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विशापहार स्त्रोत्रं | Vishapahar Stotra

नमौं नाभिनंदन बली, तत्त्व-प्रकाशनहार|
चतुर्थकाल की आदि में, भये प्रथम-अवतार ||१||

स्वात्मस्थित: सर्वगत: समस्त-,
व्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्ग:।
प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्य:,
पायादपायात्पुरुष: पुराण:॥ १॥
निज-आतम में लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे |
जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारे ||
बहुत काल के हो पुनि जरा न देह तिहारी |
ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी ||१||

परैरचिन्त्यं युगभारमेक:,
स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्य:।
स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभो न भानो:,
किमप्रवेशे विशति प्रदीप:॥२॥
पर करि के जु अचिंत्य भार जग को अति भारो |
सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो ||
करि न सके जोगिंद्र स्तवन मैं करिहों ताको |
भानु प्रकाश न करै दीप तम हरै गुफा को ||२||

तत्त्याज शक्र: शकनाभिमानं,
नाहं त्यजामि स्तवनानुबन्धम्।
स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं,
वातायनेनेव निरूपयामि ॥३॥
स्तवन करन को गर्व तज्यो सक्री बहुज्ञानी |
मैं नहिं तजौं कदापि स्वल्प ज्ञानी शुभध्यानी ||
अधिक अर्थ का कहूँ यथाविधि बैठि झरोके |
जालांतर धरि अक्ष भूमिधर को जु विलोके ||३||

त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो,
विद्वानशेषं निखिलैरवेद्य:।
वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्य:,
स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु॥ ४॥
सकल जगत् को देखत अर सबके तुम ज्ञायक |
तुमको देखत नाहिं नाहिं जानत सुखदायक ||
हो किसाक तुम नाथ और कितनाक बखानें |
तातें थुति नहिं बने असक्ती भये सयाने ||४||

व्यापीडितं बालमिवात्मदोषै-
रुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वम्।
हिताहितान्वेषणमान्द्यभाज: ,
सर्वस्य जन्तोरसि बालवैद्य:॥५॥
बालकवत निज दोष थकी इहलोक दु:खी अति |
रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ||
हित अनहित की समझ नाहिं हैं मंदमती हम |
सब प्राणिन के हेत नाथ तुम बाल-वैद सम ||५||

दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा-
नद्यश्व इत्यच्युतदर्शिताश:।
सव्याजमेवं गमयत्यशक्त:,
क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय॥ ६॥
दाता हरता नाहिं भानु सबको बहकावत |
आज-कल के छल करि नितप्रति दिवस गुमावत ||
हे अच्युत! जो भक्त नमें तुम चरन कमल को |
छिनक एक में आप देत मनवाँछित फल को ||६||

उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि,
त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दु:खं।
सदावदातद्युतिरेकरूप -
स्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि॥ ७॥
तुम सों सन्मुख रहै भक्ति सों सो सुख पावे |
जो सुभावतें विमुख आपतें दु:खहि बढ़ावै ||
सदा नाथ अवदात एक द्युतिरूप गुसांई |
इन दोन्यों के हेत स्वच्छ दरपणवत् झाँई ||७||

अगाधताब्धे: स यत: पयोधिर्
मेरोश्च तुङ्गा प्रकृति: स यत्र।
द्यावा पृथिव्यो: पृथुता तथैव,
व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि॥ ८॥
है अगाध जलनिधी समुद्र जल है जितनो ही |
मेरु तुंग सुभाव सिखरलों उच्च भन्यो ही ||
वसुधा अर सुरलोक एहु इस भाँति सई है |
तेरी प्रभुता देव भुवन कूं लंघि गई है ||८||

तवानवस्था परमार्थतत्त्वं,
त्वया न गीत: पुनरागमश्च।
दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषीर्
विरुद्धवृत्तोऽपि समञ्जसस्त्वम्॥ ९॥
है अनवस्था धर्म परम सो तत्त्व तुमारे |
कह्यो न आवागमन प्रभू मत माँहिं तिहारे ||
इष्ट पदारथ छाँड़ि आप इच्छति अदृष्ट कौं |
विरुधवृत्ति तव नाथ समंजस होय सृष्ट कौं ||९||

