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विष्णुकुमार रक्षा बंधन पर्व कथा || Jain Vishnu Kumar Muni Raksha bandhan festival story

रक्षाबंधन पर्व जैन समुदाय द्वारा हर्षपूर्वक मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन विष्णु कुमार मुनिराज ने ७०० मुनियों पर हो रहे उपसर्ग को दूर किया था। जैन धर्म में रक्षाबंधन इसी कारण से मनाया जाता है।

जैन धर्म के 19 वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ स्वामी के समय में हस्तिनापुर में महापद्म नामक चक्रवर्ती का राज्य था तथा उनकी रानी लक्ष्मी मति थी. उसके दो पुत्र विष्णुकुमार और पद्म थे| जब राजा महापद्म को संसार भोगो के प्रति वैराग्य हुआ, तब उन्होंने दीक्षा लेने का विचार किया| फिर राजा ने अपना राज्य अपने बड़े पुत्र को देने का निश्चय किया, तो विष्णु कुमारजी ने राज्य लेने से मना कर दिया|

विष्णु कुमारजी ने अपने पिताजी पूछा कि आप यह चक्रवर्ती का पद, छह खंड का साम्राज्य, पूरा भरत क्षेत्र क्यों छोड़ रहे हो? तब राजा महापद्म ने कहा कि अब मैं जान गया हूँ कि इस संसार में सार नहीं है| तब फिर विष्णु कुमारजी ने पूंछा कि जब इस संसार में कोई सार नहीं है और आप स्वयं भी जब इस संसार को छोड़ रहे है, तो क्या आपको इस तरह की असार वस्तु को अपने बेटे को भेंट करना चाहिए?

जो सच्चे पिता होते हैं, वो अपने बेटे को अच्छी चीज़ ही देते हैं| हे पिता जी, मैं भी समझ रहा हूँ कि इस संसार में कोई सार नहीं है| मुझे भी अब वैराग्य आ गया है| अतः मुझे भी दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान करें| तब राजा महापद्म ने अपने छोटे पुत्र पद्म को पूरा राज्य दे दिया| फिर राजा महापद्म तथा उनके सुपुत्र विष्णु कुमार ने जाकर सागरचन्द्र आचार्य से दीक्षा ले ली|

शीघ्र ही महापद्म मुनिराज ने घातिया कर्मो को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया और फिर मोक्ष में चले गये| लेकिन मुनि विष्णु कुमारजी घनघोर तपस्या में लीन रहे| तपस्या करते-करते उन्हें बहुत सी ऋद्धिया प्राप्त हो गयी|

इसी बीच उस समय के भारतवर्ष में एक और घटना घटती है, जो इस प्रकार से है –

अवन्ती देश की उज्जयिनी नगरी में राजा श्री वर्मा राज्य करते थे| उसके यहाँ चार मंत्री थे – बलि, ब्रहस्पति, प्रह्लाद और शुक्र|इन चारो की धार्मिक मान्यताये राजा से अलग प्रकार की थी|

एक बार परमयोगी दिगम्बर जैन मुनि अकंपनाचार्य अपने सात सौ मुनि शिष्यों के साथ ससंघ उज्जयिनी पधारे। तब उज्जयिनी के राजा और सारी प्रजा अष्ट द्रव्य का थाल सजा कर अत्यंत उत्साहपूर्वक मुनिराजो के दर्शन के लिए निकलती है| उसी समय मुनिश्री अकंपनाचार्य को अपने अवधिज्ञान से पता चला जाता है कि इस राज्य के सभी मंत्री दूसरे धर्म को मानने वाले हैं, इसलिए इस राज्य में किसी भी तरह का किसी से भी वार्तालाप, चर्चा या संपर्क मुनिसंघ के हित में नहीं है| इसलिए उन्होंने सारे संघ को उन्होंने आदेश दे दिया कि सब मौन धारण करेंगे|

जब राजा और प्रजा ने वहां पर जाकर वंदना करने के पश्चात मुनिराजों से निवेदन किया कि हे ज्ञानवान गुरुवर, हमें धर्म का उपदेश दीजिये, जिससे हम अपने सम्पूर्ण जीवन को सफल बना सके, लेकिन किसी भी मुनिराज ने कोई भी जवाब नहीं दिया, क्योकि सब साधु मौन थे, प्रयास करने पर भी किसी भी मुनिराजों ने अपना मौन नहीं खोला,तब इन चारों मंत्रियो ने राजा को बोला कि अरे ये मुनिराज तो निरे अंगूठे-छाप हैं इनको कुछ आता नहीं है|

अगर इन मुनिराजो को कुछ आता होता, तो ये ऐसे मौन नहीं रहते| बस जैन साधु बनने पर इनको सम्मान, भोजन आदि मिल जाता है| यही कारण इनकी जैनेश्वरी दीक्षा लेने का है इसके सिवा कोई और कारण नहीं है, आप इनसे धर्मं का स्वरुप पूछ रहे हैं लेकिन ये सब मुनि जानते हैं कि इनको कुछ नहीं आता है| हे राजन, जब आपके साथ हमारे सरीखे इतने विद्वान् मंत्री हैं, तो ये कैसे कुछ बोले?

अतः ये चुप ही रह रहे हैं और कुछ नहीं बोल रहे हैं| इसके बाद राजा के साथ वे सब नगर की और लौटने लगे| तब रास्ते में इसी संघ के एक श्रुतसागर नामक मुनिराज को आता देख, इन चारो मंत्रियों में से एक मंत्री बोला –

अरे देखो, कैसा जवान बैल चला आ रहा है इन मुनिराज को पता नहीं था कि आचार्य श्री ने सबको मौन रहने आदेश किया है,अतः इन मुनिराज ने मौन व्रत नहीं लिया था इसलिए इन्होंने “स्यात” शब्द बोला, तो राजा को लगा ये साधु तो मौन नहीं है, तब राजा ने पूछा कि इसका अर्थ क्या है,

तब मुनिराज बोलते हैं कि इस संसार में भ्रमण करने वाला जीव कभी बैल योनी में भी उत्पन्न हो जाता है बैल में जवानी की दशा भी बनती है, तो उस भूतपूर्व अवस्था से आपके मंत्रियों ने सही कहा है| तो एक मंत्री बोलता है कि क्या आप मानते है पुनर्जन्म?

किसने देखा है पुनर्जन्म?

जो आँखों से नहीं देखा सा सकता, वो सत्य कैसे हो सकता है? तब मुनिराज तत्काल उत्तर देते हैं कि तुम्हारे माता, पिता की विवाह विधि हुई थी| क्या वो तुमने देखी थी? वो मंत्री कहता है कि हाँ हुई थी, तब मुनि बोलते हैं कि तुम कैसे कह सकते हो कि विवाह विधि हुई थी| तो मंत्री बोलता है कि हुई तो थी, लेकिन तुम तो बोल रहे हो कि जो आँखों से दिखता है, वही सच होता है| तो मंत्री बोलता है कि मैंने सुना है तो फिर मुनि बोले कि फिर तुम्हारी पहली बात झूठी सिद्ध हो रही है ये सुनते ही उस मंत्री को कुछ जवाब समझ में नहीं आया, तो फिर मुनिराज बोले कि जो हम आत्मा, परमात्मा की धारणा को लेकर चल रहे हैं, वो भी हमने सुनी है, हमने हमारे सदगुरु से, उन्होंने गणधर परमेष्ठी से गणधर परमेष्ठी ने उनके गुरु तीर्थंकर भगवान् – सर्वज्ञ से ये बात सुनी है| इस तरह अनादिकाल से आजतक यह मान्यता चली आ रही है| इसलिए हम भी उस पर अविश्वास नहीं करते हैं| इस प्रकार इन मंत्री के पास अब कोई जवाब नहीं था, अतः ये चारो मंत्री उन मुनिराज से परास्त हो गए, बात तो सच ही है| जो ज्ञानी महात्मा हैं, जिनको चारो अनुयोगो का ज्ञान है, उन आत्मज्ञानी महापुरुष को कोई जीत नहीं सकता है| वाद-विवाद में उनको कोई पराजित नहीं कर सकता है|

