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सिद्ध पूजा - Siddh Pooja


ऊर्ध्वाधो रयुतं सविन्दु सपरं ब्रह्म-स्वरावेष्टितं,
वर्गापूरित-दिग्गताम्बुज-दलं तत्संधि-तत्वान्वितं |
अंतः पत्र-तटेष्वनाहत-युतं ह्रींकार-संवेष्टितं |
देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभ-कण्ठी-रवः ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |


निरस्तकर्म-सम्बन्धं सूक्ष्मं नित्यं निरामयम् |
वन्देऽहं   परमात्मानममूर्त्तमनुपद्रवम् ||
 (सिद्धयन्त्र की स्थापना कर वन्दन करें | )
सिद्धौ निवासमनुगं परमात्म-गम्यं,
हान्यादिभावरहितं भव-वीत-कायम् |
रेवापगा-वर-सरो-यमुनोद्भवानां,
नीरैर्यजे कलशगैर्-वरसिद्ध-चक्रम् ||
ॐ ह्रीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |1|
आनन्द-कन्द-जनकं घन-कर्म-मुक्तं,
सम्यक्त्व-शर्म-गरिमं जननार्तिवीतम् |
सौरभ्य-वासित-भुवं हरि-चन्दनानां,
गन्धैर्यजे परिमलैर्वर-सिद्ध-चक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा |2|
सर्वावगाहन-गुणं सुसमाधि-निष्ठं,
सिद्धं स्वरुप-निपुणं कमलं विशालम् |
सौगन्ध्य-शालि-वनशालि वराक्षतानां,
पुंजैर्यजे शशिनिभैर्वरसिद्धचक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा |3|
नित्यं स्वदेह- परिमाणमनादिसंज्ञं,
द्रव्यानपेक्षममृतं मरणाद्यतीतम् |
मन्दार कुन्द कमलादि वनस्पतीनां,
पुष्पैर्यजे शुभतमै र्वरसिद्धचक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा |4|
ऊर्ध्व-स्वभाव-गमनं सुमनो-व्यपेतं,
ब्रह्मादि-बीज-सहितं गगनावभासम् |
क्षीरान्न-साज्य-वटकै रसपूर्णगर्भै -
र्नित्यं यजे चरुवरैर्वसिद्धचक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा |5|
आंतक-शोक-भयरोग-मद प्रशान्तं,
निर्द्वन्द्व-भाव-धरणं महिमा-निवेशम् |
कर्पूर-वर्ति-बहुभिः कनकावदातै -
र्दीपैर्यजे रुचिवरैर्वरसिद्धचक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा |6|
पश्यन्समस्त भुवनं युगपन्नितान्तं,
त्रैकाल्य-वस्तु-विषये निविड़ प्रदीपम् |
सद्द्रव्यगन्ध घनसार विमिश्रितानां,
धूपैर्यजे परिमलैर्वर सिद्धचक्रम ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा |7|
सिद्धासुरादिपति यक्ष नरेन्द्रचक्रै -
र्ध्येयं शिवं सकल भव्य जनैः सुवन्द्यम् |
नारड़ि्ग पूग कदली फलनारिकेलैः,
सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा |8|
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं,
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् |
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |9|
ज्ञानो पयो गविमलं विशदात्मरुपं,
सूक्ष्म-स्वभाव-परमं यदनन्तवीर्यम् |
कर्मौघ-कक्ष-दहनं सुख-शस्यबीजं,
वन्दे सदा निरुपमं वर-सिद्धचक्रम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
त्रैलोक्येश्वर-वन्दनीय-चरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वतीं,
यानाराध्य निरुद्ध-चण्ड-मनसः सन्तोऽपि तीर्थंकरा |
सत्सम्यक्त्व-विबोध-वीर्य्य-विशदाऽव्याबाधताद्यैर्गुणै-
र्युक्तांस्तानिह तोष्टवीमि सततं सिद्धान् विशुद्धोदयान् ||
 जयमाला
विराग सनातन शांत निरंश, निरामय निर्भय निर्मल हंस |
सुधाम विबोध-निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ||
विदुरित-संसृति-भाव निरंग, समामृत-पूरित देव विसंग |
अबंध कषाय-विहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
निवारित-दुष्कृतकर्म-विपाश, सदामल-केवल-केलि-निवास |
भवोदधि-पारग शांत विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
अनंत-सुखामृत-सागर-धीर, कंलक-रजो-मल-भूरि-समीर |
विखण्डित-काम विराम-विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
विकार विवर्जित तर्जितशोक, विबोध-सुनेत्र-विलोकित-लोक |
विहार विराव विरंग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
रजोमल-खेद-विमुक्त विगात्र, निरंतर नित्य सुखामृत-पात्र |
सुदर्शन राजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
नरामर-वंदित निर्मल-भाव, अनंत मुनीश्वर पूज्य विहाव |
सदोदय विश्व महेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापरशंकर सार वितंद्र |
विकोप विरुप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
जरा-मरणोज्झित-वीत-विहार, विचिंतित निर्मल निरहंकार |
अचिन्त्य-चरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ |
अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ||
घत्ता
असम-समयसारं चारु-चैतन्य चिह्नं,
पर-परणति-मुक्तं पद्मनंदीन्द्र-वन्द्यम् |
निखिल-गुण-निकेतं सिद्धचक्रं विशुद्धं,
स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम् ||
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
 अडिल्ल छंद
अविनाशी अविकार परम-रस-धाम हो,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो |
शुद्धबुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो,
जगत-शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो ||
ध्यान अग्निकर कर्म कलंक सबै दहे,
नित्य निरंजन देव स्वरुपी ह्वै रहे |
ज्ञायक ज्ञेयाकार ममत्व निवार के |
सो परमातम सिद्ध नमूँ सिर नाय के ||
अविचल ज्ञान प्रकाशते, गुण अनन्त की खान |
ध्यान धरे सो पाइए, परम सिद्ध भगवान ||
अविनाशी आनन्द मय, गुण पूरण भगवान |
शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ जान ||
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत् |

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