स्मर: सुदग्धो भवतैव तस्मिन्,
नुद्धूलितात्मा यदि नाम शम्भु:।
अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णु:,
किं गृह्यते येन भवानजाग:॥ १०॥
कामदेव को किया भस्म जगत्राता थे ही |
लीनी भस्म लपेटि नाम संभू निजदेही ||
सूतो होय अचेत विष्णु वनिताकरि हार्यो |
तुम को काम न गहे आप घट सदा उजार्यो ||१०||

स नीरजा: स्यादपरोऽघवान्वा,
तद्दोषकीत्र्यैव न ते गुणित्वं।
स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव!,
स्तोकापवादेन जलाशयस्य॥११॥
पापवान वा पुन्यवान सो देव बतावे |
तिनके औगुन कहे नाहिं तू गुणी कहावे ||
निज सुभावतैं अंबु-राशि निज महिमा पावे |
स्तोक सरोवर कहे कहा उपमा बढ़ि जावे ||११||

कर्मस्थितिं जन्तुरनेक भूमिं,
नयत्यमुं सा च परस्परस्य।
त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ,
जिनेन्द्र! नौनाविकयोरिवाख्य:॥१२॥
कर्मन की थिति जंतु अनेक करै दु:खकारी |
सो थिति बहु परकार करै जीवनकी ख्वारी ||
भवसमुद्र के माँहिं देव दोन्यों के साखी |
नाविक नाव समान आप वाणी में भाखी ||१२||

सुखाय दु:खानि गुणाय दोषान्,
धर्माय पापानि समाचरन्ति।
तैलाय बाला: सिकतासमूहं,
निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीया:॥१३॥
सुख को तो दु:ख कहे गुणनिकूं दोष विचारे |
धर्म करन के हेत पाप हिरदे विच धारे ||
तेल निकासन काज धूलि को पेलै घानी |
तेरे मत सों बाह्य ऐसे ही जीव अज्ञानी ||१३||

विषापहारं मणिमौषधानि,
मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च।
भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति,
पर्यायनामानि तवैव तानि॥१४॥
विष मोचै ततकाल रोग को हरै ततच्छन |
मणि औषधी रसांण मंत्र जो होय सुलच्छन ||
ए सब तेरे नाम सुबुद्धी यों मन धरिहैं |
भ्रमत अपरजन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ||१४||
चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं
देव: कृतश्चेतसि येन सर्वम्।
हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं
सुखेन जीवत्यपि चित्तबाह्य:॥१५॥
किंचित् भी चितमाँहि आप कछु करो न स्वामी |
जे राखे चितमाँहिं आपको शुभ-परिणामी ||
हस्तामलकवत् लखें जगत् की परिणति जेती |
तेरे चित के बाह्य तोउ जीवै सुख सेती ||१५||

त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी,
स्वामीतिसंख्यानियतेरमीषाम् ।
बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यं-,
स्तेऽन्येऽपि चेद्वयाप्स्यदमूनपीदम्॥१६॥
तीन लोक तिरकाल माहिं तुम जानत सारी |
स्वामी इनकी संख्या थी तितनी हि निहारी ||
जो लोकादिक हुते अनंते साहिब मेरा |
तेऽपि झलकते आनि ज्ञान का ओर न तेरा ||१६||

नाकस्य पत्यु: परिकर्म रम्यं,
नागम्यरूपस्य तवोपकारि।
तस्यैव हेतु: स्वसुखस्य भानो-,
रुद्विभ्रतच्छत्रमिवादरेण॥१७॥
है अगम्य तव रूप करे सुरपति प्रभु सेवा |
ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा ||
भक्ति तिहारी नाथ इंद्र के तोषित मन को |
ज्यों रवि सन्मुख छत्र करे छाया निज तन को ||१७||

क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेश:
स चेत्किमिच्छा प्रतिकूलवाद:।
क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं
तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते ॥१८॥
वीतरागता कहाँ कहाँ उपदेश सुखाकर |
सो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर ||
प्रतिकूली भी वचन जगत् कूँ प्यारे अति ही |
हम कछु जानी नाहिं तिहारी सत्यासति ही ||१८||

