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आचार्य श्री विद्यासागर जी हायकू || Acharya Vidhya sagar ji hayaku

आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने हायकू सन् 1996 में गिरनारजी यात्रा (तारंगाजी) के दौरान लिखना प्रारंभ किया।दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इन दिनों (Japanese Haiku, 俳句 ) जापानी हायकू (कविता) की रचना कर रहे हैं | हाइकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। महाकवी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लगभग 500 हायकू लिखे हैं, जो अप्रकाशित हैं। कुछ हायकू इस प्रकार हैं :-

१‍ – जुड़ो ना जोड़ो, जोड़ा छोड़ो जोड़ो तो, बेजोड़ जोड़ो।
२ – संदेह होगा, देह है तो देहाती ! विदेह हो जा |
३ – ज्ञान प्राण है, संयत हो त्राण है , अन्यथा श्वान|
४ – छोटी दुनिया, काया में सुख दुःख, मोक्ष नरक |
५ – द्वेष से बचो, लवण दूर् रहे, दूध न फटे |
६ – किसी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं |
७ – तेरी दो आँखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा |
८ – चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है |
९ – मैं निर्दोषी हूँ, प्रभु ने देखा वैसा, किया करता।
१‍० – आज्ञा का देना, आज्ञा पालन से है, कठिनतम।

१‍१‍ – तीर्थंकर क्यों, आदेश नहीं देते, सो ज्ञात हुआ।
१‍२ – साधु वृक्ष है, छाया फल प्रदाता, जो धूप खाता।
१‍३ – गुणालय में, एकाध दोष कभी, तिल सा लगे।
१‍४ – पक्ष व्यामोह, लौह पुरुष के भी, लहू चूसता।
१‍५ – पूर्ण पथ लो, पाप को पीठ दे दो, वृत्ति सुखी हो।
१‍६ – भूख मिटी है, बहुत भूख लगी, पर्याप्त रहें।
१‍७ – टिमटिमाते, दीपक को भी देख, रात भा जाती।
१‍८ – परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ्य ध्यान में (बस हो गया)।
१‍९ – प्रभु ने मुझे, जाना माना परन्तु, अपनाया ना।
२० – कलि न खिली, अंगुली से समझो, योग्यता क्या है ?

२१‍ – आँखें लाल है, मन अन्दर कौन दोनों में दोषी?
२२ – इष्ट-सिध्दि में, अनिष्ट से बचना, दुष्टता नहीं।
२३ – सामायिक में, कुछ न करने की, स्थिति होती है।
२४ – मद का तेल, जल चुका सो बुझा , विस्मय दीप।
२५ – ध्वजा वायु से, लहराता पै वायु, आगे न आती।
२६ – ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकाता सो, स्मृति हो आती।
२७ – तैराक बना, बनूँ गोताखोर सो, अपूर्व दिखे।
२८ – वर्षा के बाद, कड़ी मिट्टी सी माँ हो, दोषी पुत्र पे।
२९ – कछुवे सम, इन्द्रिय संयम से, आत्म रक्षा हो।
३० – डूबना ध्यान, तैरना स्वाध्याय है, अब तो डूबो।

३१‍ – गुरु मार्ग में, पीछे की वायु सम, हमें चलाते।
३२ – संघर्ष में भी, चंदन सम सदा, सुगन्धि बाटूँ।
३३ – प्रदर्शन तो, उथला है दर्शन, गहराता है।
३४ – योग साधन, है उपयोग शुद्धि, साध्य सिद्ध हो।
३५ – योग प्रयोग, साधन है साध्य तो, सदुपयोग।
३६ – धर्म का फल, बाद में न अभी है, पाप का क्षय।
३७ – पर पीड़ा से, अपनी करुणा सो, सक्रिय होती।
३८ – सीना तो तानो, पसीना तो बहा दो, सही दिशा में।
३९ – प्रश्नों से परे, अनुत्तर है उन्हें , मेरा नमन।
४० – फूल खिला पै, गंध न आ रही सो, काग़ज़ का है।

