अनुपम करुणा की सु-मूर्ति शुभ, शिव मन्दिर अघनाशक मूल ।
भयाकुलित व्याकुल मानव के, अभयप्रदाता अति- अनुकूल ॥
बिन कारन भवि जीवन तारन, भवसमुद्र में यान-समान।
ऐसे पद्मप्रभु पारस, के पद अर्चू मैं नित अम्लान॥१॥
जिसकी अनुपम गुणगरिमा का, अम्बुराशि सा है विस्तार |
यश-सौरभ सु-ज्ञान आदि का, सुरगुरु भी नहिं पाता पार ॥
हठी कमठ शठ के मदमर्दन, को जो धूमकेतु-सा शूर ।
अति आश्चर्य कि स्तुति करता, उसी तीर्थपति की भरपूर ॥२॥
अगम अथाह सुखद शुभ सुन्दर, सत्स्वरूप तेरा अखिलेश !
क्यों कर कह सकता है मुझसा, मन्दबुद्धि मूरख करुणेश ! ॥
सूर्योदय होने पर जिसको, दिखता निज का गात नहीं ।
दिवाकीर्ति क्या कथन करेगा, मार्तण्ड का नाथ ! कहीं ? ॥३ ॥
यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय - विधि के क्षय से ।
तो भी गिन न सकेँ गुण तुव सब, मोहेतर कर्मोदय से ॥
प्रलयकाल में जब जलनिधि का, बह जाता है सब पानी ।
रत्नराशि दिखने पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानी ? ॥४ ॥
तुम अतिसुन्दर शुद्ध अपरिमित, गुणरत्नों की खानिस्वरूप ।
वचननि करि कहने को उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप ॥
यथा मन्दमति लघुशिशु अपने, दोऊ कर को कहै पसार ।
जल - निधि को देखहु रे मानव, है इसका इतना आकार ॥५ ॥
हे प्रभु! तेरे अनुपम सब गुण, मुनिजन कहने में असमर्थ ।
मुझसा मूरख औ अबोध क्या, कहने को हो सके समर्थ ॥
पुनरपि भक्तिभाव से प्रेरित, प्रभु-स्तुति को बिना विचार ।
करता हूँ, पंछी ज्यों बोलत, निश्चित बोली के अनुसार ॥६॥
है अचिन्त्य महिमा स्तुति की, वह तो रहे आपकी दूर।
जब कि बचाता भव- दुःखों से, मात्र आपका ‘नाम’ जरूर ॥
ग्रीष्म कु-ऋतु के तीव्र ताप से, पीड़ित पन्थी हुये अधीर ।
पद्म-सरोवर दूर रहे पर, तोषित करता सरस- समीर ॥७ ॥
मन-मन्दिर में वास करहिं जब, अश्वसेन- वामा-नन्दन ।
ढीले पड़ जाते कर्मों के, क्षण भर में दृढ़तर बन्धन ॥
चन्दन के विटपों पर लिपटे, हों काले विकराल भुजङ्ग ।
वन-मयूर के आते ही ज्यों, होते उनके शिथिलित अङ्ग ॥८ ॥
बहु विपदाएँ प्रबल वेग से, करें सामना यदि भरपूर ।
प्रभु दर्शन से निमिषमात्र में, हो जातीं वे चकनाचूर ॥
जैसे गो-पालक दिखते ही, पशु-कुल को तज देते चोर ।
भयाकुलित हो करके भागें, सहसा समझ हुआ अब भोर ॥९ ॥
भक्त आपके भव-पयोधि से, तिर जाते तुमको उर धार ।
फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ़ पतवार ॥
वह ऐसे, जैसी तिरती है, चर्म- मसक जल के ऊपर ।
भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर ॥१० ॥
जिसने हरिहरादि देवों का, खोया यश-गौरव- सम्मान ।
उस मन्थन का हे प्रभु! तुमने, क्षण में मेट दिया अभिमान ॥
सच है जिस जल से पल-भर में, दावानल हो जाता शान्त ।
