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श्री जिनसहस्रनाम-स्तोत्रम् ||SHRI JINSAHASHTRANAAM STOTRAM


श्रीमद् भगवद् जिनसेनाचार्य कृत
स्वयंभुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि |
स्वात्मनैव तथोद्भूतवृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ||१||

नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोऽस्तु ते |
विदांवर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ||२||

कर्म-शत्रुहणं देवमामनन्ति मनीषिण: |
त्वामानमत्सुरेण्मौलि-भा-मालाभ्यर्चित-क्रमम् ||३||

ध्यानद्रुघण-निर्भिन्न घन-घाति-महातरु: |
अनंत-भव-संतान-जयादासीरनंतजित् ||४||

त्रैलोक्य-निर्जयावाप्त-दुर्दर्प्यमति-दुर्जयम् |
मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन मृत्युंजयो भवान् ||५||

विधूताशेष-संसार-बंधनो भव्य-बांधव: |
त्रिपुरारिस्त्वमीशोऽसि जन्म-मृत्यु-जरान्तकृत् ||६||

त्रिकाल-विजयाशेष-तत्त्वभेदात् त्रिधोत्थितम् |
केवलाख्यं दधच्चक्षुस्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशिता ||७||

त्वामंधकांतकं प्राहुर्मोहांधासुर-मर्द्दनात् |
अर्द्धं ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यत: ||८||

शिव: शिव-पदाध्यासाद् दुरितारि-हरो हर: |
शंकर: कृतशं लोके शम्भवस्त्वं भवन्सुखे ||९||

वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरु-गुणोदयै: |
नाभेयो नाभि-सम्भूतेरिक्ष्वाकु-कुल-नन्दन: ||१०||

त्वमेक: पुरुषस्कंधस्त्वं द्वे लोकस्य लोचने |
त्वं त्रिधा बुद्ध-सन्मार्गस्त्रिज्ञस्त्रिज्ञान-धारक: ||११||

चतु:शरण-मांगल्य-मूर्तिस्त्वं चतुरस्र-धी: |
पंच-ब्रह्ममयो देव: पावनस्त्वं पुनीहि माम् ||१२||

स्वर्गावतरणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम: |
जन्माभिषेक-वामाय वामदेव नमोऽस्तु ते ||१३||

सन्निष्क्रान्तावघोराय परं प्रशममीयुषे |
केवलज्ञान-संसिद्धावीशानाय नमोऽस्तु ते ||१४||

पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्ति-पद-भागिने |
नमस्तत्पुरुषाऽवस्थां भाविनीं तेऽद्य बिभ्रते ||१५||
ज्ञानावरणनिर्ह्रासान्नमस्तेऽनन्त-चक्षुषे |
दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वदृश्वने ||१६||

नमो दर्शन-मोहघ्ने क्षायिकामलदृष्टये |
नमश्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे ||१७||

नमस्तेऽनन्तवीर्य्याय नमोऽनन्तसुखात्मने |
नमस्तेऽनन्तलोकाय लोकालोकावलोकिने ||१८||

नमस्तेऽनन्तदानाय नमस्तेऽनन्तलब्धये |
नमस्तेऽनन्तभोगाय नमोऽनन्तोपभोगिने ||१९||

नम: परमयोगाय नमस्तुभ्यमयोनये |
नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये ||२०||

नम: परमविद्याय नम: पर-मतच्छिदे |
नम: परमतत्त्वाय नमस्ते परमात्मने ||२१||

नम: परमरूपाय नम: परमतेजसे |
नम: परममार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ||२२||

परमर्द्धिजुषे धाम्ने परमज्योतिषे नम: |
नम: पारेतम: प्राप्त-धाम्ने परतरात्मने ||२३||

नम: क्षीणकलंकाय क्षीणबन्ध नमोऽस्तु ते |
नमस्ते क्षीणमोहाय क्षीणदोषाय ते नम: ||२४||

नम: सुगतये तुभ्यं शोभनां गतिमीयुषे |
नमस्तेऽतीन्द्रिय-ज्ञान-सुखायानिन्द्रियात्मने ||२५||

