Skip to main content

SHRI PARASHAVNATH JIN POOJA (RAVINDRA JI) / श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा (रवीन्द्रजी) कवि श्री रवीन्द्र

SHRI PARASHAVNATH JIN POOJA (RAVINDRA JI) / श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा (रवीन्द्रजी)
कवि श्री रवीन्द्र
(पूजन विधि निर्देश)

(शंभु छन्द)

हे पार्श्वनाथ! हे पार्श्वनाथ! तुमने हमको यह बतलाया |
निज पार्श्वनाथ में थिरता से, निश्चय सुख होता सिखलाया ||
तुमको पाकर मैं तृप्त हुआ, ठुकराऊं जग की निधि नामी |
हे रवि सम स्वपर प्रकाशक प्रभु! मम हृदय विराजो हे स्वामी ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं)
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्रा मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)

जड़ जल से प्यास न शान्त हुई, अतएव इसे मैं यहीं तजूँ |
निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वभाव, पहिचान उसी में लीन रहूँ ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्दन से शान्ति नहीं होगी, यह अन्तर्दहन जलाता है |
निज अमल भावरूपी चन्दन ही, रागाताप मिटाता है |
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु उज्ज्वल अनुपम निज स्वभाव ही, एकमात्र जग में अक्षत |
जितने संयोग वियोग तथा, संयोगी भाव सभी विक्षत ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

ये पुष्प काम-उत्तेजक हैं, इनसे तो शान्ति नहीं होती |
निज समयसार की सुमन माल ही कामव्यथा सारी खोती ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़ व्यंजन क्षुधा न नाश करें, खाने से बंध अशुभ होता |
अरु उदय में होवे भूख अत:, निज ज्ञान अशन अब मैं करता ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूंII |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़ दीपक से तो दूर रहो, रवि से नहिं आत्म दिखाई दे |
निज सम्यक-ज्ञानमयी दीपक ही, मोह-तिमिर को दूर करे ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

जब ध्यान अग्नि प्रज्ज्वलित होय, कर्मों का ईंधन जले सभी |
दश-धर्ममयी अतिशय सुगंध, त्रिभुवन में फैलेगी तब ही ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

जो जैसी करनी करता है, वह फल भी वैसा पाता है |
जो हो कर्त्तत्व-प्रमाद रहित, वह मोक्ष महाफल पाता है ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल फलं निर्वपामीति स्वाहा।

है निज आतम स्वभाव अनुपम, स्वभाविक सुख भी अनुपम है
अनुपम सुखमय शिवपद पाऊं, अतएव अर्घ्य यह अर्पित है ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अर्चूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक अर्घ्य

(दोहा)

दूज कृष्ण वैशाख को, प्राणत स्वर्ग विहाय |
वामा माता उर वसे, पूजूँ शिव सुखदाय ||
ॐ ह्रीं वैशाख कृष्ण द्वितीयायां गर्भमंगलमण्डिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पौष कृष्ण एकादशी, सुतिथि महा सुखकार |
अन्तिम जन्म लियो प्रभु, इन्द्र कियो जयकार ||
ॐ ह्रीं पौष कृष्ण-एकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पौष कृष्ण एकादशी, बारह भावन भाय |
केशलोंच करके प्रभु, धरो योग शिव दाय ||
ॐ ह्रीं पौष कृष्ण-एकादश्यां तपोमंगल मंडिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शुक्लध्यान में होय थिर, जीत उपसर्ग महान |
चैत्र कृष्ण शुभ चौथ को, पायो केवलज्ञान ||
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण-चतुर्थ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्रावण शुक्ल सु सप्तमी, पायो पद निर्वाण |
सम्मेदाचल विदित है, तव निर्वाण सुथान |
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्याम् मोक्षमंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(गीता छन्द)

हे पार्श्व प्रभु! मैं शरण आयो, दर्श कर अति सुख लियो |
चिन्ता सभी मिट गयी मेरी, कार्य सब पूरण भयो ||

चिन्तामणी चिन्तत मिले, तरु कल्प माँगे देत हैं |
तुम पूजते सब पाप भागें, सहज सब सुख देत हैं ||

हे वीतरागी नाथ! तुमको, भी सरागी मानकर |
माँगें अज्ञानी भोग वैभव, जगत में सुख जानकर ||

तव भक्त वाँछा और शंका, आदि दोषों रहित हैं |
वे पुण्य को भी होम करते, भोग फिर क्यों चहत हैं ||

जब नाग और नागिन तुम्हारे, वचन उर धर सुर भये |
जो आपकी भक्ति करें वे, दास उन के भी भये ||

वे पुण्यशाली भक्त जन की, सहज बाध को हरें |
आनन्द से पूजा करें, वाँछा न पूजा की करें ||

हे प्रभो! तव नासाग्र दृष्टि, यह बताती है हमें |
सुख आत्मा में प्राप्त कर लें, व्यर्थ न बाहर में भ्रमें ||

मैं आप सम निज आत्म लखकर, आत्म में थिरता धरूं |
अरु आशा-तृष्णा से रहित, अनुपम अतीन्द्रिय सुख भरूँ ||

जब तक नहीं यह दशा होती, आपकी मुद्रा लखूँ |
जिनवचन का चिन्तन करूँ, व्रत शील संयम रस चखूँ ||

सम्यक्त्व को नित दृढ़ करूँ, पापादि को नित परिहरूँ |
शुभ राग को भी हेय जानूँ, लक्ष्य उसका नहिं करूँ ||

स्मरण ज्ञायक का सदा, विस्मरण पुद्गल का करूँ |
मैं निराकुल निज पद लहूँ प्रभु! अन्य कुछ भी नहिं चहुँ ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

पूज्य ज्ञान वैराग्य है, पूजक श्रद्धावान |
पूजा गुण अनुराग अरु, फल है सुख अम्लान ||
।। पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

BHAKTAMAR STOTRA MAHIMA / भक्तामर-स्तोत्र महिमा

पं. हीरालाल जैन ‘कौशल’ श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात, भक्ति मन लाई | सब संकट जायँ नशाई || जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे | चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१|| मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था | मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२|| उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था | हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३|| मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे | क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४|| मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था | हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५|| सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके | कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६|| राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था | मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७|| जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है | जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...