Skip to main content

कल्याण मन्दिर स्तोत्र पद्यानुवाद || Shri Kalyan Mandir Stotra translation


 अनुपम करुणा की सु-मूर्ति शुभ, शिव मन्दिर अघनाशक मूल ।

भयाकुलित व्याकुल मानव के, अभयप्रदाता अति- अनुकूल ॥

बिन कारन भवि जीवन तारन, भवसमुद्र में यान-समान।

ऐसे पद्मप्रभु पारस, के पद अर्चू मैं नित अम्लान॥१॥


जिसकी अनुपम गुणगरिमा का, अम्बुराशि सा है विस्तार |

यश-सौरभ सु-ज्ञान आदि का, सुरगुरु भी नहिं पाता पार ॥

हठी कमठ शठ के मदमर्दन, को जो धूमकेतु-सा शूर ।

अति आश्चर्य कि स्तुति करता, उसी तीर्थपति की भरपूर ॥२॥


अगम अथाह सुखद शुभ सुन्दर, सत्स्वरूप तेरा अखिलेश !

क्यों कर कह सकता है मुझसा, मन्दबुद्धि मूरख करुणेश ! ॥

सूर्योदय होने पर जिसको, दिखता निज का गात नहीं ।

दिवाकीर्ति क्या कथन करेगा, मार्तण्ड का नाथ ! कहीं ? ॥३ ॥


यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय - विधि के क्षय से ।

तो भी गिन न सकेँ गुण तुव सब, मोहेतर कर्मोदय से ॥

प्रलयकाल में जब जलनिधि का, बह जाता है सब पानी ।

रत्नराशि दिखने पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानी ? ॥४ ॥


तुम अतिसुन्दर शुद्ध अपरिमित, गुणरत्नों की खानिस्वरूप ।

वचननि करि कहने को उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप ॥

यथा मन्दमति लघुशिशु अपने, दोऊ कर को कहै पसार ।

जल - निधि को देखहु रे मानव, है इसका इतना आकार ॥५ ॥


हे प्रभु! तेरे अनुपम सब गुण, मुनिजन कहने में असमर्थ ।

मुझसा मूरख औ अबोध क्या, कहने को हो सके समर्थ ॥

पुनरपि भक्तिभाव से प्रेरित, प्रभु-स्तुति को बिना विचार ।

करता हूँ, पंछी ज्यों बोलत, निश्चित बोली के अनुसार ॥६॥

है अचिन्त्य महिमा स्तुति की, वह तो रहे आपकी दूर।

जब कि बचाता भव- दुःखों से, मात्र आपका ‘नाम’ जरूर ॥

ग्रीष्म कु-ऋतु के तीव्र ताप से, पीड़ित पन्थी हुये अधीर ।

पद्म-सरोवर दूर रहे पर, तोषित करता सरस- समीर ॥७ ॥


मन-मन्दिर में वास करहिं जब, अश्वसेन- वामा-नन्दन ।

ढीले पड़ जाते कर्मों के, क्षण भर में दृढ़तर बन्धन ॥

चन्दन के विटपों पर लिपटे, हों काले विकराल भुजङ्ग ।

वन-मयूर के आते ही ज्यों, होते उनके शिथिलित अङ्ग ॥८ ॥


बहु विपदाएँ प्रबल वेग से, करें सामना यदि भरपूर ।

प्रभु दर्शन से निमिषमात्र में, हो जातीं वे चकनाचूर ॥

जैसे गो-पालक दिखते ही, पशु-कुल को तज देते चोर ।

भयाकुलित हो करके भागें, सहसा समझ हुआ अब भोर ॥९ ॥


भक्त आपके भव-पयोधि से, तिर जाते तुमको उर धार ।

फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ़ पतवार ॥

वह ऐसे, जैसी तिरती है, चर्म- मसक जल के ऊपर ।

भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर ॥१० ॥


जिसने हरिहरादि देवों का, खोया यश-गौरव- सम्मान ।

उस मन्थन का हे प्रभु! तुमने, क्षण में मेट दिया अभिमान ॥

सच है जिस जल से पल-भर में, दावानल हो जाता शान्त ।

क्यों न जला देता उस जल को ? बडवानल होकर अश्रांत ॥ ११ ॥


छोटी-सी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान अपार ।

धार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ॥

पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहिं ।

प्रभु की महिमा ही अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकैं बनाहिं ॥१२ ॥


