Skip to main content

श्री वर्धमान स्तोत्र (मुनि श्री प्रणम्य सागर जी )संस्कृत एवं हिंदी अनुवाद | Vardhamaan Stotra by Muni Shri Pranamya Sagar Ji

 

1. अदृश्य को दिखाने वाली स्तुति
श्री वर्धमान जिनदेव पदारविन्द -
युग्म-स्थितांगुलिनखांशु-समूहभासि।
प्रद्योततेऽखिल-सुरेन्द्रकिरीट-कोटि:
भक्त्या 'प्रणम्य' जिनदेव-पदं स्तवीमि ।।1।।
वर्धमान जिनदेव युगल पद, लालकमल से शोभित है।
जिनके अंगुली की नख आभा, से सबका मन मोहित है।
देवो के मुकुटों की मणियाँ, नख आभा में चमक रही।
उन चरणों की भक्ति से मम, मति थुति करने मचल रही। 1 ।

2. चित्त एकाग्र करने वाली स्तुति
नाहंकृतेऽहमिति नात्र चमत्कृतेऽपि,
बुद्धे: प्रकर्षकशतो न च दीनतोऽहम्‌।
श्रीवीरदेव-गुण-पर्यय-चेतनायां
संलीन-मानस-वश: स्तुतिमातनोमि ।।2।।
नहीं अहंकृत होकर के मैं, नहीं चमत्कृत होकर के।
बुद्धि की उत्कटता से ना, नहीं दीनता मन रख के।
वीर प्रभु की गुण-पर्यायों, से युत नित चेतनता में।
लीन हुआ है मेरा मन यह, अतः संस्तवन करता मैं। 2 ।

3. उत्कृष्ट पुण्य फल प्रदायी स्तुति
उच्चै: कुल-प्रभवता सुखसाधनानि
सौन्दर्य-देह-सुभग-द्रविण-प्रभूतम्‌।
मन्ये न मोक्ष-पथ-पुण्यफलं प्रशस्तं
यावन्न भक्तिकरणाय मन: प्रयास: ।।3।।
उच्च कुलों में पैदा होना, सुख साधन सब पा लेना।
सुन्दर देह भाग्य भी उत्तम, धन वैभव भी पा लेना।
मोक्ष मार्ग के लायक ये सब, पुण्य फलों को ना मानू।
भक्ति करन का मन यदि होता, पुण्य फल रहा मैं जानूँ। 3 ।

4. बुद्धि-कला-विकासिनी स्तुति
तस्मादहं शिवदसाधनसाधनाय
भक्तेरवश्य - करणाय समुद्यतोऽस्मि।
नो चिन्तयामि निज-बुद्धि-कला-स्वशक्तिं
तुक्‌ निस्त्रपो भवति मातरि वा समक्षे ।।4।।
इसीलिए अब मोक्ष प्रदायी, साधन को मैं साध रहा।
मैं अवश्य भक्ति करने को, अब मन से तैयार हुआ।
मुझमें बुद्धि छन्द कला वा, शक्ति है या नहीं पता।
माँ समक्ष ज्यों बालक करता, तज लज्जा मैं करुँ कथा। 4 ।

5. लक्ष्मी प्राप्ति स्तुति
सामायिके श्रुतविचारण-पाठकाले
य: सन्मतिं स्मरति नित्यरतिं दधान:।
तस्यैव हस्तगत-पुण्य-समस्त-लक्ष्मीं
दृष्ट्रा न कोऽपि कुरुतेऽत्र बुधस्तथैव ।।5।॥
सामायिक में नित चिंतन में, शास्त्रपाठ के क्षण में भी।
जो सन्मति को याद कर रहा, नित्य ह्रदय रति धर के ही।
सकल पुण्य की लक्ष्मी उसके, हाथ स्वयं आ जाती है।
ऐसा लख फिर किस ज्ञानी को, प्रभु भक्ति ना भाती है। 5 ।

6. वंशवृद्धिकर स्तुति
सूते च यो जिनकुले स हि वीरवंशो
वीरं विहाय मनुतेऽन्यकुलाधिदेवम्‌।
आलोकमाप्य जगतीह रवे: प्रचण्डं
जात्यन्धवद्‌ भ्रमति वा किल कौशिक:स: ॥6।।
जो उत्पन्न हुआ जिन कुल में, वीरवंश का वह है पूत।
वीर प्रभु को छोड़ अन्य को, मान रहा क्यों तू रे भूत।
सूरज का फैला नहीं दिखता, धरती पर चहुँ ओर प्रकाश।
जन्म समय से अंध बने वे, या फिर उल्लू सा आभास। 6 ।

7. इच्छित फल देने वाली स्तुति
रागादिदोष-युत-मानस-देवतानां
सेवा किमप्यतिशयं न ददाति कस्य।
सेवां करोतु जिनकल्पतरो:सदैव
सेवा किमल्पफलदाऽप्यफलाऽपि तस्य ।।7॥
राग द्वेष से सहित रहे जो, ऐसे देवों की सेवा।
क्या अतिशय फल दे सकती है, सेवा शिवसुख की मेवा।
श्री जिनवर है कल्पवृक्ष सम, उनकी सेवा सदा करो।
कल्पवृक्ष की सेवा भी क्या, अल्पफला या निष्फल हो। 7 ।

8. सर्व अनिष्ट ग्रह निवारक स्तुति
ये व्यन्तरादिसुर-भावन-देव-वृन्दा:
कृत्वा तु यस्य नमनं सुखमाप्नुवन्ति।
देवाधि-देव-शुभ-नाम-पवित्र-मन्त्रो
व्याहन्त्यनिष्टमखिलं किमु विस्मयन्ति ।।8।
भवनवासी व्यंतर देवों के, सुर समूह से वन्दित है।
जिनवर के चरणों में झुक वे, सुख पाते आनन्दित है।
देवों के भी देव प्रभु का नाम, मंत्र है पूजित है। 
सब अनिष्ट यदि हो गए, बड़ी बात क्यों विस्मित है। 8 ।

9. कालसर्पादि योग निवारक स्तुति
आस्तां सुदुःषम-कला-कलिकाल-कालस्
त्वन्नाम-दर्श-मननं प्रतिमाप्यलं स्यात्‌।
हस्तंगते गरूड-मन्त्र-विधान-सिद्धे:
कालादि-सर्प-कृतयोग-भयेन किं स्यात्‌ ।।9।।
भले बना हो कलिकाल का, प्रभाव सब पर दुखदायी।
दर्शन मनन, सुनाम आपका, बिम्ब मात्र भी सुखदायी।
सिद्ध किया ही गरुड़मन्त्र ही, जिसके हाथ पहुंच जाएँ।
काल सर्प के योग भयों से, फिर किसका मन डर पाये। 9।

10. सर्व रोग हरण स्तुति
रागादि-रोग-हरणाय न कोऽत्र वैद्य:
कर्माष्ट बन्ध-विघटाय रसायनं न।
यो यन्‍न वेत्ति स न तत्र मतं प्रमाणं
वैद्यस्त्वमेव तव वाक्‌च रसायनं तत्‌ ।।10।।
राग रोग का नाश करुँ मैं, दिखता वैध नहीं कोई।
अष्ट कर्म बंधन मिट जाए, नहीं रसायन है कोई।
जो जिस विद्या नहीं जानता, नहीं प्रमाणिक वह ज्ञानी।
वैद्य आप हो अतः बन गयी महा रसायन तव वाणी। 10 ।

11. मिथ्या आग्रह नाशक स्तुति
शस्त्रास्त्रभभूविकृतिलोहित-नेत्रवन्तं
क्रोड़ीकृताघ-ममतार्त-विरूपरौद्रम्‌।
देवं मनन्ति जगति प्रविजृम्भितेऽपि
चिद्वोधतेजसि सतीह किमन्धता वा ।।11।।
शस्त्र अस्त्र से सहित हुए जो, ब्रहकुटी चढ़ रही लाल नयन।
ममता पाप दुःख ले बैठे, देह विरुप क्रूर है मन।
लोग इन्हे भी प्रभु मानते, जिस जग में प्रभु आप रहे।
चेतन ज्ञान प्रकाश दिखे ना, और अंधता किसे कहे ? | 11।

12. पुण्योदयकरी स्तुति
पुण्योदयेन तव तीर्थकराख्यकर्म-
माहात्म्यत:कलिलघातिविधिप्रणाशात्‌।
तीर्थोदयोऽभवदिहात्म-हिताय वीर !
पुण्यद्विषैनु महिमा कथमभ्युपेत: ।।12।।
तीर्थंकर शुभ नाम कर्म के, पुण्य उदय की महिमा से।
चार घातिया पाप नाश से, तीर्थोदय की गरिमा से
पुण्य उदय से उदित तीर्थ ही, वीर आत्महित का कारण।
बने पुण्य के द्वेषी उनको, हो तब महिमा क्यों धारण ? 12 ।

13. समृद्धिवर्धक स्तुति
गर्भोत्सवे प्रतिदिनं पृथुरत्नवृष्टि -
जन्मोत्सवे सकल-लोक-सुशान्त-वृत्ति:।
सर्वातिशायनगुणा दश जन्मनस्ते
सूक्ष्मेण को गणयितुं गुणतां तु शक्त: ॥13॥
गर्भ समय के कल्याणक में, प्रतिदिन रत्नों की वर्षा।
जन्म समय के कल्याणक में, सकल लोक में सुख हर्षा।
सूक्ष्म रूप से तव गुण गण को, गिनने में हो कौन समर्थ ?
दश अतिशय जो मूर्त रूप है, समझो उनमें कितना अर्थ। 13 ।

14. जन्मोत्सव स्तुति
नि:स्वेदताऽस्ति वपुषो मलशून्यता ते
स्वाद्याकृति: परमसंहननं सुरूपम्‌।
सौलक्ष्य-सौरभ-मपार-समर्थता च
सप्रीतिभाषण-मथा-सम-दुग्धरक्तम्‌ ।।14।।
स्वेद रहित है निर्मल है तनु, परमौदारिक सुंदर रूप।
प्रथम संहनन पहली आकृति, शुभ लक्षणयुत सौरभ कूप।
अतुलनीय है शक्ति आपकी, हित-मित-प्रिय वचनामृत है।
दुग्धरंग सम रक्त देह का, दश अतिशय परमामृत है। 14 ।

15. केवलज्ञानोत्सव स्तुति
क्रोशं चतु:शतमिलाफलके सुभिक्ष:
शून्यश्च जीववधभुक्त्युपसर्गताया:।
 विद्येश्वर:खगमनं नख-केश-वृद्धि-
छाया-विहीन-मनिमेष-मुखं चतुष्कम्‌ ।।15।।
कोस चार सौ तक सुभिक्ष है, प्राणी वध उपसर्ग रहित।
बिन भोजन नित गगन है, नख केशों की वृद्धि रहित।
बिन छाया तनु चार मुखों से, निर्निमेष लोचन टिमकार।
सब विद्याओं के ईश्वर हो, दश केवल अतिशय सुखकार। 15 ।

16. आनन्ददायी स्तुति
जन्मक्षणे प्रथित-पर्वत-मन्दराख्ये
सौधर्म-देव-विहितस्नपनोपचारे।
आनन्दनिर्भररसेन सुविस्मित:सन्‌
“वीरं” चकार तव नाम सुरेन्द्रमुख्य: ।।16।।
जन्म समय पर मंदर मेरु, पर्वत जो विख्यात रहा।
जिस पर ही सौधर्म इन्द्र ने, प्रभु का कर अभिषेक कहा।
वीर आपका नाम यही शुभ, धरती पर विख्यात रहे।
हो आनंदित विस्मित होकर, देवों के भी इंद्र कहे। 16 ।
17. सर्पादि भय निवारक स्तुति
क्रीडाक्षणे सुरतुकै: सह शैशवेऽपि
आयात एव भुवि संगमनाम देव:।
नागस्य रूपमवधार्य भयाय रौद्रं
निर्भीरभू-'र्महतिवीर' इति प्रसिद्धि: ॥17।।
शैशव वय में क्रीड़ा करते, देव बालकों के संग आप।
संगम देव तभी आ पहुँचा, देने को प्रभु को संताप।
नाग रूप धर महा भयंकर, लखकर वीर न भीत हुए।
महावीर यह नाम रखा तब, देव स्वयं सब मीत हुए। 17 ।

18. संदेह निवारक स्तुति
शंङकां निधाय हृदि तौ गगनं चरन्तौ
ऋद्धिश्ववरो विजय-संजयनामधेयौ
त्वामीश! वीक्ष्य लघु दूरत एव हर्षात्‌
प्रोच्चार्य 'सन्‍मति' सुनाम गतौ विशङकौ ।।18।।
शास्त्र विषय संदेह धारकर, चले जा रहे दो मुनिराज।
संजय विजय नाम है जिनके, गगन ऋद्धि ही बना जहाज।
देख दूर से हर्षित होकर, लख कर ही निःशंक हुए।
धन्य-धन्य है इनकी मति भी, सन्मति कहकर दंग हुए। 18 ।

19. दीक्षा प्रदायी स्तुति
तीर्थेश्वरा विगतकाल-चतुर्थकेऽस्मिन्‌
संदीक्षिता बहुलसंख्यक-भूमिनाथै:।
जानन्नपि त्वमगमो न हि खेदमेको
वाचंयमो द्विदशवर्षमभी-विर्हृत्य ।19।।
इस चतुर्थ काल में जितने, पहले जो तीर्थेश हुए।
कई कई राजाओं के संग, दीक्षित हो तपत्याग किए।
आप जानते थे यह भगवन, फिर भी आप न खेद किए।
मौन धारकर एकाकी हो, बारह वर्ष विहार किए। 19 ।

20. चारित्र विशुद्धि वर्धक स्तुति
प्राप्त-क्षयोपशममात्रकषायतुर्यो
मत्तेऽपि वृद्धि-मुपयाति परं चरित्रम्‌।
त्वं 'वर्धमान' इति नाम भुवि प्रपन्‍नो
न्यासे प्रभाव इह नामनि भावमुख्यात्‌ ।।20।।
चौथी कषाय मात्र का जिनको, क्षयोपशम गत भाव रहा।
हो प्रमत्त यदि बीच-बीच में, वर्धमान चारित्र रहा।
इसीलिए तो नाम आपका, "वर्धमान” भी ख्यात हुआ
नाम न्यास में भी भावों, से न्यास बना यह ज्ञात हुआ। 20 ।

21. रौद्र उपद्रव नाशक स्तुति
दीक्षोत्सवे तपसि लीनमना बभूव
चैको भवान्‌ प्रविजहार सहिष्णुयोगी।
उज्जैनके पितृवने समधात्‌ समाधि-
मुग्रैरुपद्रवसहेऽ 'प्यतिवीर' संज्ञा ।।21।।
तप कल्याणक होने पर प्रभु, तप में ही संलीन हुए
एकाकी बन कर विहार कर, सहनशील योगी जु हुए।
उज्जैनी के मरघट पर जब, आप ध्यान में लीन हुए
उग्र उपद्रव सहकर के ही, नाम लिया "अतिवीर” हुए। 21।

22. अनिष्ट बंधन विनाशी स्तुति
या बंधनैश्च विविधै: किल संनिबद्धा
संपीडिता विलपिता समयेन नीता।
भक्त्योलल्सेन विभुतां प्रविलोकमाना
सा चन्दना गतभया तव लोकनेन ।।22।।
नाना विध बंधन ताडन पा, जो पर घर में बंधी पड़ी
पीड़ित होकर रोती रहती, कष्ट सहे हर घड़ी-घड़ी।
वीर प्रभू का दर्शन पाऊँ, भक्ति और उल्लास भरी
दर्शन पाकर वही चन्दना, भय-बन्धन से तब उभरी। 22 ।

23. उत्कृष्ट पद प्रदायी स्तुति
ज्ञानोत्सवेऽशुभदतीव सभा पृथिव्या
गत्वोपरीह जिन! पञचसहस्र-दण्डान्‌।
मिथ्यादृशां न भवतो मुख-दर्श-पुण्य-
मुच्छाय एव भगवन्‌! सुविराजमान: ।।23।।
ज्ञानोत्सव होने पर प्रभु की, समवसरण सी सभा लगी
पाँच हजार धनुष ऊपर जा, चेतनता जब पूर्ण जगी।
मिथ्यादृष्टि जीवों को तव, मुख दर्शन का पुण्य कहाँ?
इसीलिए इतने ऊपर जा, शोभित होते बैठ वहाँ। 23 ।

24. अहंकार नाशी स्तुति
मानोद्धत: सकलवेदपुराणविद्‌ यो
मानादिभूस्थजिन-बिम्बमथेन्द्र-भूते:।
मानो गतो विलयतामवलोक्य तेऽस्य
सामर्थ्यमन्यपुरुषेषु न दृश्यते तत्‌ ।।24।।
हुआ मान से उद्धत है जो, सकल पुराण शास्त्र ज्ञाता
मानस्तम्भ बने जिन-बिम्बों, को लख इन्द्रभूति भ्राता।
मान रहित हो खड़े रहे ज्यों, भूल गये हों सब कुछ ही
छोड़ आपको अन्य पुरुष में, यह प्रभाव क्या होय कभी ?। 24 ।

25. संकट मोचन स्तुति
साक्षाद्‌ विलोक्य सचराचरविश्वमन्त:
कैवल्य-बोधवदनन्तसुखस्य भोक्ता ।
यैर्मन्यते जिन! सदा परमात्मरूप-
मित्थं कथं वद भवेयु-रिहार्तयुक्ता: ।।25।।
अन्तरंग में निज आतम से, विश्व चराचर देख रहे,
केवल ज्ञान साथ जो होता, वह अनन्त सुख भोग रहे।
है जिन! तव परमात्म रूप को, मान रहे जो इसी प्रकार
अहो! बताओ कैसे फिर वे, दुःखी रहेंगे किसी प्रकार। 25 ।

26. कुलदीपक दायी स्तुति
अभ्यन्तरे बहिरपीश! विभासमानो
विश्वं तिरस्कृतमहोऽत्र चिदर्चिषैतत्‌ ।
है ज्ञातृवंश-कुल-दीपक! चेतनायां
यत्‌ सद्‌ विभाति यदसन्न विभाति तत्र ।।26।।
बाहर भीतर ईश! आप तो, पूर्ण रूप से भासित हो
तव चेतन के महा तेज से, तेज समूह पराजित हो।
ज्ञातृवंश के हे कुल दीपक!, ज्ञातापन चेतनता में
जो है वह प्रतिभासित होता, जो ना दिखता ना उसमें। 26 ।
 
27. सम्यक्त्व प्रदायी स्तुति
त्वं चित्क्रमाक्रमविवर्तविशुद्धि-युक्त:
स्वात्मानमात्मनि विभाव्य विभावमुक्त:।
वैभाविकं वपुरिदं जिन! पश्यसि स्वं
सम्यक्त्वकारणमहो व्यभवत्‌ परेषाम्‌ ।।27।।
चेतन की गुण-पर्यायों में, तुम विशुद्धि युत होकर के
आतम में आतम को पाकर, सब विभाव को तज कर के।
निज शरीर को भी हे जिनवर!, वैभाविक ही देख रहे
दूजों को वह ही तन देखो !, सम्यगदर्शन हेतु लहे। 27 ।

28. पराक्रमकारी स्तुति
छत्रत्रयं वदति ते त्रिजगत्प्रभुत्वं
शास्ति स्वयं न मुखतो मदगर्वशून्य:।
सत्यं सतां विधिरयं हि पराक्रमाणां
वीरो जितेन्द्रियमना भगवानसि त्वम्‌ ।।28।।
तीन लोक में प्रभुता तेरी, तीन छत्र कह देते हैं
मद घमण्ड से रहित हुए जो, कैसे कुछ कह सकते हैं।
महा पराक्रम धारी सज्जन, इसी रीति से रहते हैं
इसीलिए तो वीर जितेन्द्रिय, भगवन तुमको कहते हैं। 28 ।
29. सिंहासन दायी स्तुति
सिंहासनोपरि विराजितुमत्र लोभा
वाञ्छन्त्युपायशतकै भुर्वि चित्तलोभात्‌।
लाभेऽपि तस्य चतुरङ्गुलमूर्ध्वमेति
निर्लोभता वद भवत्तुलिता क्क चान्यै: ॥29।।
देखा जाता है लोभी जन, सिंहासन पर बैठन को
करें उपाय सैकड़ों जग में, मन में लोभ की ऐंठन हो।
सिंहासन का लाभ हुआ पर, आप चार अंगुल ऊपर
कहो आप सा निर्लोभी क्या, और कहीं हो इस भूपर। 29 ।

30. छल कषट नाशी स्तुति
ऊर्ध्व॑ मुहु गंदति याति च निम्नवृत्तिं
मायाविनां तु मनसा सम वक्रवृत्तिम्‌।
तेभ्यस्तनु स्तव विभाति सुचामरौघो
मायातिशून्यह्दयो भवदन्‍यना न ।।30॥।
ऊपर जाकर बार-बार, फिर, फिर नीचे आते चामर
मायावी जन कुटिल मना ज्यों, मानो वक्रवृत्ति रखकर।
चमरों से शोभित प्रभु तन ये सबसे मानो कहता है
अन्य किसी का हृदय यहाँ पे, बिन माया ना रहता है। 30 ।

31. मुख तेज वर्धन स्तुति
अस्मिनभवे भविनि रोषविभावभाजि
चैतन्यवत्यपि मुखं न बिभर्ति तेज:।
भामण्डलं हि परितो तव भासमानं
यद्‌ वीर! वक्ति भविसप्त-भवानुगाथाम्‌ ।।31।।
क्रोध विभाव भाव वाले जो, भव्य जीव संसृति में हैं
चेतन होकर के भी उनके, मुख पर तेज नहीं कुछ है।
वीर प्रभु तव मुख मण्डल का, तेज बताता भामण्डल
भव्य जनों के सप्त भवों की, गाथा गाता है प्रतिपल। 31 ।
 
32. सम्मोहनकारी स्तुति
चित्र विभो! त्रिभुवनेश! जिनेश! वीर!
न्यूने त्वयि द्रुतविहास्य-रतेन देव!
दिव्यघ्वनिं तदपि कर्णयितुं तु भव्या
आयान्ति ते रतिवशादनुयन्ति हास्यम्‌ ।।32।।
तीन लोक के हो ईश्वर तुम, तुम जिनेश तुम वीर विभू
हास्य नहीं है रती नहीं है, तव चेतन में अहो प्रभू ।
फिर भी दिव्यध्वनि को सुनकर, भव्य जीव रति भाव धरें
तत्त्व ज्ञान पी-पीकर मानो, हो प्रसन्‍न मन हास्य करें। 32 ।

33. शोक विनाशक स्तुति
सामीप्यतोऽप्यरतिशोकमतिं विहाय
वैडूर्यपत्र-हरिताभ-मणिप्रशाख:।
सम्प्राप्य नाम लभते विटपोऽप्यशोक:
शोभां नरोऽपि यदि किं तव भक्तितोऽत: ॥33।।
नाना विध वैडूर्य मणी की, हरित मणिमयी शाखायें
तव समीपता से ही तज दी, अरति शोक की बाधायें।
मानो इसीलिए उस तरु का नाम अशोक कहा जाता
क्या आश्यर्च आप भक्ति से, यदि मनुष्य शोभा पाता। 33 ।

34. आत्महत्या विनाशक स्तुति
यान्ति क्व भो! भविजना भयभीतवश्यात्‌
कुर्वन्ति किं निजहतिं च जुगुप्सया वा।
सम्प्राप्नुवन्त्वभयता-मभय-प्रसिद्ध-
पाद-द्वयं वदति वादितदुन्दुभिस्ते ।।34।।
अरे-अरे ओ भविजन क्यों तुम, क्यों इतने भयभीत हुए
आत्मग्लानि से आत्मघात को, करने क्यों तैयार हुए।
अभय प्रदायी चरण कमल को, प्राप्त करो अरु अभय रहो
देव दुन्दुभी बजती-बजती, यही कह रही वीर प्रभो। 34 ।

35. कामवेदना नाशक स्तुति
पुष्पाणि सन्ति सकलानि नपुंसकानि
हर्षन्ति तानि वनिता-नर-संगयोगात्‌।
कामस्त्रिवेदसहित: पततीह कामं
देवेन्द्रपुष्पपतनाच्छलतोऽभिमन्ये। ।35।।
पुष्प रूप में खिले जीव सब, भाव नपुंसक वेद धरें
तभी कभी नर से हर्षित हों, नारी संग भी हर्ष धरें।
देवेन्द्रों की पुष्प वृष्टि जो, प्रभु सम्मुख नित गिरती है
तीन वेद से सहित काम यह, गिरता है यह कहती है। 35 ।

36. भू सम्पदादायी स्तुति
तीर्थंकर-प्रकृतिपुण्य-वशेनभूमि-
 दृष्टाऽतिकान्त-मणिकाभरणैक-कान्ता।
स्वच्छा च भावनसुरै्विहितोपकारा
धान्यादि-पुष्पविभवै-ह्हसतीव नारी ।।36।।
पुण्य प्रकृति तीर्थंकर से ही, भूमि रत्नमय स्वयं हुई
भवनवासि देवों के द्वारा, स्वच्छ दिख रही साफ हुई।
पुष्प फलों से भरी दिख रही, धान्यादिक से पूर्ण तथा
तीर्थंकर का गमन देखकर, भूनारी यह हँसे यथा। 36 ।

37. सुभिक्ष करी स्तुति
वायु: प्रभो: पथविहारदिशानुसारी
वायु: सुगन्‍धघन-मिश्रित-सौख्यकारी।
वायु: सुगन्‍न्ध-जल-वर्षण-चित्तहारी
वायु: सुरस्त्रिदशराज-निदेश-धारी ।।37।।
जिधर दिशा में गमन आपका, उसी दिशा में वायु बहे
अति सुगन्धमय पवन सूंधकर, अचरज करता विश्व रहे।
मन्द-मन्द अति जल वर्षा में, भी सुगन्ध सी आती है
वायु कुमार देव से सेवा, इन्द्राज्ञा करवाती है। 37 ।

38. चित्त हरण करी स्तुति
न्यासो हि यत्र चरणस्य विनिर्मितानि
पद्मानि सौरभमयानि सुवर्णकानि।
देवैर्नभांसि विहतौ कुसुमार्पितानि
ध्यानान्‌ मनांसि यदि मेऽपि किमद्भुतानि।।38।।
देवों द्वारा पद विहार में, नभ में कमल रचे जाते
वही कमल फिर स्वर्णमयी हों, अरु सुगन्ध से भर जाते।
आप चरण के न्यास मात्र से, कुसुम इस तरह होते हैं
अदभुत क्‍या यदि आप ध्यान से, मन: कमल मम खिलते हैं। 38 ।

39. मिन्न वर्धक स्तुति
दिव्यध्वनि-वहति यस्तु मुखारविन्दा-
दर्ध च तस्य खलु मागधजातिदेवा:।
दूरं तु वीर! सहजेन विसर्पयन्ति
मैत्रीं मिथ:सदसि भूरि विभावयन्ति।।39॥
आप मुख कमल से हे भगवन! दिव्य ध्वनि जो खिरती है
मागध जाति देव से आधी, वही दूर तक जाती है।
इसीलिए वह अर्ध मागधी, कहलाती सुखकर भाती
तथा परस्पर में मैत्री भी, जीवों में देखी जाती। 39 ।

40. निर्मल हृदय करी स्तुति
नैर्मल्यभाव-मभितो धरतीशमाप्तं
दिग्‌ राजिका दश विभो!गगनं विधूल्य:।
सर्वर्तु-पुष्प-फल-पूरित-भूरुहाश्च
व्याहवान-मर्पित-सुरौघ इत:करोति ।।40।।
अरु विहार के समय गगन भी, निर्मल भाव यहाँ धरता
दशों दिशायें धूलि बिना ही, नभ चहुँ ओर सदा करता।
सभी ऋतृ के पुष्प फलों से, वृक्ष लधे इक संग दिखते
आओ-आओ इधर आप सब, देव बुलावा भी करते। 40 ।

41. धर्म चक्र प्रवर्तनकरी स्तुति
नाशीर्वच:प्रहसनं प्रविलोकवार्ता
तीर्थप्रवर्तनपरो जगतोऽघिनाथ:।
पश्यन्तु तस्य ककुभन्‍तर-भासमानं
तेजोऽधिकाग्र-गमनं पृथुधर्मचक्रम्‌ ।।41।॥
नहीं कोई आशीष वचन हैं, हँसे देख कर बात नहीं
फिर भी तीर्थ प्रवर्तन होता, तीन जगत के नाथ यही।
देखो-देखो यही दिखाने, धर्म चक्र आगे चलता
अति प्रकाश चहुँ ओर फैलता, सभी दिशा जगमग करता। 41 ।

42. सर्वसिद्धि दायक स्तुति
चित्तं मदीयमिह लीनमुत त्वयि स्यात्‌
त्वद्रूपभा मयि मन:-परमाणु-देशे।
जानामि नो किमिति संघटते समेति
किं वाम्रबीज-गणनेन रस बुभुक्षो: ॥42।।
मेरा चित्त आप में हे प्रभु! लीन हुआ क्या पता नहीं
या फिर आप रूप की आभा, मन में आती पता नहीं।
कैसा क्‍या यह घटित हो रहा, नहीं पता कुछ मुझको देव!
आम गुठलियों को क्या गिनना रस चखने की इच्छा एव । 42 ।

43. आत्मगुणों की  शक्तिवर्धक स्तुति
भक्तिश्च सा स्मर-रुषाग्नि-घनौघवर्षा
मुक्तिश्च सा स्तवनत:स्वयमेति हर्षात्‌।
शक्तिश्च तृप्यतितरां गुणपूर्णतायां
ज्ञप्तिश्व विंदति भृशं तव चेतनाभाम्‌ ।।43।।
भक्ति वही जो काम क्रोध की, अग्नि बुझाने वर्षा हो
मुक्ति वही जो संस्तुति करते, स्वयं आ रही हर्षित हो।
आप गुणों की पूर्ण प्राप्ति में, तुष्ट करे जो शक्ति वही
आप चेतना की आभा का, अनुभव करता ज्ञान वही। 43 ।

44. निश्चिन्‍त करने वाली स्तुति
भृत्योऽपि भूपतिमरं तु सदाश्रयामि
प्रोत्थाय मस्तक-मतीव-मदेन याति।
त्रैलोक्यनाथ-पद-पंकज-भक्ति-भक्तो
निश्चिन्तितां यदि दधाति तु विस्मय:किम्‌ ।।44।।
मैं राजा के निकट रह रहा, यही सोचकर नौकर भी
अपना मस्तक ऊँचा करके, गर्व धारकर चले तभी।
तीन लोक के नाथ आपके, चरण कमल भक्‍ती वाला
भक्त यहाँ निश्चिन्त बना यदि, क्या विस्मय प्रभु रखवाला। 44 ।

45. हिंसा नाशक स्तुति
सत्यं त्वया सुविहिताऽत्र मुनेरहिंसा
बाह्मान्तरङ्ग-यम-माप्य समाचरत्‌ ताम्‌।
अन्त:प्रभाव इति केवलबोध-सूति-
यज्ञार्थ-हिंसन-निवृत्ति-बहि-रविभूति: ॥45।।
सत्य कहा है आप वीर ने, मुनि का एक अहिंसा धर्म
भीतर बाहर संयम पाकर, आप बढ़ाये उसका मर्म।
उसी धर्म से अन्तरंग में, केवलज्ञान प्रकाश हुआ
यज्ञों की हिंसा रुक जाना, बाहर धर्म प्रभाव हुआ । 45 ।

46. मनोरथ सफलकरी स्तुति
ज्ञानस्य वा सुखगुणस्य च कस्यचिच्च
पर्यायमात्र कलिकामह-माप्तुकाम:।
अन्तस्त्वयि स्वगुण-पर्यय-भासमाने-
प्यस्मादृश:कथमहो नु भवेत्‌ सतृष्ण: ।।46।।
सुख गुण की या ज्ञान गुणों की, किसी गुणों की भी पर्याय
एक समय की कणी मात्र ही, तव गुण की मुझमें आ जाय।
अपनी ही गुण-पर्यायों से, भीतर आप प्रकाशित हो
फिर भी मुझ जैसा कैसे यूं, तृष्णा पीड़ित रहे अहो। 46 ।

47. मुख नेन्नादि पीड़ा विनाशक स्तुति
अत्यन्त-पूत-चरणं तव सर्व-वन्द्यं
चित्ते निधाय यदहं स्वमुखं विपश्यन्‌।
उल्लासयामि मुखदर्पण-दर्शनात्ते
सीदामि साम्यविकलात्‌ स्वमुखेऽतिवीर!।।47।।
अति पवित्र जो चरण कमल हैं, वन्दनीय नित सदा रहे
उनको चित में धारणा करके, अपना मुख हम देख रहे।
अति उलल्‍लासित मम मन होता, किन्तु आप मुख दर्पण देख
आप सरीखा साम्य हमारे, मुख पर नहीं देख कर खेद। 47 ।

48. सौभाग्यवर्धक स्तुति
सद्‌-द्रव्यसंयम-पथे प्रथम प्रयुज्य
स्वं भावसंयमनिधौ तदनुव्यधायि।
नोल्ल्मंघयन्‌ क्रमविधिं क्रमविद्‌ विधिज्ञो
मार्तण्डवच्चरति वै महतां स्वभाव: ।।48।।
पहले आप द्रव्य संयम के, पथ पर खुद को चला दिए
तभी भाव संयम की निधि भी, आप स्वयं ही प्राप्त किए।
जो क्रम जाने विधि को जाने, क्‍या उल्लंघन कर सकता
महापुरुष का यह स्वभाव है, सूरज सम पथ पर चलता। 48 ।

49. अकास्मिक फल प्रदायी स्तुति
सापेक्षतोऽपि निरपेक्षगतोऽसि नूनं
बद्धोपि मुक्त इव मुक्तिरतोऽसि बद्ध:।
एकोऽप्यनन्त इति भासि न ते विरोध:
स्वात्मानुशासनयुते जिनशासनेऽपि ।।49।।
होकर के सापेक्ष आप प्रभु, सबसे ही निरपेक्ष हुए
कर्म बन्ध से बद्ध मुक्त से, मुक्ती में रत बद्ध हुए।
होकर एक अनन्त भासते, इसमें कोई विरोध नहीं
आतम अनुशासन से युत हो, जिनशासन से युक्त वहीं। 49 ।

50. धर्मानुराग वर्धक स्तुति
दृष्टोऽपि नो श्रुतिगतो न कदापि पूर्व
स्पृष्टो मया न महिमानमहं न वेद्मि।
देवेश! भक्तिरसनिर्भर-मानसेऽस्मिन्‌
प्रत्यक्षतोऽप्यधिकरागमति:परोक्षे ।।50।।
पहले नहीं आपको देखा, नहीं सुना है कभी कहीं
नहीं छुआ है कभी आपको, जानी महिमा कभी नहीं।
भक्ति सुरस से भरे हुये इस, मेरे मन में आप मुनीश
नहीं हुए प्रत्यक्ष तथापि, मति में राग अधिक क्यों ईश। 50 ।

51. विमुक्त व्यक्ति मैलापक स्तुति
अद्यपि ते प्रवचनाम्बु मन:पिपित्सा
पीत्वाऽपि तृष्यति विलोक्य पुन-रदिदृक्षा।
एतन्मनोरथयुगस्य यदा हि पूर्ति:
साक्षाद्‌ भवेन्‍मम विमुक्तिकथा तदाऽलम्‌ ।।51।।
तेरे वचन नीर को पीने, की इच्छा पी-पी कर भी
तृप्त नहीं होता मेरा मन, पुन: देखना लख कर भी।
दो ही मेरी मनो कामना, जब पूरण होंगी साक्षात्‌
मुक्ति कथा भी मेरी पूरी, हो जाएगी मेरी बात। 51 ।

52. परलोक सुख करी स्तुति
पुण्यं त्ववोदित-तपोयम-पालनेन
भकत्योर्जितेन भविनां शिवसाधन ते।
पुण्यं निदानसहितं सुरसौख्यकामं
बन्धप्रदं न हि नयं समवैति जैन: ॥52॥
कहा आपने जैसा जिनवर, मान उसे तप व्रत धरता
भव्यजनों की भक्ति का वह, पुण्य मोक्ष साधन बनता।
सुर सुख को जो चाह रहा हो, कर निदान यदि करता पुण्य
वही बन्ध का करण है नय, नहीं जानते जैनी पुण्य। 52 ।

53. रत्नन्नय प्रदायी स्तुति
सम्यक्त्वमेव जिनदेव!तवैव भक्ति-
ज्ञानं तदेव चरितं व्यवहारमित्थम्‌।
तावत्‌ करोतु भविकस्त्वदभेदबुद्धया
मुक्त्यंगना-रमणतात्म-सुखं न यावत्‌ ।।53॥
है जिन! भक्ति आपकी नित ही, सम्यग्दर्शन कही गई
वही ज्ञान है वही चरित है, यह व्यवहारी बुद्धि रही।
रख अभेद बुद्धि से जिन में, तब तक यह व्यवहार करो
मुक्ति वधू का रमण आत्म सुख, जब तक ना तुम प्राप्त करो। 53 ।
54. प्रशंसा वर्धक स्तुति
रूपेण मुह्यसि जनं त्वममोह इष्टो
लोभं विवर्धयसि भूरि निशाम्य वाचम्‌।
तत्राप्युशन्ति सुजनं सुजना भवन्तं
दोषा गुणाय ननु चन्द्रकरैनिरदाघे ।।54।।
मोहित करते आप रूप से, सभी जनों को हे निर्मोह!
सुन कर वचन और सुनने का, लोभ बढ़ाते हे निर्लोभ!।
फिर भी श्रेष्ठ पुरुष है कहते, श्रेष्ठ पुरुष केवल हैं आप
दोष गुणों के लिए हरे ज्यों, निशा चन्द्रमा से संताप । 54 ।

55. गुप्त सम्पदा दायक स्तुति
तुभ्यं ददामि कथयन्‌ प्रददाति कश्चिन्‌
मौनेन दित्सति भवानति-गुप्तरूपात्‌।
सार्वाय वा रविरिहैव निरीह-बन्धु-
भव्याय तेन भुवने परमोऽसि दाता ।।55।।
तुमको देता हूँ यह कहता, तब कोई कुछ देता है
किन्तु आप दें गुप्त रूप से, मौन धार यह देखा है।
ज्यों रवि सबका हित करता है, बिन इच्छा के बन्धु बना
उसी तरह भव्यों के हित में, तुम सम दाता कोई ना। 55 ।

56. याचक संतुष्टि करी स्तुति
दित्सा प्रभो! त्वयि यदि प्रविदातुमस्ति
दातव्य एव मम वै मनसि स्थितार्थ:।
दाता समो न तव मत्सम-याचको न
कांक्षाम्यहं किमपि नो भवतो भवन्तम्‌ ।।56।।
फिर भी यदि तुम इच्छा करते, देने की मुझको कुछ भी
दे ही देना आप प्रभू जी, जो मेरे मन में कुछ भी।
दाता तुम सम और नहीं है, और नहीं याचक मुझ सा
चाह नहीं कुछ तुमसे चाहूँ, तुमको या बनना तुम सा। 56 ।


57. यात्रा विघ्न निवारक स्तुति
एवं चतुर्दशतिथा-वपहृतत्य योगान्‌
ध्यानात्‌ तुरीयशुभशुक्ल-वशात्‌ प्रमुक्त:।
पावापुर-प्रमद-पद्म-सरोवरस्थो
निर्वाण-माप्य भुवनस्य शिर:प्रतस्थे ।।57।।
योगों को संकोचित करके, इस विधि चौदस की तिथि को
चौथे शुक्ल ध्यान को ध्याकर, आप विमुक्त किए खुद को।
पावापुर के पद्म सरोवर, पर संस्थित प्रभु होकर के
आप महा निर्वाण प्राप्त कर, ठहरे लोक शिखर जा के। 57 ।