जो लोग थोडा बहुत पढ़ कर तर्क-वितर्क करने लग जाते हैं, वो अपनी ही बात से खुद ही पराजित हो जाते हैं | इस तरह स्यादवाद के धारक मुनिराज ने सबको पराजित कर दिया और वो सब मंत्री गण परास्त होकर म्लान मुख हो चले जाते हैं| इसके बाद मुनि श्रुतसागर जी आचार्य अकम्पनाचार्य जी के पास जाते है तथा उनको सब मंत्रियों से हुए समस्त वार्तालाप को बता देते हैं कि रास्ते ये घटना हुई तो मुझे थोड़ा सा शास्त्रार्थ करना पड़ा और वो परास्त हो गये तब वे आचार्य बोलते हैं कि तुमने मुनि संघ के ऊपर संकट ला दिया है, अब इस संकट से बचने का एक मात्र उपाए यही हो सकता है कि तुम पुनः उसी स्थान पर चले जाओ और कायोत्सर्ग मुद्रा में मौन होकर खड़े हो जाओ इससे संकट भी टल जायेगा और कायोत्सर्ग करने से तुमसे गुरु की आज्ञा की अनजाने में जो भूल हो गयी है, उसका भी प्रायश्चित हो जायेगा| 

तब वे मुनि श्रुतसागर आचार्यश्री को नमस्कार कर चले गए और उसी स्थान पर जाकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो गये| उधर उन चारो मंत्रियो ने बैठक में विचार किया कि इन साधुओं के कारण हमारी ऐसी बदनामी हुई है, अतः हम अब इन सब मुनियों को मार डालेंगे, तो दूसरा बोला कि सब मुनियों की हत्या करना व्यर्थ है|

अंत में निर्णय यह निकलता है कि जिस मुनि के कारण हमको इतनी बदनामी हुई है, उसी मुनि की हत्या करनी चाहिए अतः अब हम रातो-रात उस मुनि को मार डालेंगे| फिर चारो मंत्रीगण रात को उसी मार्ग से निकलते हैं रास्ते में चांदनी रात में श्रुतसागर मुनिराज को कायोत्सर्ग मुद्रा में देख कर पहचान लेते हैं और सोचते हैं कि चलो अच्छा हुआ, हमारा दुश्मन तो यही खड़ा है चारो मंत्रियों ने तलवार उठा ली और जैसे ही वो मारने को होते हैं, तब उस जगह का वन देवता उनके हाथो को कीलित कर देता है, जिससे उनके शरीर जकड़ जाते हैं और वे रात भर इसी मुद्रा में खड़े रह जाते हैं|

सुबह जब जनता मुनिराजो को वंदना के लिए निकलती है, तब रास्ते में इन दुष्टों को मुनिराज को मारने के लिए तलवार उठाये कीलित मुद्रा में देख कर अत्यंत क्रोधित होकर राजा को बताती है तब राजा बहुत कुपित होता है कि इन दुष्टों ने इतना नीचा कार्य करने की कोशिश की फिर राजा उन चारो मंत्रियो को अपमान पूर्वक देश निकाले का दंड देकर अवन्ती देश से निष्काषित कर देते हैं |

इसी बीच हस्तिनापुर के राजा पद्म पर सिंहबल नामक राजा चढ़ाई करता है, तब ये चारो मंत्री अपने छल-बल से सिंहबल राजा को बंदी बनाकर राजा पद्म के सामने ले आते हैं तब राजा पद्म बहुत प्रसन्न होता है, और बोलता है कि तुम सभी को मैं मंत्री बनाता हूँ और साथ में तुमको अगर कोई वरदान मांगना हो, तो मांग़ लो|