काय-बन्धन-निर्मोक्षादकायाय नमोऽस्तु ते |
नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामधियोगिने ||२६||

अवेदाय नमस्तुभ्यमकषायाय ते नम: |
नम: परम-योगीन्द्र-वन्दितांघ्रि-द्वयाय ते ||२७||

नम: परमविज्ञान नम: परमसंयम |
नम: परमदृग्दृष्ट-परमार्थाय तायिने ||२८||

नमस्तुभ्यमलेश्याय शुक्ललेश्यांशक-स्पृशे |
नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षिणे ||२९||

संज्ञ्यसंज्ञि-द्वयावस्था-व्यतिरिक्तामलात्मने |
नमस्ते वीतसंज्ञाय नम: क्षायिकदृष्टये ||३०||

अनाहाराय तृप्ताय नम: परम-भा-जुषे |
व्यतीताशेषदोषाय भवाब्धे: पारमीयुषे ||३१||

अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने |
अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने ||३२||

अलमास्तां गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणा: |
त्वां नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासिसिषामहे ||३३||

एवं स्तुत्वा जिनं देवं भक्त्या परमया सुधी: |
पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पाप-शान्तये ||34||

।। इति प्रस्तावना ।।

श्रीमद् आदिशतम्

प्रसिद्धाष्ट-सहस्रेद्धलक्षणं त्वां गिरांपतिम् |
नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ||१||

श्रीमान् स्वयंभूर्वृषभ: शम्भव: शम्भुरात्मभू: |
स्वयंप्रभ: प्रभुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भव: ||२||

विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षर: |
विश्वविद्विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनश्वर: ||३||

विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचन: |
विश्वव्यापी विधिर्वेधा: शाश्वतो विश्वतोमुख: ||४||

विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्तिर्जिनेश्वर: |
विश्वदृग् विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वर: ||५||

जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति: |
अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरबन्धन: ||6||

युगादिपुरुषो ब्रह्मा पंचब्रह्ममय: शिव: |
पर: परतर: सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातन: ||7||

स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिज: |
मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वज: ||8||

प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चित: |
ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वर: ||9||

शुद्धो बुद्ध: प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थ: सिद्धशासन: |
सिद्ध: सिद्धान्तविद् ध्येय: सिद्धसाध्यो जगद्धित: ||10||

सहिष्णुरच्युतोऽनन्त: प्रभविष्णुर्भवोद्भव: |
प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्यय: ||11||

विभावसुरसंभूष्णु: स्वयंभूष्णु: पुरातन: |
परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वर: ||१२||

ॐ ह्रीं श्रीमदादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

(प्रत्येक शतक के अन्त में उदक चंदन तंदुल ….. श्लोक पढ़कर अर्घ्य चढ़ाना चाहिए।)
दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन: |
पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर: ||१||

श्रीपतिर्भगवानर्हन्नरजा विरजा: शुचि: |
तीर्थकृत्केवलीशान: पूजार्ह: स्नातकोऽमल: ||२||

अनन्तदीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुद्ध: प्रजापति: |
मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर: ||३||

निरंजनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिरनामय: |
अचलस्थितिरक्षोभ्य: कूटस्थ: स्थाणुरक्षय: ||४||

अग्रणीर्ग्रामणीर्नेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् |
शास्ता धर्मपतिर्धर्म्यो धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ||५||

वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुध: |
वृषो वृषपतिर्भर्त्ता वृषभांको वृषोद्भव: ||६||

हिरण्यनाभिर्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावन: |
प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक: ||७||

हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूतविभवोऽभव: |
स्वयंप्रभु: प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्पति: ||८||

सर्वादि: सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन: |
सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित्सर्वलोकजित् ||९||

सुगति: सुश्रुत: सुश्रुक् सुवाक् सूरिर्बहुश्रुत: |
विश्रुतो विश्वत:पादो विश्वशीर्ष: शुचिश्रवा: ||१०||

सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात् |
भूतभव्यभवद्भर्त्ता विश्वविद्यामहेश्वर: || ११ ||