४१‍ – सरोवर का, अन्तरंग छुपा है ? तरंग वश।
४२ – मान शत्रु है, कछुवा बनूँ बचूँ, खरगोश से।
४३ – हायकू कृति, तिपाई सी अर्थ को, ऊँचा उठाती।
४४ – अधूरा पूरा, सत्य हो सकता है, बहुत नहीं।
४५ – भूख लगी है, स्वाद लेना छोड़ दें, भर लें पेट।
४६ – ज्ञानी कहता, जब बोलूँ अपना, स्वाद छूटता।
४७ – गुरू ने मुझे, प्रकट कर दिया, दीया दे दिया।
४८ – नीर नहीं तो, समीर सही प्यास, कुछ तो बुझे।
४९ – निजी प्रकाश, किसी प्रकाशन में, कभी दिखा है।
५० – जितना चाहो, जो चाहो जब चाहो, क्यों कभी मिला।

५१‍ – वैधानिक तो, पहले बनो फिर, धनिक बनो।
५२ – टिमटिमाते, दीप को भी पीठ  दे, भागती रात ।
५३ – रोगी की नहीं, रोग की चिकित्सा हो, अन्यथा भोगो।
५४ – देखा ध्यान में, कोलाहल मन का, नींद ले रहा।
५५ – मिट्टी तो खोदो, पानी को खोजो नहीं, पानी फूटेगा।
५६ – सुनना हो तो, नगाड़े के साथ में, बाँसुरी सुनो।
५७ – मलाई कहाँ, अशान्त दूध में सो, प्रशान्त बनो।
५८ – कब पता न, मरण निश्चित है, फिर डर क्यों ?
५९ – भरा घट भी, खाली सा जल में, सो हवा से बचो।
६० – नौ मास उल्टा, लटका आज तप (रहा पेट में) कष्टकर क्यों?

६१‍ – मोक्षमार्ग तो, भीतर अधिक है, बाहर कम।
६२ – गूँगा गुड़ का, स्वाद क्या नहीं लेता ? वक्ता क्यों बनो?
६३ – कमल खिले, दिन के ग्रहण में, करबद्ध हों।
६४ – पैर उठते, सीधे मोही के भी पै, उल्टे पड़ते।
६५ – भूत सपना, वर्तमान अपना, भावी कल्पना।
६६ – काले मेघ भी, नीचे तपी धरा को, देख रो पड़े।
६७ – घी दूध पुन:, बने तो मुक्त पुन:, हम से रागी।
६८ – उससे डरो, जो तुम्हारे क्रोध को, पीते ही जाते।
६९ – शून्य को देखूँ, वैराग्य बढ़े-बढ़े, नेत्र की ज्योति।
७० – पौधे न रोपे, छाया और चाहते, निकम्मे से हो। (पौरुष्य नहीं)

७१‍ – उनसे मत, डरो जिन्हें देख के, पारा न चढ़े।
७२ – क्या सोच रहे, क्या सोचूँ जो कुछ है, कर्म के धर्म।
७३ – तुम्बी तैरती, औरों को भी तारती, छेद वाली क्या ?
७४ – आलोचन से, लोचन खुलते हैं, सो स्वागत है।
७५ – दुग्ध पात्र में, नीलम सा जीव है, तनु प्रमाण ।
७६ – स्वानुभव की, समीक्षा पर करें, तो आँखें सुने।
७७ – स्वानुभव की, प्रतिक्षा स्व करे तो, कान देखता।
७८ – मूल बोध में, बड़ की जटायें, सी, व्याख्यायें न हो।
७९ – मन अपना, अपने विषय में, क्यों न सोचता ?
८० – स्थान समय, दिशा आसन इन्हें , भूलते ध्यानी।

८१‍ – चिन्तन न हो, तो चिन्ता मत करो, चित्स्वरूपी हो।
८२ – एक आँख भी, काम में आती पर, एक पंख क्या ?
८३ – नय-नय है, विनय पुरोधा (प्रमुख) है, मोक्षमार्ग में।
८४ – सम्मुख जा के, दर्पण देखता तो (दर्पण में देखा पै) मैं नहीं दिखा।
८५ – पाषाण भीगे, वर्षा में हमारी भी, यही दशा है।
८६ – आपे में न हो (नहीं), तभी तो अस्वस्थ हो, अब तो आओ।
८७ – दीप अनेक, प्रकाश में प्रकाश, एक मेक सा।
८८ – होगा चाँद में, दाग चाँदनी में ना, ताप मिटा लो ।
८९ – प्रतिशोध में, ज्ञानी भी अन्धा होता, शोध तो दूर।
९० – निद्रा वासना, दो बहनें हैं जिन्हें, लज्जा न छूती।