बलि मंत्री बोला, जब वक़्त होगा तब मागेंगे और इस तरह वो सभी हस्तिनापुर राज्य के मंत्री बन जाते हैं एक बार इस राज्य में भी अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनिराजो का संघ चौमासा के लिए आता है| अब जैसे ही इन मंत्रियों को इस बात का पता चलता है, वे सभी राजा पद्म के पास जाते हैं और राजा से वरदान में सात दिन का राज्य मानते हैं| अब ये चारो मंत्री राजा बनते ही मुनिसंघ के चारो ओर एक बाड़ी लगा देते है फिर उसमे अग्नि जलाकर यज्ञ प्रारंभ करते हैं और लकड़ी आदि जलाने लगते हैं तब चारो ओर बहुत सारा धुवाँ फ़ैल जाता है. यह धुवां मुनिराजों के गले, नासिका में चले जाने से मुनिराजो को अत्यंत कष्ट हो जाता है लेकिन फिर भी वो सभी मुनिराज समता धारण कर वही पर अपने आत्म चिन्तन में लीन हो जाते हैं और आहार-जल का त्याग कर देते हैं| इधर इस यज्ञ का धुवाँ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था और मुनिराजों का दर्द भी बढ़ता जा रहा था। मुनियों के गले रुंधने लगे, आंखों में पानी आने लगा और उनके लिए सांस लेना भी मुश्किल हो गया।  छठी रात को इस अत्यंत पीड़ादायक घटना से श्रवण नक्षत्र भी कम्पायमान हो उठता है|

इस स्थल से बहुत दूर विराजमान अवधिज्ञान के धारी आचार्य सागरचन्द्रजी ने इस कम्पित नक्षत्र को देखकर जाना कि ये बहुत अमंगलकारी अशुभ संकेत है और फिर वे मुनिराज अपने अवधिज्ञान से जान गए कि अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनिराजों पर प्राण संकट आया हुआ है तब एकदम से उनके मुख से “आह… !” ये शब्द निकलते हैं|

तब उन्होंने संघ में एक क्षुल्लकजी (पुष्पदंत ) जिनके पास आकाशगामिनी विद्या थे, उनको आधी रात को ही बुलाया और बोला कि तुम तत्काल जाकर धरणीभूषण पर्वत पर विराजमान विष्णु कुमार मुनि को जाकर बता देना कि वे विक्रिया ऋद्धिधारी मुनि हैं और इन 700 मुनिराजों पर आये इस भीषण संकट का निवारण सिर्फ वे ही कर सकते हैं| 

तब वे क्षुल्लक जी आकाश मार्ग से चले जाते है और विष्णु कुमार मुनि को सब बताते हैं. तब इन मुनिराज को याद आता है कि हस्तिनापुर का राज्य तो मेरे पूर्व भाई का राज्य है. फिर उनके राज्य में 700 मुनिराजों पर यह विकट संकट कैसे आया? साथ ही उनको खुद की कठोर तपस्या में लीन रहने से यह पता ही नहीं चला था कि उनको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गयी है अतः वे मुनिराज इस ऋद्धि को जांचने के लिए अपना हाथ आगे बढाते हैं, तो वो उनका हाथ पर्वतो को पार करता हुआ, समुद्रो को पार करता हुआ, मनुष्य लोक की अंतिम सीमा तक चला गया और फिर उन्होंने अपने हाथ को वापस कर लिया और समझ गए कि मुझे ये ऋद्धि तो प्राप्त हो गयी है फिर वे विष्णुकुमार मुनि तत्काल वहां से आकाश मार्ग से हस्तिनापुर आ जाते हैं और अपने पूर्व के छोटे भाई राजा पद्म से पूंछते हैं कि तुम्हारे राजा होते हुए इन 700 मुनिराजों पर इतना बड़ा संकट क्यों आया?

राजा पद्म बताता है कि अगर मैं राजा होता तो कभी ये नहीं होने देता लेकिन अभी मेरा राज्य सात दिनों के लिए उन मंत्रियो के पास है. अतः मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूँ| कृपया आप कुछ उपाय करे क्योकि इस वीभत्स कार्य से हम सब अत्यंत दुखी और परेशान हैं तब विष्णुकुमार मुनि विक्रिया ऋद्धि से अपना रूप बदल कर वामन का रूप धारण करते हैं. फिर वे वहां जाकर बड़ी सुन्दर आवाज में वीणा को लेकर वेदपाठ प्रारम्भ करते हैं तब बलि राजा बहुत अच्छे से उस वामन का स्वागत करते है और पूछते हैं कि हे विप्र आप क्या चाहते हो?