ॐ ह्रीं श्री दिव्यादिशतं अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।२।

स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: प्रष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधी: |
स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: श्रेष्ठोऽणिष्ठो गरिष्ठगी: ||१||

विश्वभृद्विश्वसृड् विश्वेट् विश्वभुग्विश्वनायक: |
विश्वाशीर्विश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितान्तक: ||२||

विभवो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन् |
विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सर: ||३||

विनेय-जनताबन्धुर्विलीनाशेष-कल्मष: |
वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधि: सुधी: ||४||

क्षान्तिभाक्पृथिवीमूर्ति: शान्तिभाक् सलिलात्मक: |
वायुमूर्तिरसंगात्मा वह्निर्मूर्तिरधर्मधक् ||५||

सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजित: |
ऋत्विग्यज्ञपतिर्याज्यो यज्ञांगममृतं हवि: ||६||

व्योममूर्तिरमूर्त्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचल: |
सोममूर्ति: सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्तिर्महाप्रभ: ||७||

मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरनन्तग: |
स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वान्त: कृतान्तान्त: कृतान्तकृत् ||८||

कृती कृतार्थ: सत्कृत्य: कृतकृत्य: कृतक्रतु: |
नित्यो मृत्युंजयोऽमृत्युरमृतात्माऽमृतोद्भव: ||९||

ब्रह्मनिष्ठ: परंब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसम्भव: |
महाब्रह्मपतिर्ब्रह्मेट् महाब्रह्मपदेश्वर: ||१०||

सुप्रसन्न: प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभु: |
प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तम: ||११||

ॐ ह्रीं श्री स्थविष्ठादिशतं अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।

महाऽशोकध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्मविष्टर: |
पद्मेश: पद्मसम्भूति: पद्मनाभिरनुत्तर: ||१||

पद्मयोनिर्जगद्योनिरित्य: स्तुत्य: स्तुतीश्वर: |
स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेय: कृतक्रिय: ||२||

गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी: |
गुणाकरो गुणाम्भोधिर्गुणज्ञो गुणनायक: ||३||

गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण: पुण्यगीर्गुण: |
शरण्य: पुण्यवाक्पूतो वरेण्य: पुण्यनायक: ||४||

अगण्य: पुण्यधीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्यशासन: |
धर्मारामो गुणग्राम: पुण्यापुण्य-निरोधक: ||५||

पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मष: |
निर्द्वन्द्वो निर्मद: शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव: ||६||

निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव: |
निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतागो निरास्रव: ||७||

विशालो विपुलज्योतिरतुलोऽचिन्त्यवैभव: |
सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभुत् सुनयतत्त्ववित् ||८||

एकविद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति: |
धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक: ||९||

पिता पितामह: पाता पवित्र: पावनो गति: |
त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान् ||१०||

कवि: पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभ: पुरु: |
प्रतिष्ठा-प्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामह: ||११||

ॐ ह्रीं श्रीमहाऽशोकध्वजादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

श्रीवृक्षलक्षण: श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण: |
निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण: ||१||

सिद्धिद: सिद्धसंकल्प: सिद्धात्मा सिद्धसाधन: |
बुद्धबोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महर्द्धिक: ||२||

वेदांगो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवर: |
वेदवेद्य: स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवर: ||३||

अनादिनिधनो व्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासन: |
युगादिकृद्युगाधारो युगादिर्जगदादिज: ||४||

अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थदृक् |
अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्रमहितो महान् ||५||

उद्भव: कारणं कर्त्ता पारगो भवतारक: |
अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्ध्य: परमेश्वर: ||६||

अनन्तर्द्धिरमेयर्द्धिरचिन्त्यर्द्धि: समग्रधी: |
प्राग्रयः: प्राग्रहरोऽभ्यग्र: प्रत्यग्रोऽग्रयोऽग्रिमोऽग्रज: ||७||

महातपा: महातेजा महोदर्को महोदय: |
महायशा महाधामा महासत्त्वो महाधृति: ||८||

महाधैर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबल: |
महाशक्ति-र्महाज्योति-र्महाभूति-र्महाद्युति: ||९||