९१‍ – जिस बोध में, लोकालोक तैरते,उसे नमन।
९२ – उजाले में हैं, उजाला करते हैं, गुरु को वंदू ।
९३ – उन्हें जिनके, तन-मन नग्न हैं, मेरे नमन।
९४ – शिव पथ के, कथक वचन भी, शिरोधार्य हो।
९५ – व्यंग का संग, सकलांग से नहीं, विकलांग से।
९६ – कुछ न चाहूँ, आप से आप करें, बस ! सद्ध्यान।
९७ – बड़ तूफाँ में, शीर्षासन लगाता, बेंत झुकता।
९८ – आशा जीतना, श्रेष्ठ निराशा से तो, सदाशा भली।
९९ – समानान्तर, दो रेखाओं में मैत्री, पल सकती।
१‍०० – प्राय: अपढ़, दीन हों,पढ़े मानी, ज्ञानी विरले।

१‍०१‍ – कच्चा घड़ा है, काम में न लो, बिना, अग्नि परीक्षा।
१‍०२ – पक्षी कभी भी, दूसरों के नीड़ों में, घुसते नहीं।
१‍०३ – तरंग देखूँ, भंगुरता दिखती, ज्यों का त्यों ‘तोय’।
१‍०४ – बिना प्रमाद, श्वसन क्रिया सम, पथ पे चलूँ।
१‍०५ – दृढ़-ध्यान में, ज्ञेय का स्पन्दन भी, बाधक नहीं।
१‍०६ – शब्द पंगु हैं, जवाब न देना भी, लाजवाब है।
१‍०७ – पराश्रय से, मान बोना हो, कभी, दैन्द्य-लाभ भी।
१‍०८ – वक़्ता व श्रोता, बने बिना, गूँगा सा, निजी-स्वाद ले।
१‍०९ – नियन्त्रण हो, निज पे, दीप बुझे, निजी श्वांस से।
१‍१‍० – अपना ज्ञान, शुध्द-ज्ञान न, जैसे, वाष्प, पानी न।

१‍१‍१‍ – औरों को नहीं, प्रभु को देखूँ तभी, मुस्कान बाटूँ।
१‍१‍२ – अपमान को, सहता आ रहा है, मान के लिए।
१‍१‍३ – मान चाहूँ ना, पै अपमान अभी, सहा न जाता।
१‍१‍४ – यशोगन्ध की, प्यासी नासा स्वयं तू, निर्गन्धा है री !
१‍१‍५ – दमन, चर्म-, चक्षु का हो, नमन, ज्ञान चक्षु को।
१‍१‍६ – गाय बताती, तप्त-लोह पिण्ड को, मुख में ले ‘सत्’।
१‍१‍७ – कुछ स्मृतियाँ, आग उगलती, तो, कुछ सुधा सी।
१‍१‍८ – मरघट में, घूँघट का क्या काम?, घट कहाँ है ?
१‍१‍९ – पुण्य-फूला है, पापों का पतझड़, फल अनंत। (अमाप)
१‍२० – गन्ध सुहाती, निम्ब -पुष्पों की, स्वाद।, उल्टी कराता।

१‍२१‍ – युवा कपोल, कपोल-कल्पित है, वृध्द-बोध में।
१‍२२ – लोहा सोना हो, पारस से परन्तु, जंग लगा क्या ?
१‍२३ – गुणी का पक्ष,लेना ही विपक्ष पे, वज्रपात है।
१‍२४ – बिना डाँट के, शिष्य और शीशी का, भविष्य ही क्या ?
१‍२५ – प्रकाश में ना…, प्रकाश को पढ़ो तो, भूल ज्ञात हो।
१‍२६ – देख सामने, प्रभु के दर्शन हैं, भूत को भूल…
१‍२७ – दीन बना है, व्यर्थ में बाहर जा, अर्थ है स्वयं।
१‍२८ – काल की दूरी, क्षेत्र दूरी से और, अनिवार्य है।
१‍२९ – दर्प को छोड़, दर्पण देखता तो, अच्छा लगता।
१‍३० – घनी निशा में, माथा भयभीत हो, आस्था, आस्था है।

१‍३१‍ – बिन्दु जा मिला, सभी मित्रों से, जहाँ, सिन्धु वही है।
१‍३२ – आगे बनूँगा, अभी प्रभु-पदों में, बैठ तो जाऊँ।
१‍३३ – रस-रक्षक-, छिलका, सन्तरे का, अस्तित्व ही क्या ?
१‍३४ – छोटा भले हो, दर्पण मिले साफ़, खुद को देखूँ।
१‍३५ – पराग-पीता-, भ्रमर, फूला फूल, आतिथ्य- प्रेमी।
१‍३६ – बोधा-काश में, आकाश तारा सम, प्रकाशित हो।
१‍३७ – पराकर्षण, स्वभाव सा लगता, अज्ञानवश।
१‍३८ – भ्रमर से हो,फूल सुखी, हो दाता, पात्र-योग से।
१‍३९ – तारा दिखती, उस आभा में कभी, कुछ दिखी क्या ?
१‍४० – सुधाकर की, लवणाकर से क्यों ?, मैत्री, क्या राज ?