तुङ्गात्फलं यत्तदकिंचनाच्च
प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादे:।
निरम्भ - सोऽप्युच्चतमादिवाद्रेर्,
नैकापि निर्याति धुनी पयोधे:॥ १९॥
उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरनितैं |
जो प्रापति तुम थकी नाहिं सो धनेसुरनतैं ||
उच्च प्रकृति जल विना भूमिधर धूनी प्रकासै |
जलधि नीरतैं भर्यो नदी ना एक निकासै ||१९||

त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं
दध्रे यदिन्द्रो विनयेन तस्य।
तत्प्रातिहार्यं भवत: कुतस्त्यं
तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु॥ २०॥
तीन लोक के जीव करो जिनवर की सेवा |
नियम थकी कर दंड धर्यो देवन के देवा ||
प्रातिहार्य तो बनैं इंद्र के बनै न तेरे |
अथवा तेरे बनै तिहारे निमित परे रे ||२०||

श्रिया परं पश्यति साधु नि:स्व:,
श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्य:।
यथा प्रकाशस्थितमन्धकार-,
स्थायीक्षतेऽसौ न तथा तम:स्थम्॥ २१॥
तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुष हीन-धन |
धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखत पन ||
जैसैं तम-थिति किये लखत परकास-थिती कूं |
तैसैं सूझत नाहिं तमथिती मंदमती कूं ||२१||

स्ववृद्धि - नि:श्वासनिमेषभाजि
प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूढ:।
किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोध-,
स्वरूपमध्यक्षमवैति लोक:॥२२॥
निज वृध श्वासोच्छ्वास प्रगट लोचन टमकारा |
तिनकों वेदत नाहिं लोकजन मूढ़ विचारा ||
सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन |
सो किमि जान्यो जाय देव तव रूप विचच्छन ||२२||

तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव!,
त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य।
तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं,
पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति॥ २३॥
नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरत तने हैं |
कुलप्रकाशि कैं नाथ तिहारो स्तवन भनै हैं ||
ते लघु-धी असमान गुनन कों नाहिं भजै हैं |
सुवरन आयो हाथ जानि पाषान तजैं हैं ||२३||

दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूता:,
सुरासुरास्तस्य महान्स लाभ:।
मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोद्धु-
र्मूलस्य नाशो बलवद्विरोध:॥ २४॥
सुरासुरन को जीति मोह ने ढोल बजाया |
तीन लोक में किये सकल वशि यों गरभाया ||
तुम अनंत बलवंत नाहिं ढिंग आवन पाया |
करि विरोध तुम थकी मूलतैं नाश कराया ||२४||

मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्तेश् ,
चतुर्गतीनां गहनं परेण।
सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन
त्वं मा कदाचिद्भुजमालुलोक:॥ २५॥
एक मुक्ति का मार्ग देव तुमने परकास्या |
गहन चतुरगति मार्ग अन्य देवन कूँ भास्या ||
‘हम सब देखनहार’ इसीविधि भाव सुमिरिकैं |
भुज न विलोको नाथ कदाचित् गर्भ जु धरिकैं ||२५||

स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भ:,
कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विघात: ।
संसारभोगस्य वियोगभावो
विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये॥२६॥
केतु विपक्षी अर्क-तनो पुनि अग्नि तनो जल |
अंबुनिधी अरि प्रलय-काल को पवन महाबल ||
जगत्-माँहिं जे भोग वियोग विपक्षी हैं निति |
तेरो उदयो है विपक्ष तैं रहित जगत्-पति ||२६||

अजानतस्त्वां नमत: फलं य-
त्तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति।
हरिन्मणिं काचधिया दधानस्,
तं तस्य बुद्ध्या वहतो न रिक्त:॥२७॥
जाने बिन हूँ नमत आप को जो फल पावे |
नमत अन्य को देव जानि सो हाथ न आवे ||
हरी मणी कूँ काच काच कूँ मणी रटत हैं |
ताकी बुधि में भूल मूल्य मणि को न घटत है ||२७||

प्रशस्तवाचश्चतुरा: कषायैर्,
दग्धस्य देवव्यवहारमाहु:।
गतस्य दीपस्य हि नन्दितत्वं,
दृष्टं कपालस्य च मङ्गलत्वम्॥ २८॥
जे विवहारी जीव वचन में कुशल सयाने |
ते कषाय-मधि-दग्ध नरन कों देव बखानैं ||
ज्यों दीपक बुझि जाय ताहि कह ‘नंदि’ गयो है |
भग्न घड़े को कहैं कलस ए मँगलि गयो है ||२८||

नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं ,
हितं वचस्ते निशमय्य वक्तु:।
निर्दोषतां के न विभावयन्ति,
ज्वरेण मुक्त: सुगम: स्वरेण॥ २९॥
स्याद्वाद संजुक्त अर्थ को प्रगट बखानत |
हितकारी तुम वचन श्रवन करि को नहिं जानत ||
दोषरहित ए देव शिरोमणि वक्ता जग-गुरु |
जो ज्वर-सेती मुक्त भयो सो कहत सरल सुर ||२९||

न क्वापि वाञ्छा ववृते च वाक्ते,
काले क्व चित्कोऽपि तथा नियोग:।
न पूरयाम्यम्बुधिमित्युदंशु:,
स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ॥३०॥
बिन वांछा ए वचन आपके खिरैं कदाचित् |
है नियोग ए कोऽपि जगत् को करत सहज-हित ||
करै न वाँछा इसी चंद्रमा पूरो जलनिधि |
शीत रश्मि कूँ पाय उदधि जल बढै स्वयं सिधि ||३०||

गुणा गभीरा: परमा: प्रसन्ना,
बहुप्रकारा बहवस्तवेति।
दृष्टोऽयमन्त: स्तवनेन तेषां,
गुणो गुणानां किमत: परोऽस्ति॥ ३१॥
तेरे गुण-गंभीर परम पावन जगमाँहीं |
बहुप्रकार प्रभु हैं अनंत कछु पार न पाहीं ||
तिन गुण को अंत एक याही विधि दीसै |
ते गुण तुझ ही माँहिं और में नाहिं जगीसै ||३१||

स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या
स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि।
स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं
केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम्॥३२॥
केवल थुति ही नाहिं भक्तिपूर्वक हम ध्यावत |
सुमिरन प्रणमन तथा भजनकर तुम गुण गावत ||
चितवन पूजन ध्यान नमन करि नित आराधैं |
को उपाव करि देव सिद्धि-फल को हम साधैं ||३२||

ततस्त्रिलोकीनगराधिदेवं ,
नित्यं परं ज्योतिरनन्तशक्तिम्।
अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं
नमाम्यहं वन्द्यमवन्दितारम्॥३३॥
त्रैलोकी-नगराधिदेव नित ज्ञान-प्रकाशी |
परम-ज्योति परमात्म-शक्ति अनंती भासी ||
पुन्य पापतैं रहित पुन्य के कारण स्वामी |
नमौं नमौं जगवंद्य अवंद्यक नाथ अकामी ||३३||

अशब्दमस्पर्शमरूपगन्धं त्वां
नीरसं तद्विषयावबोधम्।
सर्वस्य मातारममेयमन्यैर्,
जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥३४॥
रस सुपरस अर गंध रूप नहिं शब्द तिहारे |
इनि के विषय विचित्र भेद सब जाननहारे ||
सब जीवन-प्रतिपाल अन्य करि हैं अगम्य जिन |
सुमरन-गोचर माहिं करौं जिन तेरो सुमिरन ||३४||

अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंघ्यं ,
निष्किञ्चनं प्रार्थितमर्थवद्भि:।
विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं,
पतिं जनानां शरणं व्रजामि॥ ३५॥
तुम अगाध जिनदेव चित्त के गोचर नाहीं |
नि:किंचन भी प्रभू धनेश्वर जाचत सोई ||
भये विश्व के पार दृष्टि सों पार न पावै |
जिनपति एम निहारि संत-जन सरनै आवै ||३५||

त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते
यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत्।
प्राग्गण्डशैल: पुनरद्रिकल्प:
पश्चान्न मेरु: कुलपर्वतोऽभूत्॥ ३६॥
नमौं नमौं जिनदेव जगत्-गुरु शिक्षादायक |
निजगुण-सेती भई उन्नती महिमा-लायक ||
पाहन-खंड पहार पछैं ज्यों होत और गिर |
त्यों कुलपर्वत नाहिं सनातन दीर्घ भूमिधर ||३६||

स्वयं प्रकाशस्य दिवा निशा वा,
न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम्।
न लाघवं गौरवमेकरूपं,
वन्दे विभुं कालकलामतीतम्॥ ३७॥
स्वयंप्रकाशी देव रैन दिनसों नहिं बाधित |
दिवस रात्रि भी छतैं आपकी प्रभा प्रकाशित ||
लाघव गौरव नाहिं एक-सो रूप तिहारो |
काल-कला तैं रहित प्रभू सूँ नमन हमारो ||३७||

इति स्तुतिं देव विधाय दैन्या-
द्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि।
छाया तरुं संश्रयत: स्वत: स्यात्,
कश्छायया याचितयात्मलाभ:॥३८॥
इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम |
जाचूँ कर न कदापि दीन ह्वै रागरहित तुम ||
छाया बैठत सहज वृक्षके नीचे ह्वै है |
फिर छाया कों जाचत यामें प्रापति क्वै है ||३८||

अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध-
स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम्।
करिष्यते देव तथा कृपां मे
को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरि:॥ ३९॥
जो कुछ इच्छा होय देन की तौ उपगारी |
द्यो बुधि ऐसी करूँ प्रीतिसौं भक्ति तिहारी ||
करो कृपा जिनदेव हमारे परि ह्वै तोषित |
सनमुख अपनो जानि कौन पंडित नहिं पोषित ||३९||

वितरति विहिता यथाकथञ्चि-
ज्जिन विनताय मनीषितानि भक्ति:।
त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषा-
द्दिशति सुखानि यशो धनंजयं च॥४०॥
यथा-कथंचित् भक्ति रचै विनयी-जन केई |
तिनकूँ श्रीजिनदेव मनोवाँछित फल देही ||
पुनि विशेष जो नमत संतजन तुमको ध्यावै |
सो सुख जस ‘धन-जय’ प्रापति है शिवपद पावै ||४०||

श्रावक ‘माणिकचंद’ सुबुद्धी अर्थ बताया |
सो कवि ‘शांतीदास’ सुगम करि छंद बनाया ||
फिरि-फिरिकै ऋषि-रूपचंद ने करी प्रेरणा |
भाषा-स्तोतर की विषापहार पढ़ो भविजना ||४१||

इस विषापहार-स्तोत्र में भगवान् ऋषभदेव की स्तुति है। यह स्तुति गंभीर, प्रौढ़ और अनूठी उक्तियों से भरपूर है। यह ग्रन्थ कवि की चतुराई से भरा हुआ है। हृदय-समुद्र को मथकर निकाला हुआ अमृत है। इसमें शब्दों का माधुर्य एवं अर्थों का गांभीर्य देखने को मिलता है। इस काव्य में स्थान-स्थान पर अलंकारों की छटा छिटकी हुई है।

एक बार कविराज धनंजय पूजन में लीन थे। उनके सुपुत्र को सर्प ने डस लिया। घर से कई बार समाचार आने पर भी वह निस्पृह-भाव से पूजन में पूर्णतया तन्मय रहे और पुत्र की कोई सुध नहीं ली। बच्चे को विष चढ़ रहा था, उनकी पत्नी ने कुपित होकर बच्चे को मंदिर में उनके सामने लाकर रख दिया। पूजन से निवृत्त होकर उन्होंने तत्काल भगवान् के सन्मुख ही विषापहार-स्तोत्र की रचना की, इधर स्तोत्र की रचना हो रही थी, उधर पुत्र का विष उतर रहा था। स्तोत्र पूरा होते होते बालक निर्विष होकर उठ बैठा । इससे धर्म की अपूर्व-प्रभावना हुई। श्रद्धा और मनोयोग-पूर्वक इसके पाठ से सुख-शांति मिलती है और सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं।

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 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...