |1|

जयति जिनराज शिवराज हितहेत हो |
परम वैराग आनन्द भरि देत हो ||
गर्भ के पूर्व षट्मास धनदेव ने |
नगर निरमापि वाराणसी सेव में |2|
गगन सों रतन की धार बहु वरषहीं |
कोड़ि त्रैअर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं ||
तात के सदन गुनवदन रचना रची |
मातु की सर्वविधि करत सेवा शची |3|
भयो जब जनम तब इन्द्र-आसन चल्यो |
होय चकित तब तुरित अवधितैं लखि भल्यो ||
सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी |
चलन उमग्यो तबै मानि धनि धनि घरी |4|
सात विधि सैन गज वृषभ रथ बाज ले |
गन्धरव नृत्यकारी सबै साज ले ||
गलित मद गण्ड ऐरावती साजियो |
लच्छ जोजन सुतन वदन सत राजियो |5|
वदन वसुदन्त प्रतिदन्त सरवर भरे |
ता सु मधि शतक पनबीस कमलिनि खरे ||
कमलिनी मध्य पनवीस फूले कमल |
कमल-प्रति-कमल मँह एक सौ आठ दल |6|
सर्वदल कोड़ शतबीस परमान जू |
ता सु पर अपछरा नचहिं जुतमान जू ||
तततता तततता विततता ताथई |
धृगतता धृगतता धृगतता में लई |7|
धरत पग सनन नन सनन नन गगन में |
नूपुरे झनन नन झनन नन पगन में ||
नचत इत्यादि कई भाँति सों मगन में |
केई तित बजत बाजे मधुर पगन में |8|
केई दृम दृम दुदृम दृम मृदंगनि धुनै |
केई झल्लरि झनन झंझनन झंझनै ||
केई संसाग्रते सारंगि संसाग्र सुर |
केई बीना पटह बंसि बाजें मधुर |9|
केई तनतन तनन तनन ताने पुरैं |
शुद्ध उच्चारि सुर केई पाठैं फुरैं ||
केइ झुकि झुकि फिरे चक्र सी भामिनी |
धृगगतां धृगगतां पर्म शोभा बनी |10|
केई छिन निकट छिन दूर छिन थूल-लघु |
धरत वैक्रियक परभाव सों तन सुभगु ||
केई करताल-करताल तल में धुनें |
तत वितत घन सुषिरि जात बाजें मुनै |11|
इन्द्र आदिक सकल साज संग धारिके |
आय पुर तीन फेरी करी प्यार तें ||
सचिय तब जाय परसूतथल मोद में |
मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोद में |12|
आन-गिरवान नाथहिं दियो हाथ में |
छत्र अर चमर वर हरि करत माथ में ||
चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो |
जाय गिरिराज पांडुक शिला थापियो |13|
लेय पंचम उदधि-उदक कर कर सुरनि |
सुरन कलशनि भरे सहित चर्चित पुरनि ||
सहस अरु आठ शिर कलश ढारें जबै |
अघघ घघ घघघ घघ भभभ भभ भौ तबै |14|
धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है |
भव्य जन हंस के हरस उद्योत है ||
भयो इमि न्हौन तब सकल गुन रंग में |
पोंछि श्रृंगार कीनों शची अंग में |15|
आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो |
बाल वय तरुन लहि राज सुख भोगियो ||
भोग तज जोग गहि, चार अरि कों हने |
धारि केवल परम धरम दुइ विध भने |16|
नाशि अरि शेष शिवथान वासी भये |
ज्ञानदृग अरि शेष शिवथान वासी भये |
दीन जन की करुण सुन लीजिये |
धरम के नन्द को पार अब कीजिये |17|
घर्त्ताः- जय करुनाधारी, शिवहितकारी तारन तरन जिहाजा हो |
सेवत नित वन्दे मनआंनदे, भवभय मेटनकाजा हो |18|
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

दोहाः- श्री सुपार्श्व पदजुगल जो जजें पढ़े यह पाठ |
अनुमोदें सो चतुर नर पावें आनन्द ठाठ ||
 इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

BHAKTAMAR STOTRA MAHIMA / भक्तामर-स्तोत्र महिमा

पं. हीरालाल जैन ‘कौशल’ श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात, भक्ति मन लाई | सब संकट जायँ नशाई || जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे | चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१|| मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था | मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२|| उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था | हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३|| मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे | क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४|| मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था | हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५|| सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके | कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६|| राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था | मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७|| जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है | जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ...