भारत वर्ष में एक मान्यखेट नाम का नगर था। उसके राजा थे शुभतुंग और उनके मंत्री का नाम पुरूषोत्तम था । पुरूषोत्तम की गृहिणी पद्मावती थी। उसके दो पुत्र हुए। उनके नाम थे अकलंक और निकलंक। वे दोनों भाई बड़े बुद्धिमान-गुणी थे।
एक दिन अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी के दिन पुरूषोत्तम और उसकी गृहिणी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराज की वन्दना करने गए। साथ में दोनों भाई भी गये। मुनिराज की वन्दना कर इनके माता-पिता ने आठ दिन के लिये ब्रह्मचर्य व्रत लिया और साथ ही विनोदवश अपने दोनों पुत्रों को भी उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया।
कुछ दिनों के बाद पुरूषोत्तम ने अपने पुत्रों के ब्याह का आयोजन किया। यह देख दोनों भाइयों ने मिलकर पिता से कहा—पिता जी, इतना भारी आयोजन! इतना परिश्रम आप किस लिये कर रहे हैं? अपने पुत्रों की बात सुनकर पुरूषोत्तम ने कहा — यह सब आयोजन तुम्हारे ब्याह के लिये है। पिता का उत्तर सुनकर दोनों भाईयों ने फिर कहा—पिता जी अब हमारा ब्याह कैसा? आपने तो हमें ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया था न? पिता ने कहा नहीं, वह तो केवल विनोद से दिया गया था। उन बुद्धिमान् भाइयों ने कहा—पिता जी, धर्म और व्रत में विनोद कैसा? यह हमारी समझ में नहीं आया। अच्छा आपने विनोद ही से दिया सही, तो अब उसके पालन करने में भी हमें लज्जा कैसी? पुरूषोत्तम ने फिर कहा — अस्तु! जैसा तुम कहते हो वही सही, पर तब तो केवल आठ ही दिन के लिये ब्रह्मचर्य व्रत दिया था न? दोनों भाइयों ने कहा — पिता जी, हमें आठ दिन के लिये ब्रह्मचर्य व्रत दिया गया था, इसका न तो आपने हमसे स्पष्ट शब्दों में कहा था और न ही आचार्य महाराज ने। तब हम कैसे समझें कि वह व्रत आठ ही दिन के लिये था। इसलिये हम तो अब उसका आजन्म पालन करेंगे, ऐसी हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा है। हम अब विवाह नहीं करेंगे। यह कहकर दोनों भाइयों ने घर का सब कारोबार छोड़कर और अपना चित्त शास्त्राभ्यास की ओर लगाया।
थोड़े ही दिनों में ये अच्छे विद्वान् बन गये। इस समय बौद्धधर्म का बहुत जोर था। इसलिये इन्हें उसके तत्व जानने की इच्छा हुई । उस समय मान्यखेट में ऐसा कोई बौद्ध विद्वान् नहीं था, जिससे ये बौद्धधर्म का अभ्यास करते। इसलिये ये एक अज्ञ विद्यार्थी का वेश बनाकर महाबोधि नामक स्थान बौद्धधर्माचार्य के पास गये। आचार्य ने इनकी अच्छी तरह परीक्षा ली कि कहीं ये छली तो नहीं हैं, और जब उन्हें इनकी ओर से विश्वास हो गया तब वे और शिष्यों के साथ-साथ इन्हें भी पढ़ाने लगे। ये भी अन्तरंग में तो पक्के जिनधर्मी और बाहिर एक महामूर्ख बनकर स्वर व्यंजन सीखने लगे। निरन्तर बौद्धधर्म सुनते रहने से अकलंक देव की बुद्धि बड़ी विलक्षण हो गयी उन्हें एक ही बार के सुनने से कठिन से कठिन बात भी याद हो जाने लगी और निकलंक को दो बार सुनने से। अर्थात् अकलंक एक पाठी और निकलंक दो पाठी हो गये। इस प्रकार वहाँ रहते दोनों भाइयों को बहुत समय बीत गया।
एक दिन बौद्धगुरू अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे। उस समय प्रकरण था जैनधर्म के सप्तभंगी सिद्धान्त का। वहाँ कोई ऐसा अशुद्ध पाठ आ गया जो बौद्धगुरू की समझ में न आया, तब वे अपने व्याख्यान को वहीं समाप्त कर कुछ समय के लिये बाहर चले आये। अकलंक बुद्धिमान् थे, वे बौद्धगुरू के भाव समझ गये, इसलिये उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उस पाठ को शुद्ध कर दिया और उसकी खबर किसी को न होने दी। इतने में पीछे बौद्धगुरू आये। उन्होंने अपना व्याख्यान पुनः आरम्भ किया। जो पाठ अशुद्ध था, वह शुद्ध देखते ही उनकी समझ में आ गया। यह देख उन्हें सन्देह हुआ कि अवश्य इस जगह कोई जिनधर्म रूप समुद्र को बढ़ाने वाला चन्द्रमा है और वह बौद्ध वेष धारणकर बौद्धशास्त्र का अभ्यास कर रहा है उसका जल्दी ही पता लगाकर उसे मृत्यु दंड देना चाहिये।
इस विचार के साथ ही बौद्धगुरू ने सब विद्यार्थियों को शपथ, प्रतिज्ञा आदि देकर पूछा, पर जैनधर्मी का पता उन्हें नहीं लगा। इसके बाद उन्होंने जिन प्रतिमा मंगवाकर उसे लाँघ जाने के लिये सबको कहा। सब विद्यार्थी तो लाँघ गये, अब अकलंक की बारी आई, उन्होंने अपने कपड़े में से एक सूत का सूक्ष्म धागा निकालकर उसे प्रतिमा पर डाल दिया और उसे परिग्रही समझकर वे झट से लाँघ गये। यह कार्य इतनी जल्दी किया गया कि किसी की समझ में न आया। बौद्ध गुरू इस युक्ति में भी जब कृतकार्य नहीं हुए तब उन्होंने एक और नई युक्ति की। उन्होंने बहुत से काँसों के बर्तन इकट्ठे करवाये और उन्हें एक बड़ी बोरी में भरकर वह बहुत गुप्त रीति से विद्यार्थियों के सोने की जगह के पास रखवा दी और विद्यार्थियों की देख रेख के लिये अपना एक-एक गुप्तचर रख दिया। आधी रात का समय था सब विद्यार्थी नींद में थे। किसी को कुछ मालूम न था कि हमारे लिये क्या-क्या षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं। अचानक भयंकर कोलाहल हुआ, सब विद्यार्थी उस भयंकर आवाज से कांप उठे। वे अपना जीवन बहुत थोड़े समय के लिये समझकर अपने परमात्मा का स्मरण करने लगे। अकलंक ओर निकलंक भी पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करने लग गये। पास ही बौद्धगुरू का गुप्तचर खड़ा हुआ था। वह उन्हें बुद्ध भगवान् का स्मरण करने की जगह जिन भगवान् स्मरण करते देखकर उन दोनों को बौद्धगुरू के पास ले गया और गुरू से उसने प्रार्थना की। प्रभो ! आज्ञा कीजिये कि इन दोनों धूर्तों का क्या किया जाये? ये ही जैनी हैं। सुनकर वह बौद्धगुरू बोला—इस समय रात थोड़ी बीती है, इसलिये इन्हें ले जाकर कारागृह में बन्द कर दो, जब प्रातः काल हो जाये तब इन्हें मार डालना। गुप्तचर ने दोनों भाइयों को ले जाकर कारागृह में बंद कर दिया।
जब रात बीत चुकी और बौद्धगुरू को आज्ञानुसार उन दोनों भाइयों के मारने का समय आया तब उन्हें पकड़ लाने के लिये पहरेदार गये, पर वे कारागृह में जाकर देखते हैं तो वहाँ उनका पता नहीं। वे जेल से भाग गए थे। उन्हें उनके कहीं आस-पास छुपे होने का सन्देह हुआ। उन्होंने आस-पास के वन, जंगल, खंडहर, बावड़ी, कुएँ, पहाड़ गुफायें आदि सब एक-एक करके ढूँढ़ डाले, पर उनका कहीं पता न चला। फिर भी वह उनका पीछा करते रहे। निकलंक ने दूर तक देखा तो उसे आकाश में धूल उठती हुई दिखाई दी। उसने बड़े भाई से कहा—भैया ! हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल जाता है। खेद है परम पवित्र जिनशासन की हम लोग कुछ भी सेवा न कर सके। भैया ! देखो वे लोग हमें मारने के लिये पीछा किये चले आ रहे हैं। अब रक्षा होना असंभव है। हां मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है उसे आप करेंगे तो जैनधर्म का बड़ा उपकार होगा। आप बुद्धिमान हैं, एक पाठी हैं, आपके द्वारा जैनधर्म का खूब प्रकाश होगा। देखिये वह सरोवर है, उसमें बहुत से कमल हैं, आप जल्दी जाइये और तालाब के कमलों में अपने आप को छुपा लीजिये। जाइये, जल्दी कीजिये शत्रु पास आ रहे हैं। आप मेरी चिन्ता न कीजिये। मैं भी जहाँ होगा , जीवन की रक्षा करूंगा। और यदि मुझे अपना जीवन दे देना भी पड़े तो मुझे उसकी कुछ परवाह नहीं, और आप जीवित रहकर पवित्र जिन-शासन की भरपूर सेवा करना। आप जाइये, मैं भी अब यहाँ से भागता हूँ।
अकलंक की आँखो से आँसुओं की धार बह चली। उनका गला भ्रातृ-प्रेम से भर आया। वे भाई से एक अक्षर भी न कह पाये कि निकलंक वहाँ-से भाग गया। लाचार होकर अकलंक को अपने जीवन की नहीं, पवित्र जिन शासन की रक्षा के लिये कमलों में छुपना पड़ा।
निकलंक भागा जा रहा था, रास्ते में उसे एक धोबी मिला, धोबी ने आकाश में धूल की घटा छाई हुई देखकर निकलंक से पूछा, यह क्या हो रहा है? और तुम क्यों भागे जा रहे हो? निकलंक ने कहा-पीछे शत्रुओं की सेना आ रही है, इसीलिये मैं भागा जा रहा हूँ। ऐसा सुनते ही धोबी भी कपड़े बगैरह सब वैसे ही छोडकर निकलंक के साथ भाग खड़ा हुआ। वे दोनों भागते रहे। सिपाहियों ने उन्हें धर पकडा और तलवार से निकलंक और धोबी (अकलंक समझ कर ) दोनों का सिर काट दिया।
“जिनके हृदय में जीव मात्र को सुख पहुँचाने वाले जिनधर्म का लेश भी नहीं है, उन्हें दूसरों पर दया आ भी कैसे सकती है ?”
शत्रु अपना कामकर वापिस लौटे और इधर अकलंक अपने को निर्विघ्न समझ सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहाँ से चलते-चलते वे कुछ दिनों बाद कलिंग देशान्तर्गत रत्नसंचयपुर नामक शहर में पहुँचे। उस समय रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल थे। उनकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था,वह जिन भगवान् की बड़ी भक्त थी।
राजा हिमशीतल की रानी ने अष्टाह्निक पर्व में रथोत्सव का आयोजन करना चाहा था। वहाँ संधश्री नामक बौद्धों का प्रधान रहता था । उसे महारानी का कार्य सहन नहीं हुआ। उसने महाराज से कहकर रथयात्रोत्सव अटका दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्म का प्रचार न देखकर शास्त्रार्थ के लिये घोषणा भी करवा दी। महाराज ने अपनी महारानी से कहा—प्रिये, जब तक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरू के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव न फैलावेगा तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है। महारानी कहती है अब तो दिगम्बर गुरू की ही शरण है। हे स्वामी! मैं जिनमंदिर में जाती हूँ। वहाँ मुनियों को नमस्कार कर बोली प्रभो, महाराज का कहना है कि जब तक कोई जैनधर्मी महापुरुष बौद्धगुरु संघश्री को शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा हमारा जैनरथ नहीं निकल सकता है और न ही हम महामहोत्सव मना सकते हैं। हे गुरुदेव! अब आप ही बताइए कि ऐसा कौन सा विद्वान है जो उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित कर सके। मुनिवर कहते है - हे कल्याणि! मेरी समझ में यहाँ इस समय बौद्धगुरु से शास्त्रार्थ करने के लिए तो कोई विद्वान नहीं है। हाँ, मान्यखेट नगर में ऐसे विद्वान अवश्य हैं। उन्हें बुलवाने का आप प्रयास करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है। प्रभो! भला इससे क्या सिद्धि हो सकती है? जान पड़ता है कि आप लोग इस विपत्ति का तत्काल प्रतीकार नहीं कर सकते हैं। हे जिनेन्द्रदेव ! क्या अब जैनधर्म का पतन कराना ही आपको इष्ट है और जब मेरे पवित्र जैनधर्म की यह दुर्दशा होगी तो मैं जीकर क्या करूंगी? हे त्रिलोकीनाथ! जब तक संघश्री का अभिमान चूर-चूर नहीं हो जाता और मेरा रथोत्सव ठाठ-बाट के साथ नहीं निकल जाता तब तक मेरा चतुराहार का त्याग है। मैं जैनधर्म की अवमानना नहीं देख सकती। ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा कर रानी कायोत्सर्ग मुद्रा में बैठकर णमोकार मंत्र का स्मरण करने लगीं।
“भव्यजीवों को जिनभक्ति का फल अवश्य मिलता है।”
कुछ समय बाद प्रसेनजित् नामक राजकीय पुरुष आकर निवेदन करके बोले महारानी की जय हो ! महारानी, प्रसन्नता की बात है कि पूर्व दिशा की ओर बगीचे में अशोकवृक्ष के नीचे अपने बहुत से शिष्यों के साथ आचार्य श्री अकलंकदेव विराजमान हुए हैं। इतना सुनकर प्रसन्न मन से रानी अपनी सखियों को साथ लेकर अर्घ आदि के साथ वहाँ पहुँचती हैं और भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम करती हैं, पुन: उनकी पूजन कर उनके चरणों के निकट बैठ जाती हैं। तब अकलंकदेव आशीर्वाद देकर पूछते हैं देवी ! आप सकुशल तो हैं और राज्य में सब सकुशल तो है। रानी अविरल अश्रुधारा बहाते हुए मौन सी हो जाती है तब अकलंकदेव पूछते हैं—हे कल्याणी ! राजा हिमशीतल की प्रजा को आज इतना सुख मिल रहा है फिर उनकी पट्टरानी होकर आपकी आँखों से ऐसी अविरल अश्रुधारा क्यों ! बोलो ! क्या बात है ? धैर्य धारण करो और बात बताओ। महारानी कहती है - प्रभो ! राज्य में सब सकुशल है परन्तु इस समय जिनधर्म का घोर अपमान हो रहा है। इसका मुझे बहुत कष्ट है। हे गुरुवर ! बौद्ध के गुरू संघश्री ने मेरा रथोत्सव रुकवा दिया है और घोषणा कर दी है कि यदि कोई जैन विद्वान् उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा तभी जैनरथ निकलेगा अन्यथा नहीं। परम पूज्य जिनधर्म का ऐसा अपमान देख मैंने चतुराहार त्यागकर जिनधर्म की शरण ली है। हे भगवन् ! अब जैनधर्म की रक्षा आपके हाथों में है। अकलंकदेव कहते है - अब चिन्ता मत करो। वह समय निकट ही है जब तुम बौद्ध गुरू की पराजय देखोगी। तुम संघश्री के शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करो। महारानी कहती है - प्रभो ! अब आप शहर के मंदिर में पधारें। (अकलंकदेव अपने शिष्यों के साथ शहर के मंदिर में ठहर जाते हैं। संघश्री के पास शास्त्रार्थ की चुनौती का पत्र पहुंचता है। उसकी लेखन शैली देखकर ही वह क्षुभित हो जाते हैं और आखिरकार शास्त्रार्थ के लिए तैयार हो ही जाते हैं।)
राजा हिमशीतल की सभा खचाखच भरी है। एक ओर श्री अकलंकदेव ससंघ विराजमान हैं दूसरी ओर बौद्ध धर्माचार्य संघश्री ससंघ विराजमान है। दोनों के मध्य शास्त्रार्थ प्रारंभ होता है और शास्त्रार्थ होते-होते छह महीना बीत जाते है। इसके पश्चात् अकलंकदेव शास्त्रार्थ में बौद्ध गुरु को पराजित कर देते है। अकलंकदेव के इस विजय और जिन-धर्म की प्रभावना से मदनसुन्दरी और सर्वसाधारण को बड़ा आनन्द हुआ।
अकलंकदेव के प्रभाव से जिनशासन का उपद्रव टला देखकर महारानी मदनसुन्दरी ने पहले से भी कई गुणे उत्साह से रथ निकलवाया। रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था। उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी।
इस प्रकार अकलंक देव ने जैन धर्म की रक्षा की और जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया। जिस प्रकार अकलंकदेव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की, उसका महत्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार भव्य पुरूषों को भी जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए और जैनधर्म के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसे पूरा करना चाहिए।
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