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सोलहकारण पूजा || SOLAHKAARAN POOJA

 || सोलहकारण पूजा ||
कविश्री द्यानतराय
(ज्ञान कवि की अर्घ्यावलि सहित)
सोलह-कारण भाय तीर्थंकर जे भये |
हरषे इन्द्र अपार मेरु पे ले गये ||
पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चाव सों |
हमहू षोडश कारन भावें भाव सों ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादि – षोडशकारणानि ! अत्र अवतर ! अवतर ! संवौषट् ! ( आह्वाननम् )
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादि – षोडशकारणानि ! अत्र तिष्ठ ! तिष्ठ ! ठ!: ठ:! ( स्थापनम् )
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादि – षोडशकारणानि ! अत्र मम सन्निहितो भव ! भव ! वषट् ! ( सन्निधिकरणम् )

कंचन-झारी निरमल नीर, पूजौं जिनवर गुन-गंभीर |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि -विनयसम्पन्नता-शीलव्रतेष्वनतिचार-अभीक्ष्णज्ञानोपयोग- संवेग-शक्तितस्त्याग-शक्तितस्तप-
साधुसमाधि-वैयावृत्यकरण-अर्हद्भक्ति-आचार्यभक्ति-बहुश्रुतभक्ति-प्रवचनभक्ति आवश्यकापरिहाणि-मार्गप्रभावना- प्रवचनवात्सल्य इति
षोडशकारणेभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

चंदन घसौं कपूर मिलाय, पूजौं श्रीजिनवर के पाय |
परमगुरु हो जय जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

तंदुल धवल सुगंध अनूप पूजौं जिनवर तिहुँ-जग-भूप |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

फूल सुगन्ध मधुप-गुंजार, पूजौं जिनवर जग-आधार |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

सद नेवज बहुविधि पकवान, पूजौं श्रीजिनवर गुणखान |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

दीपक-ज्योति तिमिर छयकार पूजौं श्रीजिन केवलधार |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

अगर कपूर गंध शुभ खेय श्रीजिनवर आगे महकेय |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

श्रीफल आदि बहुत फलसार, पूजौं जिन वाँछित-दातार |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

जल-फल आठों दरब चढ़ाय,’द्यानत’ वरत करौं मन-लाय |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

प्रत्येक भावना के अर्घ्य (सवैया तेर्इसा)
दर्शन शुद्ध न होवत जो लग, तो लग जीव मिथ्याती कहावे |
काल अनंत फिरे भव में, महादु:खन को कहुँ पार न पावे ||
दोष पचीस रहित गुण-अम्बुधि, सम्यग्दरशन शुद्ध ठरावे |
‘ज्ञान’ कहे नर सोहि बड़ो, मिथ्यात्व तजे जिन-मारग ध्यावे ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

देव तथा गुरुराय तथा, तप संयम शील व्रतादिक-धारी |
पाप के हारक काम के छारक, शल्य-निवारक कर्म-निवारी ||
धर्म के धीर कषाय के भेदक, पंच प्रकार संसार के तारी |
‘ज्ञान’ कहे विनयो सुखकारक, भाव धरो मन राखो विचारी ||
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

शील सदा-सुखकारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे ।
दानव-देव करें तसु सेव, विषानल भूत-पिशाच पतीजे ।।
शील बड़ो जग में हथियार, जु शील को उपमा काहे की दीजे ।
‘ज्ञान’ कहे नहिं शील बराबर, तातें सदा दृढ़-शील धरीजे ।।
ॐ ह्रीं निरतिचार-शीलव्रत-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।

ज्ञान सदा जिनराज को भाषित, आलस-छोड़ पढ़े जो पढ़ावे |
द्वादश-दोउ-अनेकहुँ भेद, सुनाम मती-श्रुति पंचम पावे ||
चारहुँ भेद निरंतर भाषित, ज्ञान-अभीक्षण शुद्ध कहावे |
‘ज्ञान’ कहे श्रुत-भेद अनेक जु, लोकालोक हि प्रगट दिखावे ||
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संगम दुर्जन ये सब खोटो |
मंदिर सुन्दर काय सखा, सबको हमको इमि अंतर मोटो ||
भाउ के भाव धरी मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो |
‘ज्ञान’ कहे शिव-साधन को जैसो, साह को काम करे जु बणोटो ||
ॐ ह्रीं संवेग-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

पात्र- चतुर्विध देख अनूपम, दान- चतुर्विध भावसुं दीजे |
शक्ति-समान अभ्यागत को, अति-आदर से प्रणिपत्य करीजे ||
देवत जे नर दान सुपात्रहिं, तास अनेकहिं कारण सीझें |
बोलत ‘ज्ञान’ देहि शुभ-दान जु, भोग-सुभूमि महासुख लीजे ||
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

कर्म-कठोर गिरावन को निज, शक्ति-समान उपोषण कीजे |
बारह-भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे ||
भाव धरी तप-घोर करी, नर-जन्म सदा फल काहे न लीजे |
‘ज्ञान’ कहे तप जे नर भावत, ताके अनेकहिं पातक छीजे ||
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अघ छीजे |
साधु की संगति धर्म को कारण, भक्ति करे परमारथ सीजे ||
साधुसमाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे |
‘ज्ञान’ कहे यह साधु बड़ो, गिरिश्रृंग-गुफा-बिच जाय विराजे ||
ॐ ह्रीं साधुसमाधि- भावनाये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

कर्म के योग व्यथा-उदये, मुनिपुंगव कुन्त सुभेषज कीजे |
पित्त-कफानिल साँस, भगंदर, ताप को शूल महागद छीजे ||
भोजन-साथ बनाय के औषध, पथ्य-कुपथ्य-विचार के दीजे |
‘ज्ञान’ कहे नित ऐसी वैय्यावृत्य करे तस देव-पतीजे ||
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