58. अन्तराय निवारक स्तुति
नष्टाष्टकर्मरिपुबाधक! ते नमोऽतु
स्वर्गापवर्ग-सुखदायक! ते नमोऽतु
विश्वैक-कीर्ति-गुण नायक! ते नमोऽस्तु
विघ्नान्तराय-विधि-वारक ! ते नमोऽस्तु ।।58।।
अष्ट कर्म रिपु बाधक नाशक, हे प्रभु तुमको नमन करूँ
स्वर्ग मोक्ष सुख के हो दायक, हे प्रभु तुमको नमन करूँ।
आप कीर्ति गुण नायक जग में, हे प्रभु तुमको नमन करूँ
अन्तराय विघ्नों के वारक, हे प्रभु तुमको नमन करूँ। 58 ।

59. विजेता कारक स्तुति
जेता त्वमेव समन: सकलेन्द्रियाणां
नेता त्वमेव गुणकांक्षि-तपोधनानाम्‌।
भेत्ता त्वमेव घनकर्ममही धराणां
ज्ञाता त्वमेव भगवन्‌! सचराचराणाम्‌ ।।59।।
मन से सहित सकल इन्द्रिय के, तुम ही एक विजेता हो
जो गुण चाहें ऐसे मुनि के, एक मात्र तुम नेता हो।
घनी भूत जो कर्म शैल थे, उनको तुमने तोड़ दिया
सकल चराचर के ज्ञाता हो, निज में निज को जोड़ लिया। 59 ।

60. अन्य मन्त्र तन्‍त्र प्रभाव रोधक स्तुति
हे वीर! सिद्ध-गतिभूषण!वीतकाम!
तुभ्यं नमोऽन्त्य-जिन-तीर्थकर!प्रमाण!।
सर्वज्ञदेव!सकलार्तविनाशकाय
तुभ्यं नमो नतमुनीन्द्र-गणेशिताय ।।60।।
सिद्धगति के भूषण तुम हो, काम रहित हो तुम हो वीर
है अन्तिम जिन तीर्थंकर प्रभु, तुम प्रमाण मम हर लो पीर।
सभी दुखों के नाशक तुमको, देव हमारे तुम्हें नमन
गणधर और मुनीश्वर नमते, हे परमेश्वर तुम्हें नमन। 60 ।

61. जल भय निवारक स्तुति
ते तीर्थपुण्यजलमञ्जनशुद्धभूता
भव्या:पुरा समभवन्‌ कलिपापपूता:।
नाना-नयोपनय-सप्त-विभङ्ग-भङगे
तीर्थ निमञ्जनविधे:किमु वन्निचत:स्याम्‌ ।।61।।
आप तीर्थ के पुण्य नीर में, डूब डूब कर शुद्ध हुए
भव्य हुए जितने भी पहले, धो कलि पाप विशुद्ध हुए।
नाना नय उपनय अरु जिसमें, सप्त भंग की लहरें हों
ऐसे तीरथ में डुबकी हम, लेने में क्यों वंचित हों । 61 ।

62. संसार भय तारक स्तुति
बालेऽपि पालक इति प्रतिभासते यो
यो यौवनेऽपि मदकाम-भटाभिमर्दी।
 संसार-सागर-तट-स्थित-पुण्यभाजां
सिद्धिं प्रपित्सुरभवत्‌ तमहं नमामि ।।62॥।
बाल्य अवस्था में भी पालक, से प्रतिभासित होते आप
भर यौवन में भी मदमाते, काम सुभट को जीते आप।
पुण्यवान जो खड़े हुए हैं, संसृति सागर के तट पर
उन्हें सिद्धि में पहुँचाते थे, नमन आप को कर शिर धर। 62 ।

63. उत्तम शरण दायक स्तुति
लोकोत्तमोऽसि जगदेकशरण्यभूत:
श्रेयान्‌ त्वमेव भवतारकमुख्यपोत:।
ध्यानेऽपि चिन्तनमतौ सुकथा-प्रसङ्गे
त्वां संस्मरामि विनमामि च चर्चयामि ।।63।।
तीन लोक में उत्तम तुम हो, पूर्ण जगत में एक शरण
भव तरने को इक जहाज हो, श्रेष्ठ तुम्ही हो करूँ वरण।
चिन्तन में भी ध्यान समय भी, और कथा के करने में
तुमको याद करूँ मैं प्रणमूँ, चर्चा करूँ सदा ही मैं। 63 ।

64. सर्व कार्य सफलतादायक स्तुति
य: संस्तवं प्रकुरुते भुवि भावभक्त्या
संस्थाप्य चित्त-कमले श्रृणुतेऽत्र चैतम्‌।
विघ्नं विहत्य सफलीभवतीष्टकार्ये,
ज्ञानं सुखं स लभते क्षणवर्धमानम्‌ ।।64।।
भाव भक्ति से इस प्रकार जो, वीर प्रभू का यह संस्तव
हृदय कमल में धार आपको, करता सुनता तव वैभव।
विघ्नों को वह नष्ट करे अरु, इष्ट कार्य में रहे सफल
हर क्षण बढ़ते ज्ञान सुखों का, पाओ तुम "प्रणम्य” शिव फल। 64 ।


Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें.. https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत-...

सामायिक पाठ (प्रेम भाव हो सब जीवों से) | Samayik Path (Prem bhav ho sab jeevo me) Bhavana Battissi

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किय...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) | Bhaktamar Strotra with Hindi meaning/arth and English Translation

 भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ 1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा) When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era. य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - ह...

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

BHAKTAMAR STOTRA MAHIMA / भक्तामर-स्तोत्र महिमा

पं. हीरालाल जैन ‘कौशल’ श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात, भक्ति मन लाई | सब संकट जायँ नशाई || जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे | चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१|| मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था | मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२|| उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था | हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३|| मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे | क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४|| मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था | हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५|| सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके | कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६|| राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था | मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७|| जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है | जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट...

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...