क्रोध शत्रु को पूर्व शमन कर, शान्त बनायो मन- आगार ।

कर्म-चोर जीते फिर किस विध, हे प्रभु अचरज अपरम्पार ॥

लेकिन मानव अपनी आँखों, देखहु यह पटतर संसार ।

क्यों न जला देता वन-उपवन, हिम-सा शीतल विकट तुषार ॥१३॥


शुद्धस्वरूप अमल अविनाशी, परमातम सम ध्यावहिं तोय।

निजमन कमल-कोष मधि ढूंढ़हिं, सदा साधु तजि मिथ्या-मोह ॥

अतिपवित्र निर्मल सु-कांति युत, कमलकर्णिका बिन नहिं और ।

निपजत कमलबीज उसमें ही, सब जग जानहिं और न ठौर ॥१४ ॥


जिस कुधातु से सोना बनता, तीव्र अग्नि का पाकर ताव।

शुद्ध स्वर्ण हो जाता जैसे, छोड़ उपलता पूर्व विभाव ॥

वैसे ही प्रभु के सु-ध्यान से, वह परिणति आ जाती है।

जिसके द्वारा देह त्याग, परमात्मदशा पा, जाती है ॥१५ ॥


जिस तन से भवि चिन्तन करते, उस तन को करते क्यों नष्ट ।

अथवा ऐसा ही स्वरूप है, है दृष्टान्त एक उत्कृष्ट ॥

जैसे बीचवान बन सज्जन, बिना किए ही कुछ आग्रह ।

झगड़े की जड़ प्रथम हटाकर, शांत किया करते विग्रह ॥ १६ ॥


हे जिनेन्द्र ! तुम में अभेद रख, योगीजन निज को ध्याते ।

तव प्रभाव से तज विभाव वे, तेरे ही सम हो जाते ॥

केवल जल को दृढ़-श्रद्धा से, मानत है जो सुधासमान ।

क्या न हटाता विष विकार वह, निश्चय से करने पर पान ॥ १७ ॥


मिथ्या-तन-अज्ञान रहित, सुज्ञानमूर्ति हे परम यती ।

हरिहराद ही मान अर्चना करते तेरी मन्दमती ॥

है यह निश्चय प्यारे मित्रो, जिनके होत पीलिया रोग ।

श्वेत शंख को विविध वर्ण, विपरीत रूप देखे वे लोग ॥ १८ ॥


धर्म देशना के सुकाल में, जो समीपता पा जाता ।

मानव की क्या बात कहूँ तरु, तक अ-शोक है हो जाता ॥

जीव-वृन्द नहिं केवल जाग्रत, रवि के प्रकटित ही होते ।

तरु तक सजग होत अति हर्षित, निद्रा तज आलस खोते ॥१९॥


है विचित्रता सुर बरसाते, सभी ओर से सघन - सुमन ।

नीचे डंठल ऊपर पंखुरी, क्यों होते हैं हे भगवान ॥

है निश्चित, सुजनों सुमनों के नीचे को होते बन्धन ।

तेरी समीपता की महिमा है, हे वामा देवी नन्दन ॥ २० ॥


अति गम्भीर हृदय-सागर से, उपजत प्रभु के दिव्यवचन ।

अमृततुल्य मान कर मानव, करते उनका अभिनन्दन ॥

पी-पीकर जग-जीव वस्तुतः, पा लेते आनन्द अपार ।

अजर अमर हो फिर वे जग की, हर लेते पीड़ा का भार ॥२१॥


दुरते चारु- चँवर अमरों से, नीचे से ऊपर जाते ।

भव्यजनों को विविधरूप से, विनय सफल वे दर्शाते ॥

शुद्धभाव से नतशिर हो जो, तव पदाब्ज में झुक जाते ।

परमशुद्ध हो ऊर्ध्वगती को, निश्चय करि भविजन पाते ॥२२॥


उज्ज्वल हेम सुरत्न पीठ पर, श्याम सु-तन शोभित अनुरूप ।

अतिगंभीर सु-निःसृत वाणी, बतलाती है सत्य स्वरूप ॥

ज्यों सुमेरु पर ऊँचे स्वर से, गरज गरज घन बरसें घोर ।

उसे देखने सुनने को जन, उत्सुक होते जैसे मोर ॥२३॥


वतन भा-मण्डल से होते, सुरतरु के पल्लव छवि - छीन ।