१‍४१‍ – बाहर नहीं, वसन्त बहार तो, सन्त ! अन्दर…
१‍४२ – तार न टूटी, लगातार चिर से, चैतन्य-धारा।
१‍४३ – सुई निश्चय, कैंची व्यवहार है, दर्ज़ी-प्रमाण।
१‍४४ – चलो बढ़ोऔ, कूदो, उछलो यही, धुआँधार है।
१‍४५ – बिना चर्वण, रस का रसना का, मूल्य ही क्या है ?
१‍४६ – ख़ाली बन जा, घट डूबता भरा…, ख़ाली तैरता।
१‍४७ – साष्टांग सम्यक्, शान चढ़ा हीरा सा।, कहाँ दिखता ?
१‍४८ – निजी पराये, वत्सों को, दुग्ध-पान, कराती गौ-माँ।
१‍४९ – छोटा सा हूँ मैं, छोर छूती सी तृष्णा, छेड़ती मुझे।
१‍५० – रसों का भान, जहाँ न, रहे वहाँ, शान्त-रस है।

१‍५१‍ – जिससे तुम्हें, घृणा न हो उससे, अनुराग क्यों ?
१‍५२ – मोक्षमार्ग में, समिति समतल।, गुप्ति सीढ़ियाँ।
१‍५३ – धूप-छाँव सी, वस्तुत: वस्तुओं की, क्या पकड़ है ?
१‍५४ – धूम्र से बोध, अग्नि का हो गुरु से, सो आत्म बोध।
१‍५५ – कब लौं सोचो।, कब करो, ना सोचे, करो क्या पाओ ?
१‍५६ – कस न, ढील, अनति हो, सो वीणा, स्वर लहरी।
१‍५७ – पुण्य-पथ लौ, पाप मिटे पुण्य से, पुण्य पथ है।
१‍५८ – पथ को कभी, मिटाना नहीं होता, पथ पे चलो।
१‍५९ – नाविक तीर, ले जाता हमें, तभी, नाव की पूजा।
१‍६० – हद कर दी, बेहद छूने उठें, क़द तो देखो।

१‍६१‍ – भारी वर्षा हो, दल-दल धुलता, अन्यथा मचे।
१‍६२ – माँगते हो तो, कुछ दो, उसी में से, कुछ देऊँगा।
१‍६३ – अनेक यानी, बहुत नहीं किन्तु, एक नहीं है।
१‍६४ – मन की कृति, लिखूँ पढ़ूँ सुनूँ पै, कैसे सुनाऊँ ?
१‍६५ – कैसे, देखते, संत्रस्त संसार को ?, दया मूर्ति हो।
१‍६६ – मोह टपरी, ज्ञान की आँधी में यूँ, उड़ी जा रही
१‍६७ – पाँच भूतों के, पार, अपार पूत, अध्यात्म बसा।
१‍६८ – क़ैदी हूँ देह-, जेल में, जेलर ना…, तो भी भागा ना
१‍६९ – तेरा सो एक, सो सुख, अनेक में, दु:ख ही दु:ख।
१‍७० – सहजता में, प्रतिकार का भाव, दिखता नहीं।

१‍७१‍ – साधना छोड़, काय-रत होना ही, कायरता है।
१‍७२ – भेद-वती है, कला, स्वानुभूति तो, अद्वैत की माँ…
१‍७३ – विज्ञान नहीं, सत्य की कसौटी है, ‘दर्शन’ यहाँ।
१‍७४ – आम बना लो, ना कहो, काट खाओ, क्रूरता तजो।
१‍७५ – नौका पार में, सेतु-हेतु मार्ग में, गुरु-साथ दें।
१‍७६ – मुनि स्व में तो, सीधे प्रवेश करें, सर्प बिल में।
१‍७७ – चिन्तन कभी, समयानुबन्ध को, क्या स्वीकारता ?
१‍७८ – बिना रस भी, पेट भरता, छोड़ो, मन के लड्डू।
१‍७९ – भोक्ता के पीछे, वासना, भोक्ता ढूँढे, उपासना को।
१‍८० – दो जीभ न हो, जीवन में सत्य ही, सब कुछ है।