महामति-र्महानीति-र्महाक्षान्ति-र्महादय: |
महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकवि: ||१०||

महामहा महाकीर्ति-र्महाकान्ति-र्महावपु: |
महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुण: ||११||

महामहपति: प्राप्त-महाकल्याण-पंचक: |
महाप्रभुर्महाप्रातिहार्याधीशो महेश्वर: ||१२||

ॐ ह्रीं श्री वृक्षलक्षणादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

महामुनिर्महामौनी महाध्यानी महादम: |
महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामख: ||१||

महाव्रतपतिर्मह्यो महाकान्तिधरोऽधिप: |
महामैत्रीमयोऽमेयो महोपायो महोमय: ||२||

महाकारुणिको मंता महामंत्रो महायति: |
महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपति: ||३||

महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यो महिष्ठवाक् |
महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदय: ||४||

महाक्लेशांकुश: शूरो महाभूतपतिर्गुरु: |
महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधरिपुर्वशी ||५||

महाभवाब्धि-संतारी महामोहाद्रिसूदन: |
महागुणाकर: क्षान्तो महायोगीश्वर: शमी ||६||

महाध्यानपर्तिध्यातमहाधर्मा महाव्रत: |
महाकर्मारिहाऽत्मज्ञो महादेवो महेशिता ||७||

सर्वक्लेशापह: साधु: सर्वदोषहरो हर: |
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकर: ||८||

सर्वयोगीश्वरोऽचिन्त्य: श्रुतात्मा विष्टरश्रवा: |
दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वग: ||९||

प्रधानमात्मा प्रकृति: परम: परमोदय: |
प्रक्षीणबन्ध: कामारि: क्षेमकृत्क्षेमशासन: ||१०||

प्रणव: प्रणत: प्राण: प्राणद: प्रणतेश्वर: |
प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोऽध्वर्युरध्वर: ||११||

आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽनिन्द्योऽभिनन्दन: |
कामहा कामद: काम्य: कामधेनुररिंजय: ||१२||

ॐ ह्रीं श्री महामुन्यादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

असंस्कृत सुसंस्कार: प्राकृतो वैकृतान्तकृत् |
अन्तकृत्कान्तगु: कान्तष्चिन्तामणिरभीष्टद: ||१||

अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासन: |
जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक: ||२||

जिनेन्द्र: परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिस्वन: |
महेन्द्रवन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन: ||३||

नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम: |
अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरु: सुधी: ||४||

सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक: |
विशिष्ट: शिष्टभुक् शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ: ||५||

क्षेमी क्षेमङकरोऽक्षय्य: क्षेमधर्मपति: क्षमी |
अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तर: ||६||

सुकृती धातुरिज्यार्ह: सुनयश्चतुरानन: |
श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुख: ||७||

सत्यात्मा सत्यविज्ञान: सत्यवाक्सत्यशासन: |
सत्याशी: सत्यसन्धान: सत्य: सत्यपरायण: ||८||

स्थेयान् स्थवीयान् नेदीयान् दवीयान् दूरदर्शन: |
अणोरणीयाननणुर्गुरुराद्यो गरीयसाम् ||९||

सदायोग: सदाभोग: सदातृप्त: सदाशिव: |
सदागति: सदासौख्य: सदाविद्य: सदोदय: ||१०||

सुघोष: सुमुख: सौम्य: सुखद: सुहित: सुहृत् |
सुगुप्तो गुप्तिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वर: ||११||

ॐ ह्रीं श्री असंस्कृतादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

वृहद्बृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधी: |
मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशो गिरांपति: ||१||

नैकरूपो नयोत्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत् |
अविज्ञेयोऽप्रतर्क्यात्मा कृतज्ञ: कृतलक्षण: ||२||

ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ: प्रभास्वर: |
पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भ: सुदर्शन: ||३||

लक्ष्मीवांस्त्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता |
मनोहरो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासन: ||४||

धर्मयूपो दयायागो धर्मनेमिर्मुनीश्वर: |
धर्मचक्रायुधो देव: कर्महा धर्मघोषण: ||५||

अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासन: |
सुरूप: सुभगस्त्यागी समयज्ञ: समाहित: ||६||

सुस्थित: स्वास्थ्यभाक् स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धव: |
अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृह: ||७||

वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा नि:सपत्नो जितेन्द्रिय: |
प्रशान्तोऽनन्तधामर्षि-र्मंगलं मलहानघ: ||८||

अनीदृगुपमाभूतो दिष्टिर्दैवमगोचर: |
अमूर्त्तो मूर्तिमानेको नैको नानैकतत्त्वदृक् ||९||

अध्यात्मगम्योगम्यात्मा योगविद्योगिवन्दित: |
सर्वत्रग: सदाभावी त्रिकालविषयार्थदृक् ||१०||

शंकर: शंवदो दान्तो दमी क्षान्तिपरायण: |
अधिप: परमानन्द: परात्मज्ञ: परात्पर: ||११||

त्रिजगद्वल्लभोऽभ्यर्च्यस्त्रिजगन्मंगलोदय: |
त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रिस्त्रिलोकाग्रशिखामणि: ||१२||

ॐ ह्रीं श्री वृहदादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढव्रत: |
सर्वलोकातिग: पूज्य: सर्वलोकैकसारथि: ||१||

पुराण: पुरुष: पूर्व: कृतपूर्वांगविस्तर: |
आदिदेव: पुराणाद्य: पुरुदेवोऽधिदेवता ||2||

युगमुखो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशक: |
कल्याणवर्ण: कल्याण: कल्य: कल्याणलक्षण: ||3||

कल्याणप्रकृतिर्दीप्तकल्याणात्मा विकल्मष: |
विकलंक: कलातीत: कलिलघ्न: कलाधर: ||4||

देवदेवो जगन्नाथो जगद्बन्धुर्जगद्विभु: |
जगद्धितैषी लोकज्ञ: सर्वगो जगदग्रग: ||5||

चराचर-गुरुर्गोप्यो गूढात्मा गूढगोचर: |
सद्योजात: प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभ: ||6||

आदित्यवर्णो भर्माभ: सुप्रभ: कनकप्रभ: |
सुवर्णवर्णो रुक्माभ: सूर्यकोटिसमप्रभ: ||7||

तपनीयनिभस्तुंगो बालार्काभोऽनलप्रभ: |
सन्ध्याभ्रबभ्रुर्हेमाभस्तप्तचामीकरच्छवि: ||8||

निष्टप्तकनकच्छाय: कनत्काञ्चनसन्निभ: |
हिरण्यवर्ण: स्वर्णाभ: शातकुंभनिभप्रभ: ||9||

द्युम्नाभो जातरूपाभस्तप्तजाम्बूनदद्युति: |
सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्युति: ||10||

शिष्टेष्ट: पुष्टिद: पुष्ट: स्पष्ट: स्पष्टाक्षर: क्षम: |
शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघ: प्रशास्ता शासिता स्वभू: ||11||

शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रद: |
शान्तिद: शान्तिकृच्छान्ति: कान्तिमान्कामितप्रद: ||12||

श्रेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठ: प्रतिष्ठित: |
सुस्थिर: स्थावर: स्थाणु: प्रथीयान्प्रथित: पृथु: ||13||

ॐ ह्रीं श्री त्रिकालदर्श्यादिशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बर: |
निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुह: ||१||

तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाब्धि: शीलसागर: |
तेजोमयोऽमितज्योतिर्ज्योतिमूर्तिस्तमोपह: ||२||

जगच्चूडामणिर्दीप्त: शंवान् विघ्नविनायक: |
कलिघ्न: कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशक: ||३||

अनिद्रालुरतन्द्रालुर्जागरूक: प्रमामय: |
लक्ष्मीपति-र्जगज्ज्योति-र्धर्मराज: प्रजाहित: ||४||