क्यों न जला देता उस जल को ? बडवानल होकर अश्रांत ॥ ११ ॥
छोटी-सी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान अपार ।
धार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ॥
पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहिं ।
प्रभु की महिमा ही अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकैं बनाहिं ॥१२ ॥
क्रोध शत्रु को पूर्व शमन कर, शान्त बनायो मन- आगार ।
कर्म-चोर जीते फिर किस विध, हे प्रभु अचरज अपरम्पार ॥
लेकिन मानव अपनी आँखों, देखहु यह पटतर संसार ।
क्यों न जला देता वन-उपवन, हिम-सा शीतल विकट तुषार ॥१३॥
शुद्धस्वरूप अमल अविनाशी, परमातम सम ध्यावहिं तोय।
निजमन कमल-कोष मधि ढूंढ़हिं, सदा साधु तजि मिथ्या-मोह ॥
अतिपवित्र निर्मल सु-कांति युत, कमलकर्णिका बिन नहिं और ।
निपजत कमलबीज उसमें ही, सब जग जानहिं और न ठौर ॥१४ ॥
जिस कुधातु से सोना बनता, तीव्र अग्नि का पाकर ताव।
शुद्ध स्वर्ण हो जाता जैसे, छोड़ उपलता पूर्व विभाव ॥
वैसे ही प्रभु के सु-ध्यान से, वह परिणति आ जाती है।
जिसके द्वारा देह त्याग, परमात्मदशा पा, जाती है ॥१५ ॥
जिस तन से भवि चिन्तन करते, उस तन को करते क्यों नष्ट ।
अथवा ऐसा ही स्वरूप है, है दृष्टान्त एक उत्कृष्ट ॥
जैसे बीचवान बन सज्जन, बिना किए ही कुछ आग्रह ।
झगड़े की जड़ प्रथम हटाकर, शांत किया करते विग्रह ॥ १६ ॥
हे जिनेन्द्र ! तुम में अभेद रख, योगीजन निज को ध्याते ।
तव प्रभाव से तज विभाव वे, तेरे ही सम हो जाते ॥
केवल जल को दृढ़-श्रद्धा से, मानत है जो सुधासमान ।
क्या न हटाता विष विकार वह, निश्चय से करने पर पान ॥ १७ ॥
मिथ्या-तन-अज्ञान रहित, सुज्ञानमूर्ति हे परम यती ।
हरिहराद ही मान अर्चना करते तेरी मन्दमती ॥
है यह निश्चय प्यारे मित्रो, जिनके होत पीलिया रोग ।
श्वेत शंख को विविध वर्ण, विपरीत रूप देखे वे लोग ॥ १८ ॥
धर्म देशना के सुकाल में, जो समीपता पा जाता ।
मानव की क्या बात कहूँ तरु, तक अ-शोक है हो जाता ॥
जीव-वृन्द नहिं केवल जाग्रत, रवि के प्रकटित ही होते ।
तरु तक सजग होत अति हर्षित, निद्रा तज आलस खोते ॥१९॥
है विचित्रता सुर बरसाते, सभी ओर से सघन - सुमन ।
नीचे डंठल ऊपर पंखुरी, क्यों होते हैं हे भगवान ॥
है निश्चित, सुजनों सुमनों के नीचे को होते बन्धन ।
तेरी समीपता की महिमा है, हे वामा देवी नन्दन ॥ २० ॥
अति गम्भीर हृदय-सागर से, उपजत प्रभु के दिव्यवचन ।
अमृततुल्य मान कर मानव, करते उनका अभिनन्दन ॥
पी-पीकर जग-जीव वस्तुतः, पा लेते आनन्द अपार ।
अजर अमर हो फिर वे जग की, हर लेते पीड़ा का भार ॥२१॥
दुरते चारु- चँवर अमरों से, नीचे से ऊपर जाते ।
भव्यजनों को विविधरूप से, विनय सफल वे दर्शाते ॥
शुद्धभाव से नतशिर हो जो, तव पदाब्ज में झुक जाते ।