१‍८१‍ – सिर में चाँद, अच्छा निकल आया, सूर्य न उगा।
१‍८२ – जैसे दूध में, बूरा पूरा पूरता, वैसा घी क्यों ना…?
१‍८३ – स्वोन्नति से भी, पर का पराभव, उसे सुहाता… !
१‍८४ – शिरोधार्य हो, गुरु-पद-रज, सो, नीरज बनूँ।
१‍८५ – परवश ना, भीड़ में होकर भी, मौनी बने हो।
१‍८६ – दुर्भाव टले, प्रशम-भाव से सो, स्वभाव मिले।
१‍८७ – खाओ पीयो भी, थाली में छेद करो, कहाँ जाओगे ?
१‍८८ – समझ न थी, अनर्थ किया आज, समझ, रोता।
१‍८९ – गुब्बारा फूटा, क्यों, मत पूछो, पूछो, फुलाया क्यों था?
१‍९० – बदलाव है, पै स्वरुप में न, सो, ‘था’ है ‘रहेगा’।

१‍९१‍ – अर्ध शोधित-, पारा औषध नहीं, पूरा विष है।
१‍९२ – तटस्थ व्यक्ति, नहीं डूबता हो, तो, पार भी न हो।
१‍९३ – दृष्टि पल्टा दो, तामस समता हो, और कुछ ना…
१‍९४ – देवों की छाया, ना सही पै हवा तो, लग सकती।
१‍९५ – तेरा सत्य है, भविष्य के गर्भ में, असत्य धो ले।
१‍९६ – परिचित को, पीठ दिखा दे फिर !, सब ठीक है।
१‍९७ – मधुर बनो, दाँत तोड़ गन्ना भी, लोकप्रिय है।
१‍९८ – किस ओर तू…!, दिशा मोड़ दे, युग-, लौट रहा है।
१‍९९ – दृश्य से दृष्टा, ज्ञेय से ज्ञाता महा, सो अध्यात्म है।
२०० – बिना ज्ञान के, आस्था को भीति कभी, छू न सकती।

२०१‍ – उर सिर से, महा वैसा ज्ञान से, दर्शन होता।
२०२ – व्याकुल व्यक्ति, सम्मुख हो कैसे दूँ, उसे मुस्कान…!
२०३ – अधम-पत्ते, तोड़े, कोंपलें बढ़े, पौधा प्रसन्न !
२०४ – पूर्णा-पूर्ण तो, सत्य हो सकता पै, बहुत नहीं।
२०५ – गर्व गला लो, गले लगा लो जो हैं, अहिंसा प्रेमी
२०६ – काश न देता, आकाश, अवकाश, तू कहाँ होता ?
२०७ – सहयोगिनी, परस्पर में आँखें, मंगल झरी।
२०८ – हमारे दोष, जिनसे गले धुले, वे शत्रु कैसे ?
२०९ – हमारे दोष, जिनसे फले फूले, वे बन्धु कैसे ?
२१‍० – भरोसा ही क्या ?, काले बाल वालों का, बिना संयम।

२१‍१‍ – वैराग्य, न हो, बाढ़ तूफ़ान सम, हो ऊर्ध्व-गामी।
२१‍२ – छाया का भार, नहीं सही परन्तु, प्रभाव तो है।
२१‍३ – फूलों की रक्षा, काँटों से हो शील की, सादगी से हो।
२१‍४ – बहुत मीठे, बोल रहे हो अब !, मात्रा सुधारो।
२१‍५ – तुमसे मेरे, कर्म कटे, मुझसे, तुम्हें क्या मिला ?
२१‍६ – राजा प्रजा का, वैसा पोषण करे, मूल वृक्ष का।
२१‍७ – कोई देखे तो, लज्जा आती, मर्यादा।, टूटने से ना…!
२१‍८ – आती छाती पे, जाती कमर पे सो, दौलत होती।
२१‍९ – सिध्द घृत से, महके, बिना गन्ध, दुग्ध से हम।
२२० – कपूर सम, बिना राख बिखरा, सिध्दों का तन।