मुमुक्षुर्बन्ध-मोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथ: |
प्रशान्त-रसशैलूषो भव्यपेटकनायक: ||५||

मूलकर्त्ताऽखिल-ज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणम् |
आप्तो वागीश्वर: श्रेयाञ्छ्रायसोक्तिर्निरुक्तवाक् ||६||

प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित् |
सुतनुस्तनुनिर्मुक्त: सुगतो हतदुर्नय: ||७||

श्रीश: श्रीश्रितपादाब्जो वीतभीरभयंकर: |
उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सल: ||८||

लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधी: |
धीरधीर्बुद्धसन्मार्ग: शुद्ध: सूनृत-पूतवाक् ||९||

प्रज्ञापारमित: प्राज्ञो यतिर्नियमितेन्द्रिय: |
भदन्तो भद्रकृत्भद्र: कल्पवृक्षो वरप्रद: ||१०||

समुन्मूलितकर्मारि: कर्मकाष्ठा: शुशुक्षणि: |
कर्मण्य: कर्मठ: प्रांशुर्हेयादेयविचक्षण: ||११||

अनन्त-शक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारि-स्त्रिलोचन: |
त्रिनेत्रस्त्र्यम्बकस्त्र्यक्ष: केवलज्ञान-वीक्षण: ||१२||

समन्तभद्र: शान्तारिर्धर्माचार्यो दयानिधि: |
सूक्ष्मदर्शी जितानंग: कृपालुर्धर्मदेशक: ||१३||

शुभंयु: सुखसाद्भूत: पुण्यराशिरनामय: |
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक: ||१४||

ॐ ह्रीं श्री दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१०।

धाम्नांपते तवामूनि नामान्यागम-कोविदै: |
समुच्चितान्यनुध्यायन्पुमान् पूतस्मृतिर्भवेत् ||१||

गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरो मत: |
स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं लभेत् ||२||

त्वमतोऽसि जगद्बन्धुस्त्वमतोऽसि जगद्भिषक् |
त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धित: ||३||

त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् |
त्वं त्रिरूपैकमुक्त्यंग: स्वोत्थानन्तचतुष्टय: ||४||

त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायक: |
षड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रह: ||५||

दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिक: |
दशावतार-निर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर ||६||

युष्मन्नामावलीदृब्ध विलसत्स्तोत्रमालया |
भवन्तं परिवस्याम: प्रसीदानुगृहाण न: ||७||

इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिक: |
य: संपाठं पठत्येनं स स्यात्कल्याण-भाजनम् ||८||

तत: सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठतु पुण्यधी: |
पौरुहूतीं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुक: ||९||

स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुम् |
ततस्तीर्थ-विहारस्य व्यद्यात्प्रस्तावनामिमम् ||१०||

स्तुति: पुण्यगुणोत्कीर्ति: स्तोता भव्य: प्रसन्नधी: |
निष्ठितार्थो भवांस्तुत्य: फलं नैश्रेयसं सुखम् ||११||

य: स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुन: स्तोता स्वयं कस्यचित् |
ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वयं कस्यचित् ||
यो नंतृन् नयते नमस्कृतिमलं नन्तव्यपक्षेक्षण: |
स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देव: पुरु: पावन: ||१२||

तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं घाति-क्षयानन्तरम् |
प्रोत्थानन्तचतुष्टयं जिनमिमं भव्याब्जिनीनामिन: |
मानस्तम्भ-विलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपतिम् |
प्राप्ताचिन्त्यबहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवंदामहे ||१३||

।। इति श्री जिनसेनाचार्यविरचितं जिनऽष्टोत्तर-सहस्रनाम-स्तोत्रं सम्पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
।। पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।

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बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ...

BHAKTAMAR STOTRA MAHIMA / भक्तामर-स्तोत्र महिमा

पं. हीरालाल जैन ‘कौशल’ श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात, भक्ति मन लाई | सब संकट जायँ नशाई || जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे | चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१|| मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था | मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२|| उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था | हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३|| मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे | क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४|| मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था | हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५|| सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके | कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६|| राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था | मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७|| जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है | जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट...