हे दीनबन्धु श्रीपति, करुणा निधानजी |
अब मेरी विथा क्यों न हरो, बेर क्या लगी ||
मालिक हो दो जहान, के जिनराज आपही |
ऐबो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं ||
बे-जान में गुनाह जो मुझसे बना सही |
ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं ||1|| हे दीन...
दुख दर्द दिल का आपसे जिसने कहा सही |
मुश्किल कहर बहर से किया है भुजा गही ||
सब वेद औ पुराण में प्रमान है यही |
आनन्द कंद श्री जिनेन्द्र देव है तुही ||2|| हे दीन...
हाथी पै चढ़ी जाती थी सुलोचना सती |
गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गति ||
उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती |
भय टार के उबार लिया हे कृपापति ||3|| हे दीन...
पावक प्रचंड कुंड में उमंड जब रहा |
सीता से शपथ लेने को तब राम ने कहा ||
तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहां |
तत्काल ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा ||4|| हे दीन...
जब द्रौपदी का चीर दुशासन ने था गहा |
सब ही सभा के लोग कहते थे हहा-हहा ||
उस वक्त भीर पीर में तुमने करी सहा |
परदा ढका सती का सुजस जगत में रहा ||5|| हे दीन...
सम्यक्त्व शुद्ध शीलवंति चंदना सती |
जिसके नगीच लगती थी जाहिर रती-रती ||
बेड़े में पड़ी थी तुम्हें जग ध्यावती हती |
तब वीर-धीर ने हरी दुःख-द्वंद की गति ||6|| हे दीन...
श्रीपाल को सागर विषै जब सेठ गिराया |
उसकी रमा से रमने को बेहया आया ||
उस वक्त संकट में सती तुमको जो ध्याया |
दुख द्वंद फंद मेट के आनन्द बढ़ाया ||7|| हे दीन...
हरिशेण की माता को जब सौत सताया |
रथ जैन का तेरा चले पीछे यों बताया |
उस वक्त अनशन में सती तुमको जो ध्याया |
चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन का चलाया ||8|| हे दीन...
जब अंजना सती को हुआ गर्भ उजाला |
तब सासु ने कलंक लगा घर से निकाला ||
वन वर्ग के उपसर्ग में तब तुमको चितारा |
प्रभु भक्ति व्यक्त जानकै भय देव निवारा ||9|| हे दीन...
सोमा से कहा हो तू सती शील विशाला |
तो कुंभ में से काढ भला नाग जू काला ||
ततकाल ही वह नाग हुआ फूल की माला ||10|| हे दीन...
जब कुष्ट रोग हुआ था श्रीपाल राज को |
मैना सती तब आपको पूजा इलाज को ||
ततकाल ही सुंदर किया श्रीपाल राज को |
वह राजरोग भाग गया मुक्त राज को ||11|| हे दीन...
जब सेठ सुदर्शन को मृषा दोष लगाया |
रानी के कहे भूप ने सूली पे चढ़ाया ||
उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान में ध्याया |
सूली उतर उसको सिंहासन पै बिठाया ||12|| हे दीन...
जब सेठ सुधन्नाजी को वापी में गिराया |
ऊपर से दुष्ट था उसे वह मारने आया ||
उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान में ध्याया |
तत्काल ही जंजाल से तब उसको बचाया ||13|| हे दीन...
इक सेठ के घर से किया दारिद्र ने डेरा |
भोजन का ठिकाना भी न था सांझ सवेरा ||
उस वक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यान में घेरा |
घर उसके में तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा ||14|| हे दीन...
बलि वाद में मुनिराज सों जब पार न पाया |
तब रात को तलवार ले शठ मारने आया ||
मुनिराज ने निज ध्यान में मन लीन लगाया |
उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहां देव बचाया ||15|| हे दीन...
जब राम ने हनुमंत को गढ़ लंक पठाया |
सीता की खबर लेने को सह सैन्य सिधाया ||
मग बीच दो मुनिराज की लख आग में काया |
झट वारि मूसलधार से उपसर्ग मिटाया ||16|| हे दीन...
जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा |
घेरे में पड़ा था वह वज्रकर्ण विचारा ||
उस वक्त तुम्हें प्रेम से संकट में चितारा |
प्रभु वीर से सब पीर तहां तुरत निवारा ||17|| हे दीन...
रणपाल कुंवर के पड़ी थी पांव में बेरी |
उस वक्त तुम्हें ध्यान में ध्याया सबेरी ||
तत्काल ही सुकुमाल की सब झड़ पड़ी बेरी |
तुम राजकुंवर की सभी दुःख द्वंद निवेरी ||18|| हे दीन...
जब सेठ ने नन्दन को डसा नाग जु कारा |
उस वक्त तुम्हें पीर में धर धीर पुकारा ||
तत्काल ही उस बाल का विष भूरि उतारा |
वह जाग उठा सोके मानों सेज सकारा ||19|| हे दीन...
मुनि मान्तुन्ग को दई जब भूप ने पीड़ा |
ताले में किया बंद भरी लोह जंजीरा ||
मुनीश ने आदीश की थुति की है गम्भीरा |
चक्रेश्वरी तब आन के झट दीओ की पीरा ||20|| हे दीन...
शिवकोटि ने हठ था किया समन्तभद्र सों |
शिवपिंड को वन्दन करो शंको अभद्र सों ||
उस वक्त ‘स्वयम्भू’ रचा गुरु भाव भद्र सों |
जिन चन्द्र की प्रतिमा तहां प्रगटी सुभद्रसों ||21|| हे दीन...
सुवे ने तुम्हें आके फल आम चढाया |
मेंढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया ||
उन दोनों को अभिराम स्वर्गधाम बसाया |
हम आप से दातार को लख आज ही पाया ||22|| हे दीन...
कपि श्वान सिंह नवल अज बैल विचारे |
तिर्यंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे ||
इत्यादि को सुरधाम दे शिवधाम में धारे |
हम आपसे दातार को प्रभु आज निहारे ||23|| हे दीन...
तुमही अनंत जन्तु का भय भीर निवारा |
वेदों-पुराण में गुरु गणधर नी उचारा ||
हम आपकी शरणागति में आके पुकारा |
तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष इच्छिताकारा ||24|| हे दीन...
प्रभु भक्त व्यक्त भक्तियुक्त मुक्ति के दानी |
आनन्दकंद वृन्द को हो मुक्ति के दानी ||
मोहि दीन जान दीनबन्धु पातक भानी |
संसार विषम खार तार अंतरजामी ||25|| हे दीन...
करुणानिधान बान को अब क्यों न निहारो |
दानी अनंत दान के दाता हो सम्भारो ||
वृषचंद नंद वृन्द का उपसर्ग निवारो |
संसार विषम क्षार से प्रभु पार उतारो ||26|| हे दीन...
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