देव सदा अरिहंत भजो जर्इ, दोष -अठारा किये अतिदूरा |
पाप पखाल भये अतिनिर्मल, कर्म-कठोर किए चकचूरा ||
दिव्य-अनंत-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा |
‘ज्ञान’ कहे जिनराज अराधो, निरंतर जे गुण-मंदिर पूरा ||
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्ति-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१०।

देवत ही उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ-धारी |
देश-विदेश विहार करें, दश-धर्म धरें भव-पार उतारी ||
ऐसे अचारज भाव-धरी भज, सो शिव चाहत कर्म-निवारी |
‘ज्ञान’ कहे गुरु-भक्ति करो नर, देखत ही मनमाँहि विचारी ||
ॐ ह्रीं आचार्यभक्ति-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।११।

आगम-छन्द-पुराण पढ़ावत, साहित तर्क-वितर्क बखाने |
काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने ||
ऐसे बहुश्रुत साधु मुनीश्वर, जो मन में दोउ भाव न आने |
बोलत ‘ज्ञान’ धरी मन सान जु, भाग्य विशेषतैं ज्ञानहि साने ||
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्ति-भावनायै: नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१२।

द्वादश-अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे |
वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मनमाँहि ठरावे ||
पढ़ बहुभाव लिखो निज अक्षर, भक्ति करी बड़ि-पूज रचावे |
‘ज्ञान’ कहे जिन-आगम-भक्ति, करो सद्-बुद्धि बहुश्रुत पावे ||
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१३।

भाव धरे समता सब जीवसु, स्तोत्र पढ़े मुख से मनहारी |
कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसु, वंदन देव-तणों भवतारी ||
ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ-बेर करे पड़कम्मन भारी |
‘ज्ञान’ कहे मुनि सो धनवंत जु, दर्शन-ज्ञान-चरित्र-उघारी ||
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१४।

जिन-पूजा रचे परमारथसूं, जिन-आगे नृत्य-महोत्सव ठाने |
गावत गीत बजावत ढोल, मृदंग के नाद सुधांग बखाने ||
संग प्रतिष्ठा रचे जल-जातरा, सद्गुरु को साहमो कर आने |
‘ज्ञान’ कहे जिन-मार्ग-प्रभावन, भाग्य-विशेषसु जानहिं जाने ||
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१५।

गौरव-भाव धरी मन से, मुनि-पुंगव को नित वत्सल कीजे |
शील के धारक भव्य के तारक, तासु निरंतर स्नेह धरीजे ||
धेनु यथा निज बालक को, अपने जिय छोड़ि न और पतीजे |
‘ज्ञान’ कहे भवि-लोक सुनो, जिन वत्सल-भाव धरे अघ छीजे ||
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य-भावनायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१६।

(जाप्य मंत्र)
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यै नम:, ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै नम:, ॐ ह्रीं शीलव्रताय नम:, ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय नम:, ॐ ह्रीं संवेगाय नम:,
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागाय नम:, ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे नम:, ॐ ह्रीं साधुसमाध्यै नम:, ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरणाय नम:, ॐ ह्रीं अर्हद्भक्त्यै नम:, ॐ ह्रीं आचार्यभक्त्यै नम:,
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्त्यै नम:, ॐ ह्रीं प्रवचनभक्त्यै नम:, ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाण्यै नम:, ॐ ह्रीं मार्गप्रभावनायै नम:, ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यै नम:।

जयमाला
(दोहा)
षोडश -कारण गुण करे, हरे चतुर्गति-वास |
पाप-पुण्य सब नाशके, ज्ञान-भानु परकाश ||
(चौपार्इ 16 मात्रा)
दरश-विशुद्धि धरे जो कोर्इ, ताको आवागमन न होर्इ |
विनय महाधारे जो प्राणी, शिव-वनिता की सखी बखानी ||१||
शील सदा दृढ़ जो नर पाले, सो औरन की आपद टाले |
ज्ञानाभ्यास करे मनमाहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ||२||
जो संवेग-भाव विस्तारे, सुरग-मुकति-पद आप निहारे |
दान देय मन हरष विशेषे, इहभव जस परभव सुख पेखे ||३||
जो तप-तपे खपै अभिलाषा, चूरे करम-शिखर गुरु भाषा |
साधु-समाधि सदा मन लावै, तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावे ||४||
निश-दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया |
जो अरहंत-भगति मन आने, सो जन विषय - कषाय न जाने ||५||
जो आचारज-भगति करे है, सो निर्मल आचार धरे है |
बहुश्रुतवंत-भगति जो करर्इ, सो नर संपूरन श्रुत धरर्इ |६|

प्रवचन-भगति करे जो ज्ञाता, लहे ज्ञान परमानंद-दाता |
षट्-आवश्य काल जो साधे, सोही रत्न-त्रय आराधे ||७||
धरम-प्रभाव करैं जे ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी |
वत्सल-अंग सदा जो ध्यावे, सो तीर्थंकर-पदवी पावे ||८||
(दोहा)
एही सोलह-भावना, सहित धरे व्रत जोय |
देव-इन्द्र-नर-वंद्य-पद, ‘द्यानत’ शिव-पद होय ||
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

(सवैया तेर्इसा)
सुन्दर षोडशकारण-भावना, निर्मल-चित्त-सुधारक धारे |
कर्म अनेक हने अतिदुर्द्धर, जन्म-जरा-भय मृत्यु निवारे ||
दु:ख-दरिद्र-विपत्ति हरे, भवसागर को पर पार उतारे |
‘ज्ञान’ कहे यही षोडशकारण, कर्मनिवारण, सिद्धि सु धारे ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।

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|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...