आपका इतना सुन्दर वेदपाठ सुनकर हम प्रसन्न हो गये हैं आज किमिचिक दान का दिन है आपको जो भी माँगना है, वो मांग लो तब वह वामन ऋषि कहते हैं कि हमें संपत्ति तो नहीं चाहिए, लेकिन तीन डग जमीन चाहिए तब राजा बलि उसे तीन डग जमीन देने का वादा करते हैं तब विष्णु कुमार मुनि बोलते है “लो बलि राजा, मैं तीन डग जमीन नापता हूँ ”

ऐसा बोलते ही उनके शरीर का आकर बढ़ना प्रारंभ हो जाता है,और इतना विशाल हो जाता है कि ज्योतिष पटल [ तारा मंडल ] से उनका सर टकराता है, फिर वो एक पैर तो जम्बूदीप की वेदी पर रखते है, दूसरा सुमेरु पर्वत पर रखते हैं यानी दो पैर में उन्होंने सुमेरु पर्वत से मानुषोत्तर पर्वत तक सम्पूर्ण मनुष्य लोक को नाप लिया, अब तीसरा पैर के लिए उनके लिए कोई स्थान बचा ही नहीं था अतः उनका पैर हवा पर लहरा रहा था तब देव लोक में हलचल मच गयी, मध्य लोक के देवता लोग भी घबरा गये, उन सबने विचार किया कि अगर अभी इन मुनिराज को शांत नहीं किया, तो उनकी नज़र मात्र से तीनो लोक कंपित हो सकते हैं और असमय में प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है तब देवता गण उनको शांत करने के लिए चार वीणा मंगवाते है, और फिर वीणा से इतना सुन्दर संगीत बजाते हुए क्षमा के गीत गाते हैं तब मुनिराज शांत होकर फिर से सामान्य रूप में दिगंबर मुद्रा में खड़े हो जाते हैं तब राजा बलि आश्चर्य में पड़ जाता है कि जैन साधु में इतनी क्षमता कि दो डग में पूरा मनुष्य लोक नाप लिया और मैं बड़ा दान वीर बना फिरता था|

सभी देवताओ ने फिर बलि आदि मंत्रियों को बाँध दिया और इन मुनिराजो के चरणों में डाल दिया तब ये सभी मंत्री समस्त 700 मुनिराजों से माफ़ी मांगते हैं, तब मुनिराज उसको क्षमा कर देते हैं| साथ ही उन मुनिराजो का उपसर्ग भी देवता लोग मिटा देते हैं और वातावरण को भी सुमुधर तथा सुगंधित बना देते हैं लेकिन जो धुवां उन मुनिराजो के अन्दर चला गया था, उससे उनको बहुत तकलीफ हो रही थी फिर सुबह जब पूर्णिमा का यह रक्षाबंधन का दिन उदित होता है, तब सभी 700 मुनिराजजी आहार के लिए जाते हैं, तो पूरी हस्तिनापुर नगरी के श्रावक लोग ऐसा सुमुधर आहार निर्माण करते हैं जिससे इन सभी 700 मुनिराजों की कंठ की पीड़ा ठीक हो जाए फिर इन सभी 700 मुनिराजों को खीर में घी डालकर उसका आहार देते हैं. इस आहार से मुनि महाराजो के गले में शांति होती है और वे सभी लोगो को उनके कल्याण का उपदेश देते हैं|

इस दिन पूरे राज्य और देश में एक अद्भुत वात्सल्य का, एक दूसरे के प्रति सम्मान और आदर का भावुक वातावरण बन गया फिर सभी लोगो ने एक दूसरे के हाथो में पतला सा धागा सूत्र बांधा और संकल्प लिया, कसम खायी कि कभी भी देव-शास्त्र-गुरु पर संकट आयेगा, तो हम सब मिलकर उनका सामना करेगे| इसके बाद वे विष्णुकुमार मुनि अपने गुरु के पास जाते हैं और अपने इस रूप बदलने का प्रायश्चित लेते हैं और अंत में वे विष्णुकुमार मुनिराज भी उसी जन्म में सभी धातिया और अधातिया कर्मो का नाश कर उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं|

इस तरह चैतन्यदेव की सर्वोच्च शक्ति को दर्शाने वाले आत्म धर्म के शास्त्रों में परमपूज्य मोक्षगामी विष्णुकुमार मुनिराज की यह अद्भुत कथा जैन शास्त्रों में रक्षाबंधन पर्व के रूप में मनायी जाती है|

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|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...