प्रभु प्रभाव को प्रकट दिखाते हो जड़ रूप चेतना-हीन ॥

जब जिनवर की समीपतातैं, सुरतरु हो जाता गत- राग ।

तब न मनुज क्यों होवेगा जप, वीतराग खो करके राग ॥ २४ ॥


नभ-मण्डल में गूँज गूँज कर, सुरदुन्दुभि कर रही निनाद ।

रे रे प्राणी आतम हित नित, भज ले प्रभु को तज परमाद ॥

मुक्ति धाम पहुँचाने में जो, सार्थवाह बन तेरा साथ।

देंगे त्रिभुवनपति परमेश्वर, विघ्नविनाशक पारसनाथ ॥२५ ॥


अखिल विश्व में हे प्रभु! तुमने, फैलाया है विमल - प्रकाश ।

अतः छोड़कर स्वाधिकार को, ज्योतिर्गण आया तव पास ॥

मणिमुक्ताओं की झालर युत, आतपत्र का मिस लेकर ।

त्रिविध-रूप धर प्रभु को सेवे, निशिपति तारान्वित होकर ॥२६ ॥


हेम-रजत- माणिक से निर्मित, कोट तीन अति शोभित से।

तीन लोक एकत्रित होके, किये प्रभु को वेष्ठित से ॥

अथवा कान्ति-प्रताप - सुयश के, संचित हुए सुकृत से ढेर ।

मानो चारों दिशि से आके, लिया इन्होंने प्रभु को घेर ॥ २७ ॥


झुके हुये इन्द्रों मुकुटों, को तज करके सुमनों के हार ।

रह जाते जिन चरणों में ही, मानो समझा श्रेष्ठ आधार ॥

प्रभु का समागम सुन्दर तज, सु-मनस कहीं न जाते हैं।

तव प्रभाव से वे त्रिभुवनपति ! भव-समुद्र तिर जाते हैं ॥ २८ ॥


भव-सागर से तुम पराङ्मुख, भक्तों को तारो कैसे ।

यदि तारो तो कर्म-पाक के रस से शून्य अहो कैसे ॥

अधोमुखी परपक्व कलश ज्यों, स्वयं पीठ पर रख करके ।

जाता है पार सिन्धु के, तिरकर और तिरा करके ॥ २९ ॥


जगनायक जगपालक होकर, तुम कहलाते दुर्गत क्यों ।

यद्यपि अक्षर मय स्वभाव है तो, फिर अलिखित अक्षत क्यों ॥

ज्ञान झलकता सदा आप में, फिर क्यों कहलाते अनजान ।

स्व-पर प्रकाशक अज्ञ जनों को, हे प्रभु! तुम ही सूर्य समान ॥३०॥


पूरव वैर विचार क्रोध करि, कमठ धूलि बहु बरसाई ।

कर न सका प्रभु तव तन मैला, हुआ मलिन खुद दुखदाई ॥

कर करके उपसर्ग घनेरे, थक कर फिर वह हार गया ।

कर्मबन्ध कर दुष्ट प्रपंची, मुँह की खाकर भाग गया ॥ ३१ ॥


उमड़ घुमड़ कर गर्जत बहुविध, तड़कत बिजली भयकारी ।

बरसा अति घनघोर दैत्य ने, प्रभु के सिर पर कर डारी ॥

प्रभु का कुछ न बिगाड़ सकी वह, मूसल सी मोटी धारा ।

स्वयं कमठ ने हठधर्मी वश, निग्रह अपना कर डारा ॥ ३२ ॥


कालरूप विकराल वृक्ष विच, मृतमुंडन की धरि माला ।

अधिक भयावह जिनके मुख से निकल रही अग्निज्वाला ॥

अगणित प्रेत पिशाच असुर ने, तुम पर स्वामिन भेज दिये।

भव भव के दुख हेतु क्रूर ने, कर्म अनेकों बांध लिए ॥ ३३ ॥


पुलकित वदन सु-मन हर्षित हो, जो जन तज मायाजंजाल ।

त्रिभुवनपति के चरण-कमल की, सेवा करते तीनों काल ॥

तुव प्रसाद भविजन सारे, लग जाते भवसागर पार ।

मानव जीवन सफल बनाते, धन्य-धन्य उनका अवतार ॥३४॥


इस असीम भव-सागर में नित, भ्रमत अकथ बहु दुख पायो ।