परमशुद्ध हो ऊर्ध्वगती को, निश्चय करि भविजन पाते ॥२२॥
उज्ज्वल हेम सुरत्न पीठ पर, श्याम सु-तन शोभित अनुरूप ।
अतिगंभीर सु-निःसृत वाणी, बतलाती है सत्य स्वरूप ॥
ज्यों सुमेरु पर ऊँचे स्वर से, गरज गरज घन बरसें घोर ।
उसे देखने सुनने को जन, उत्सुक होते जैसे मोर ॥२३॥
वतन भा-मण्डल से होते, सुरतरु के पल्लव छवि - छीन ।
प्रभु प्रभाव को प्रकट दिखाते हो जड़ रूप चेतना-हीन ॥
जब जिनवर की समीपतातैं, सुरतरु हो जाता गत- राग ।
तब न मनुज क्यों होवेगा जप, वीतराग खो करके राग ॥ २४ ॥
नभ-मण्डल में गूँज गूँज कर, सुरदुन्दुभि कर रही निनाद ।
रे रे प्राणी आतम हित नित, भज ले प्रभु को तज परमाद ॥
मुक्ति धाम पहुँचाने में जो, सार्थवाह बन तेरा साथ।
देंगे त्रिभुवनपति परमेश्वर, विघ्नविनाशक पारसनाथ ॥२५ ॥
अखिल विश्व में हे प्रभु! तुमने, फैलाया है विमल - प्रकाश ।
अतः छोड़कर स्वाधिकार को, ज्योतिर्गण आया तव पास ॥
मणिमुक्ताओं की झालर युत, आतपत्र का मिस लेकर ।
त्रिविध-रूप धर प्रभु को सेवे, निशिपति तारान्वित होकर ॥२६ ॥
हेम-रजत- माणिक से निर्मित, कोट तीन अति शोभित से।
तीन लोक एकत्रित होके, किये प्रभु को वेष्ठित से ॥
अथवा कान्ति-प्रताप - सुयश के, संचित हुए सुकृत से ढेर ।
मानो चारों दिशि से आके, लिया इन्होंने प्रभु को घेर ॥ २७ ॥
झुके हुये इन्द्रों मुकुटों, को तज करके सुमनों के हार ।
रह जाते जिन चरणों में ही, मानो समझा श्रेष्ठ आधार ॥
प्रभु का समागम सुन्दर तज, सु-मनस कहीं न जाते हैं।
तव प्रभाव से वे त्रिभुवनपति ! भव-समुद्र तिर जाते हैं ॥ २८ ॥
भव-सागर से तुम पराङ्मुख, भक्तों को तारो कैसे ।
यदि तारो तो कर्म-पाक के रस से शून्य अहो कैसे ॥
अधोमुखी परपक्व कलश ज्यों, स्वयं पीठ पर रख करके ।
जाता है पार सिन्धु के, तिरकर और तिरा करके ॥ २९ ॥
जगनायक जगपालक होकर, तुम कहलाते दुर्गत क्यों ।
यद्यपि अक्षर मय स्वभाव है तो, फिर अलिखित अक्षत क्यों ॥
ज्ञान झलकता सदा आप में, फिर क्यों कहलाते अनजान ।
स्व-पर प्रकाशक अज्ञ जनों को, हे प्रभु! तुम ही सूर्य समान ॥३०॥
पूरव वैर विचार क्रोध करि, कमठ धूलि बहु बरसाई ।
कर न सका प्रभु तव तन मैला, हुआ मलिन खुद दुखदाई ॥
कर करके उपसर्ग घनेरे, थक कर फिर वह हार गया ।
कर्मबन्ध कर दुष्ट प्रपंची, मुँह की खाकर भाग गया ॥ ३१ ॥
उमड़ घुमड़ कर गर्जत बहुविध, तड़कत बिजली भयकारी ।
बरसा अति घनघोर दैत्य ने, प्रभु के सिर पर कर डारी ॥
प्रभु का कुछ न बिगाड़ सकी वह, मूसल सी मोटी धारा ।
स्वयं कमठ ने हठधर्मी वश, निग्रह अपना कर डारा ॥ ३२ ॥
कालरूप विकराल वृक्ष विच, मृतमुंडन की धरि माला ।
अधिक भयावह जिनके मुख से निकल रही अग्निज्वाला ॥
अगणित प्रेत पिशाच असुर ने, तुम पर स्वामिन भेज दिये।
