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SHRI RISHABHDEV JIN POOJA (RANILA) / श्री ऋषभदेव जिन पूजा (रानीला)

SHRI RISHABHDEV JIN POOJA (RANILA) / श्री ऋषभदेव जिन पूजा (रानीला)
कविश्री ताराचंद ‘प्रेमी’
हे कर्मभूमि के अधिनायक, जग-जन के जीवन-ज्योतिधाम |
वाणी में श्रुत-जिनवाणी का, झरता अविरल अमृत ललाम ||
हे परमशांत जिन वीतराग! दाता जग में अक्षय-विराम |
हे रानीला के ऋषभदेव! चरणों में हो शत-शत प्रणाम ||
हे कृपासिन्धु करुणानिधान, जीवन में समताभाव भरो |
आओ तिष्ठो मम अंतर में, हे आदि प्रभो! हे आदि प्रभो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)!
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)!
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)!

हे देव! हमारे मन के, कलुषित भावों को निर्मल कर दो |
अंतर में पावन भक्ति-सुधा, का शीतल निर्मल-जल भर दोI |
कितने ही जीवन जीकर भी, संतप्त भटकता आया हूँ |
जल अर्पित करके चरणों में, प्रभु परम-पदारथ पाया हूँ |
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो |
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

रानीला की पावन माटी में, प्रकट भए जिनवर स्वामी |
पग थिरक उठे जय गूँज उठी, जय ऋषभदेव अंतरयामी |
चंदन की गंध सुगंध लिए, आताप मिटाने आया हूँ |
तेरे चरणों की पूजा से मैं, परम-पदारथ पाया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

तंदुल कर में लेकर आया, अक्षय विश्वास लिए उर में |
श्रद्धा के सुन्दर-भाव जगे, भक्ति के गीत भरे स्वर में ||
भव-भव में भटका व्याकुल-मन अक्षय-पद पाने आया हूँ |
आदीश्वर! तेरी पूजा से, मैं परम-पदारथ पाया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

संसार असार विनश्वर है, फिर भी ये विषय सताते हैं |
चहुँगति के घोर अंधेरे में, भव-प्राणी को भटकाते हैं ||
मम काम-कषाय मिटाने को, ये पुष्प सुगंधित लाया हूँ |
हे ऋषभ! तुम्हारी पूजा से, मैं परम-पदारथ पाया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

अगणित व्यंजन खा लेने पर, भी मिटी न मन की अभिलाषा |
ये क्षुधा-वेदनी कर्मों की, कैसी है जिनवर परिभाषा ||
हो जन्म-जन्म की क्षुधा शांत, नैवेद्य भावना लाया हूँ |
आदीश्वर! तेरे चरणों में, शाश्वत-सुख पाने आया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

है मोह-तिमिर का अंधकार, अंतर में दीप जलाऊँगा |
भव-बंध कटे आलोक जगे, भावों की ज्योति जगाऊँगा |
यह दीप समर्पण करके मैं, मिथ्यात्व मिटाने आया हूँ |
आदीश्वर! तेरे चरणों में, शाश्वत-सुख पाने आया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

भोगों में ऐसा भ्रमित रहा, पल भर स्थिर नहीं हो पाया |
मिथ्या-मति से भव-भव घूमा, समता रस पान न कर पाया |
यह धूप दहन करके भगवन्, भव-कर्म जलाने आया हूँ |
आदीश्वर तेरे चरणों में, शाश्वत-सुख पाने आया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

फल अर्पित कर फल पाऊँगा, फल मोक्ष-महाफलदायी है |
फल से ही शुभ-जीवन मिलता, निष्फल-जीवन दु:खदायी है ||
फल-अंजु समर्पण करके मैं, वरदान मुक्ति का पाऊँगा |
चरणों की पूजा से जिनेन्द्र, फिर परम-पदारथ पाऊँगा ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

मन और वचन, हे वीतराग प्रभु! अष्ट-द्रव्य से अर्घ्य बना |
पावन तन-मन अरु भाव शुद्ध, चरणों में अर्पित नेह बढ़ा ||
होगा अनंत-सुख प्राप्त मुझे, विश्वास हृदय में लाया हूँ |
तेरे चरणों की पूजा से, मैं परम-पदारथ पाया हूँ ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

आसोज-सुदी-दशमी के दिन, रानीला-वासी धन्य हुए |
प्रमुदित हों जय-जयकार करें, जब आदि प्रभु जी प्रकट भये |
चहुँदिश से भक्तजन आकर के चरणों में अर्घ्य चढ़ाते हैं |
दुख रोगशोक भय सब तजकर, निजजीवन सफल बनाते हैं ||
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अंतर में वास करो |
हे महिमा-मंडित वीतराग! जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो ||
ॐ ह्रीं श्री देवा​धिदेव भगवान ऋषभदेव आसौज शुक्ल दशमी को चौबीस भगवान सहित प्रगटे, तिन्हें अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१०।

पंचकल्याणक-अर्घ्यावली

(दोहा)

अवधिज्ञान से इन्द्र ने, लिया हृदय में जान |
देव अयोध्या को चले, पूजें गर्भ-कल्याण ||

(गीता छन्द)

मरुदेवी माँ के महल, मंगलाचार सखियाँ गा रहीं |
गरिमा अयोध्यानगर की, लख चाँदनी शरमा रही ||
रत्नों की वरषा हो रही, नृप-नाभि हर्षित हो रहे |
जिनराज मंगल-जन्म के, शुभ-चिह्न अंकित हो रहे ||
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

नगर अयोध्या में हुआ, आदि-प्रभु अवतार |
हर देहरी दीपावली, घर-घर मंगलाचार ||
जब प्रथम तीर्थंकर ऋषभ की, सृष्टि में जय-जय-जय हुई |
शचि बाल-जिनवर छवि निरखति, मुदित मन हर्षित हुई ||
सौधर्म प्रभु के जन्म-मंगल, का सुयश गाने लगा |
आनंदमय अनुभूति की, रस-वृष्टि बरसाने लगा ||
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

अंत देख नीलांजना का, जागृत हुआ विराग |
चले सम्पदा तज श्रमण, राज-काज सब त्याग ||
वैराग्य की आई घड़ी, जिन-ऋषभ जब वन को चले |
कंठों से जय-जयकार गूँजी, साधना-दीपक जले ||
षट्-मास बीते वन में, तप का प्रबल-साम्राज्य था |
पशु-पक्षियों की भावना में, भी विरक्ति-विभाव था ||
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-नवम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।

तभी ज्ञान-दीपक जले, धवल हुआ भूलोक |
कण-कण में विचरित हुआ, दिवा-दिव्य आलोक ||
कैवल्य की किरणें जगीं, निर्झर स्वयं झरने लगे |
अरिहंत-जिन आराधना, सुर-असुर सब करने लगे ||
वाणी में जनकल्याण का, सत्यं-शिवं संदेश था |
ये सकल अर्हन्त-परमात्मा, न राग था न द्वेष था ||
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

बढ़े मुक्तिपथ पर चरण, गिरि-कैलाश सुथान |
ऋषभ-जिनेश्वर ने जहाँ, पाया पद-निर्वाण ||
हिम-सा प्रखर कैलाशगिरि, छू चरण पावन हो गया |
जिन-आदि का वह सत्य शाश्वत-स्वर सनातन हो गया ||
संसार को कर्त्तव्य-पथ का, ज्ञान विकसित हो गया |
जिन-आदिब्रह्मा-आदिशिव, अविकार-जिनवर हो गया ||
ॐ ह्रीं माघकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

जयमाला

(दोहा)

नाभिराय-नंदन सदा, वंदन करूँ त्रिकाल |
भव-भव की पीड़ा हरो, मरुदेवी के लाल ||

(चौबोला छन्द)

हे जन-जीवन के युग-दृष्टा, समतादाता जिन-प्रथम देव |
संस्कृति-सृष्टि के उन्नायक, पुरुषार्थ साध्य-साधन-विवेक ||

जिन-ऋषभ तुम्हारी वाणी का, सर्वत्र गूँजता चमत्कार |
जन-जन जीवन के सूत्रधार, प्रणमें जिन-चरनों बार-बार ||

हे आदि-विधाता तुमने ही, असि मसि कृषि का वरदान दिया |
वाणिज्य शिल्प विद्या-विवेक, जीवन का अनुपम-ज्ञान दिया ||

हे नाभिराय के पुत्ररत्न, माँ मरुदेवी के मुदित भाल |
हे प्रथम जिनेश्वर तीर्थंकर, मुक्तिपथ के पंथी विशाल ||

हे तीन लोक के जननायक, सर्वज्ञदेव जिन वीतराग |
हे मानवता के मुक्तिदूत, अंतर में उभरे अमर राग ||

हित-मित वचनों को हे जिनेश! नियति सदा दोहरायेगी |
हे परमपिता! हे परम ईश! यह प्रकृति सदा गुण गाएगी ||

रानीला की माटी में जिन-प्रतिमा प्रगटी अतिशयकारी |
आकर्षक सुन्दर वीतराग-छवि, लगती है मन को प्यारी ||

प्रस्तर में जैसे शिल्पी ने, छैनी से प्राण फूँक डाले |
तेईस तीर्थंकर साथ बीच में, ऋषभ जगत् के रखवाले ||

इतना प्रभाव! दर्शन करके, सब पाप-कर्म कट जाते हैं |
जो भी रानीला जाते हैं, मनवाँछित-फल पा जाते हैं ||

सम्पूर्ण देश में ऐसी मन-मोहक प्रतिमा कहीं ना पाती है |
थोड़ा-सा ध्यान लगाते ही, वो अपने आप बुलाती है ||

(चौपाई छन्द)

प्रथम आदि-जिन आदि-विधाता, कर्मभूमि के ज्ञायक ज्ञाता |
दिया सृष्टि को दिव्य-दिवाकर, ज्ञानपुंज हे! ज्ञानसुधाकर ||

धरम-धरा के जन-उन्नायक, मोक्ष-पंथ के शिव जिन-नायक |
प्रथम तीर्थस्वामी तीर्थंकर, नमूँ नमूं जिन ऋषभ-जिनेश्वर ||

पावन पुण्यभूमि हरियाणा, रानीला है ग्राम सुहाना |
प्रीति परस्पर जन-मन-भावन, जहाँ बन गई माटी चंदन ||

चमत्कार था विस्मयकारी, चकित रह गए सब नर-नारी |
उदित हुआ माटी में सोना, जैसे सुन्दर पुष्प सलौना ||

प्रगट भये जिन अतिशयकारी, बाल-चन्द्रमा-सी छवि प्यारी |
नृत्य करें जन नंदन-कानन, हर्षित इन्द्रों के इन्द्रासन ||

शोर मच गया हर जन-मन में, गूँजी जय-जयकार भुवन में |
हर जन-मन दर्शन को आया, मनचाहा फल उसने पाया ||

जो भी नियमपूर्वक ध्यावे, रोग-शोक-संकट कट जावे |
तारा ‘प्रेमी’ दास तुम्हारा, जन्म-जरा से हो निस्तारा ||

(धत्तानंद)

आदीश्वर स्वामी, त्रिभुवननामी, कोटि नमामि जगख्याता |
हे पाप-निवारक, जन-उद्धारक, शिवमग-धारक पथ-ज्ञाता ||
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

ऋषभ-चरण वन्दन करें, नित-प्रति सकल समाज |
भक्ति-भाव आराधना, सिद्ध होंय सब काज ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।

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छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...