तोऊ सु-वश तुम्हारो सांचो, नहिं कानों मैं सुन पायो ॥

प्रभु का नाम - मंत्र यदि सुनता, चित्त लगा करके भरपूर ।

तो यह विपदारूपी नागिन, पास न आती रहती दूर ॥ ३५ ॥


पूरव भव में तव चरनन की, मनवांछित फल की दातार ।

की न कभी सेवा भावों से, मुझ को हुआ आज निरधार ॥

अत: रंक जन मेरा करते, हास्य सहित अपमान अपार ।

सेवक अपना मुझे बना लो, अब तो हे प्रभु जगदाधार ॥३६ ॥


दृढ़ निश्चय करि मोह- तिमिर से, मुँदे -मुँदे से थे लोचन ।

देख सका ना उनसे तुमको, एक बार हे दुःखमोचन ॥

दर्शन कर लेता गर पहिले, तो जिसकी गति प्रबल अरोक ।

मर्मच्छेदी महा अनर्थक, माना कभी न दुख के थोक ॥३७||


देखा भी है, पूजा भी है, नाम आपका श्रवण किया।

भक्तिभाव अरु श्रद्धापूर्वक, किन्तु न तेरा ध्यान किया ॥

इसीलिए तो दुखों का मैं, गेह बना हूँ निश्चित ही ।

फलै न किरिया बिना भाव के, है लोकोक्ति सुप्रचलित ही ॥ ३८ ॥


दीन दुखी जीवों के रक्षक, हे करुणा सागर प्रभुवर ।

शरणागत के हे प्रतिपालक, हे पुण्योत्पादक! जिनेश्वर ॥

हे जिनेश! मैं भक्तिभाव वश, शिर धरता तुमरे पग पर ।

दुःख मूल निर्मूल करो प्रभु, करुणा करके अब मुझ पर ॥ ३९ ॥


हे शरणागत के प्रतिपालक, अशरण जन को एक शरण ।

कर्मविजेता त्रिभुवन नेता, चारु चन्द्रसम विमल चरण ॥

तव पद- पङ्कजपा करके हे, प्रतिभाशाली बड़भागी।

कर न सका यदि ध्यान आपका, हूँ अवश्य तब हतभागी ॥ ४० ॥


अखिल वस्तु के जान लिए हैं, सर्वोत्तम जिसने सब सार ।

हे जगतारक! हे जगनायक! दुखियों के हे करुणागार ॥

वन्दनीय हे दयासरोवर ! दीन दुखी का हरना त्रास ।

महा-भयङ्कर भवसागर से, रक्षा कर अब दो सुखवास ॥ ४१ ॥


एक मात्र है शरण आपकी, ऐसा मैं हूँ दीनदयाल ।

पाऊँफल यदि किञ्चित करके, चरणों की सेवा चिरकाल ॥

तो हे तारनतरन नाथ हे अशरण शरण मोक्षगामी ।

बने रहें इस परभव में बस, मेरे आप सदा स्वामी ॥४२ ॥


हे जिनेन्द्र ! जो एकनिष्ठ तव, निरखत इकटक कमल-वदन ।

भक्तिसहित सेवा से पुलकित, रोमाञ्चित है जिनका तन ॥

अथवा रोमावलि के ही जो, पहिने हैं कमनीय वसन ।

यों विधिपूर्वक स्वामिन् तेरा, करते हैं जो अभिनन्दन ॥ ४३ ॥


जन- दृगरूपी ‘कुमुद’ वर्ग के, विकसावनहारे राकेश ।

भोग भोग स्वर्गों के वैभव, अष्टकर्मफल कर निःशेष ॥

स्वल्पकाल में मुक्तिधाम की, पाते हैं वे दशाविशेष ।

जहाँ सौख्यसाम्राज्य अमर है, आकुलता का नहीं प्रवेश ॥४४॥

Comments

Popular posts from this blog

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) || BHAKTAMAR STOTRA ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ... || कविश्री पं. हेमराज << >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें..<< https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान

कल्याण मन्दिर स्तोत्र || Shri Kalyan Mandir Stotra Sanskrit

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो

लघु शांतिधारा - Laghu Shanti-Dhara

||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद

समाधी मरण | Samadhi Maran Path

गौतम स्वामी वन्दों नामी मरण समाधि भला है। मैं कब पाऊँ निशदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है॥ देव-धर्म-गुरु प्रीति महादृढ़ सप्त व्यसन नहिं जाने। त्यागे बाइस अभक्ष्य संयमी बारह व्रत नित ठाने॥१॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधे। बनिज करै परद्रव्य हरे नहिं छहों करम इमि साधे॥ पूजा शा गुरुन की सेवा संयम तप चहु दानी। पर-उपकारी अल्प-अहारी सामायिक-विधि ज्ञानी॥२॥ जाप जपै तिहूँ योग धरै दृढ़ तन की ममता टारै। अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचारै॥ आग लगै अरु नाव डुबै जब धर्म विघन है आवे। चार प्रकार अहार त्याग के मंत्र सु मन में ध्यावै॥३॥ रोग असाध्य जरा बहु देखै कारण और निहारे। बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवन को डारै॥ जो न बनै तो घर में रहकरि सब सों होय निराला। मात-पिता सुत-तिय को सोंपे निजपरिग्रह अहि काला ४ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुखिया धन देई। क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मन की शल्य हनेई॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरै मैं बहु कीन बुराई। तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सब बगसो भाई॥५॥ धन धरती जो मुख सों मांगै सबको दे सन्तोषै। छहों काय के प्र

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) || BHAKTAMAR STOTRA (HINDI

|| भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी) ||  कविश्री पं. हेमराज आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमूं आदि अवतार || (चौपाई छन्द) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें । जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव | शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२|| विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन | जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३|| गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार | प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४|| सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ | ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५|| मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम | ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६|| तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं | ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७|| तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ज्यो

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द

RISHIMANDAL STOTRAM / ऋषिमण्डल स्तोत्रम्

ऋषिमण्डल स्तोत्रम् आद्यंताक्षरसंलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यत्स्थितम् | अग्निज्वालासमं नादं बिन्दुरेखासमन्वितम् ||१|| अग्निज्वाला-समाक्रान्तं मनोमल-विशोधनम् | दैदीप्यमानं हृत्पद्मे तत्पदं नौमि निर्मलम् ||२|| युग्मम् | ॐ नमोऽर्हद्भ्य : ऋषेभ्य: ॐ सिद्धेभ्यो नमो नम: | ॐ नम: सर्वसूरिभ्य: उपाध्यायेभ्य: ॐ नम: ||३|| ॐ नम: सर्वसाधुभ्य: तत्त्वदृष्टिभ्य: ॐ नम: | ॐ नम: शुद्धबोधेभ्यश्चारित्रेभ्यो नमो नम: ||४|| युग्मम् | श्रेयसेऽस्तु श्रियेऽस्त्वेतदर्हदाद्यष्टकं शुभम् | स्थानेष्वष्टसु संन्यस्तं पृथग्बीजसमन्वितम् ||५|| आद्यं पदं शिरो रक्षेत् परं रक्षतु मस्तकम् | तृतीय रक्षेन्नेत्रे द्वे तुर्यं रक्षेच्च नासिकाम् ||६|| पंचमं तु मुखं रक्षेत् षष्ठं रक्षतु कण्ठिकाम् | सप्तमं रक्षेन्नाभ्यंतं पादांतं चाष्टमं पुन: ||७|| युग्मम् | पूर्व प्रणवत: सांत: सरेफो द्वित्रिपंचषान् | सप्ताष्टदशसूर्यांकान् श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् ||८|| पूज्यनामाक्षराद्यास्तु पंचदर्शनबोधकम् | चारित्रेभ्यो नमो मध्ये ह्रीं सांतसमलंकृतम ||9|| जाप्य मंत्र:- ॐ ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रूं ह

जलाभिषेक - Jal abhishek Mantra -Duravnamra

दुरावनम्र-सुरनाथ-किरीट-कोटि- संलग्न-रत्न-किरण-च्छवि-धुसराध्रिम । प्रस्वेद-ताप-मल-मुक्तमपि-प्रकृष्टै- र्भक्तया जलै-र्जिनपर्ति बहुधाभिषेच्चे ।। मंत्र-१: ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनाभिषेचयामीस्वाहा । मंत्र-२: ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं क्रपालसंतम वृषभादि वर्धमानांत-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परमदेवं आध्यानाम आध्ये जम्बुदीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे देशे.... नाम नगरे एतद .... जिन चैत्यालये वीर निर्वाणसंवत ...... मासोत्तम-मासे ...... मासे . पक्षे........ तिथौ ......... वासरे प्रशस्त ग्रहलग्न होरायं मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्रविकानाम सकलकर्म-क्षयार्थ जलेनाभिषेकं करोमि स्वाहा । इति जलस्नपनम् अभिषेक से संबंधित रचना See More >>