भव भव के दुख हेतु क्रूर ने, कर्म अनेकों बांध लिए ॥ ३३ ॥
पुलकित वदन सु-मन हर्षित हो, जो जन तज मायाजंजाल ।
त्रिभुवनपति के चरण-कमल की, सेवा करते तीनों काल ॥
तुव प्रसाद भविजन सारे, लग जाते भवसागर पार ।
मानव जीवन सफल बनाते, धन्य-धन्य उनका अवतार ॥३४॥
इस असीम भव-सागर में नित, भ्रमत अकथ बहु दुख पायो ।
तोऊ सु-वश तुम्हारो सांचो, नहिं कानों मैं सुन पायो ॥
प्रभु का नाम - मंत्र यदि सुनता, चित्त लगा करके भरपूर ।
तो यह विपदारूपी नागिन, पास न आती रहती दूर ॥ ३५ ॥
पूरव भव में तव चरनन की, मनवांछित फल की दातार ।
की न कभी सेवा भावों से, मुझ को हुआ आज निरधार ॥
अत: रंक जन मेरा करते, हास्य सहित अपमान अपार ।
सेवक अपना मुझे बना लो, अब तो हे प्रभु जगदाधार ॥३६ ॥
दृढ़ निश्चय करि मोह- तिमिर से, मुँदे -मुँदे से थे लोचन ।
देख सका ना उनसे तुमको, एक बार हे दुःखमोचन ॥
दर्शन कर लेता गर पहिले, तो जिसकी गति प्रबल अरोक ।
मर्मच्छेदी महा अनर्थक, माना कभी न दुख के थोक ॥३७||
देखा भी है, पूजा भी है, नाम आपका श्रवण किया।
भक्तिभाव अरु श्रद्धापूर्वक, किन्तु न तेरा ध्यान किया ॥
इसीलिए तो दुखों का मैं, गेह बना हूँ निश्चित ही ।
फलै न किरिया बिना भाव के, है लोकोक्ति सुप्रचलित ही ॥ ३८ ॥
दीन दुखी जीवों के रक्षक, हे करुणा सागर प्रभुवर ।
शरणागत के हे प्रतिपालक, हे पुण्योत्पादक! जिनेश्वर ॥
हे जिनेश! मैं भक्तिभाव वश, शिर धरता तुमरे पग पर ।
दुःख मूल निर्मूल करो प्रभु, करुणा करके अब मुझ पर ॥ ३९ ॥
हे शरणागत के प्रतिपालक, अशरण जन को एक शरण ।
कर्मविजेता त्रिभुवन नेता, चारु चन्द्रसम विमल चरण ॥
तव पद- पङ्कजपा करके हे, प्रतिभाशाली बड़भागी।
कर न सका यदि ध्यान आपका, हूँ अवश्य तब हतभागी ॥ ४० ॥
अखिल वस्तु के जान लिए हैं, सर्वोत्तम जिसने सब सार ।
हे जगतारक! हे जगनायक! दुखियों के हे करुणागार ॥
वन्दनीय हे दयासरोवर ! दीन दुखी का हरना त्रास ।
महा-भयङ्कर भवसागर से, रक्षा कर अब दो सुखवास ॥ ४१ ॥
एक मात्र है शरण आपकी, ऐसा मैं हूँ दीनदयाल ।
पाऊँफल यदि किञ्चित करके, चरणों की सेवा चिरकाल ॥
तो हे तारनतरन नाथ हे अशरण शरण मोक्षगामी ।
बने रहें इस परभव में बस, मेरे आप सदा स्वामी ॥४२ ॥
हे जिनेन्द्र ! जो एकनिष्ठ तव, निरखत इकटक कमल-वदन ।
भक्तिसहित सेवा से पुलकित, रोमाञ्चित है जिनका तन ॥
अथवा रोमावलि के ही जो, पहिने हैं कमनीय वसन ।
यों विधिपूर्वक स्वामिन् तेरा, करते हैं जो अभिनन्दन ॥ ४३ ॥
जन- दृगरूपी ‘कुमुद’ वर्ग के, विकसावनहारे राकेश ।
भोग भोग स्वर्गों के वैभव, अष्टकर्मफल कर निःशेष ॥
स्वल्पकाल में मुक्तिधाम की, पाते हैं वे दशाविशेष ।
जहाँ सौख्यसाम्राज्य अमर है, आकुलता का नहीं प्रवेश ॥४४॥
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