२२१ – खुली सीप में, स्वाति की बूँद मुक्ता, बने, और न…!
२२२ – दिन में शशि, विदुर सा लगता, सुधा-विहीन।
२२३ – कब, पता न, मृत्यु एक सत्य है, फिर डर क्यों ?
२२४ – काल घूमता, काल पै आरोप सो, क्रिया शून्य है।
२२५ – बिना नयन, उप नयन किस, काम में आता ?
२२६ – अन जान था, तभी मजबूरी में, मज़दूर था।
२२७ – बिन देवियाँ, देव रहे, देवियाँ, बिन-देव ना…!
२२८ – काला या धोला, दाग, दाग है फिर, काला तिल भी…
२२९ – हीरा, हीरा है, काँच, काँच है किन्तु, ज्ञानी के लिए…
२३० – पापों से बचे, आपस में भिड़े क्या, धर्म यही है ?

२३१ – डाल पे पका, गिरा आम मीठा हो, गिराया खट्टा…
२३२ – भार हीन हो, चारु-भाल की माँग, क्या मान करो ?
२३३ – पक्षाघात तो, आधे में हो, पूरे में, सो पक्षपात…
२३४ – प्रति-निधि हूँ, सन्निधि पा के तेरी, निधि माँगू क्या ?
२३५ – आस्था व बोध, संयम की कृपा से, मंज़िल पाते।
२३६ – स्मृति मिटाती, अब को, अब की हो, स्वाद शून्य है।
२३७ – शब्द की यात्रा, प्रत्यक्ष से अन्यत्र, हमें ले जाती।
२३८ – चिन्तन में तो, परालम्बन होता, योग में नहीं।
२३९ – सत्य, सत्य है, असत्य, असत्य तो, किसे क्यों ढाँकू…?
२४० – किसको तजूँ, किसे भजूँ सबका, साक्षी हो जाऊँ।

२४१ – न पुंसक हो, मन ने पुरुष को, पछाड़ दिया…
२४२ – साधना क्या है ?, पीड़ा तो पी के देखो, हल्ला न करो।
२४३ – खाल मिली थी, यहीं मिट्टी में मिली, ख़ाली जाता हूँ।
२४४ – जिस भाषा में, पूछा उसी में तुम, उत्तर दे दो।
२४५ – कभी न हँसो, किसी पे, स्वार्थवश, कभी न रोओ।
२४६ – दर्पण कभी, न रोया न हँसा, हो, ऐसा सन्यास।
२४७ – ब्रह्म रन्ध्र से-, बाद, पहले श्वास, नाक से तो लो।
२४८ – सामायिक में, तन कब हिलता, और क्यों देखो…?
२४९ – कम से कम, स्वाध्याय (श्रवण) का वर्ग हो प्रयोग-काल।
२५० – एक हूँ ठीक, गोता-खोर तुम्बी क्या, कभी चाहेगा ?

२५१ – बिना विवाह, प्रवाहित हुआ क्या, धर्म-प्रवाह।
२५२ – दूध पे घी है, घी से दूध न दबा, घी लघु बना।
२५३ – ऊपर जाता, किसी को न दबाता, घी गुरु बना।
२५४ – नाड़ हिलती, लार गिरती किन्तु, तृष्णा युवती।
२५५ – तीर न छोड़ो, मत चूको अर्जुन !, तीर पाओगे।
२५६ – बाँध भले ही, बाँधो, नदी बहेगी, अधो या ऊर्ध्व।
२५७ – अनागत का, अर्थ, भविष्य न, पै, आगत नहीं।
२५८ – तुलनीय भी, सन्तुलित तुला में, तुलता मिला।
२५९ – अर्पित यानी, मुख्य, समर्पित सो, अहंका त्याग।
२६० – गन्ध जिह्वा का, खाद्य न, फिर क्यों तू, सौगंध खाता ?

२६१ – स्व-स्व कार्यों में, सब लग गये पै, मन न लगा ।
२६२ – तपस्वी बना, पर्वत सूखे पेड़, हड्डी से लगे।
२६३ – अन्धकार में, अन्धा न, आँख वाला, डर सकता।
२६४ – जल कण भी, अर्क तूल को, देखा !, धूल खिलाता।
२६५ – जल में तैरे, स्थूल-काष्ठ भी, लघु-, कंकर डूबे।
२६६ – छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो, यदि, उसे न देखो।
२६७ – गुरु औ शिष्य, आगे-पीछे, दोनों में, अन्तर कहाँ ?
२६८ – सत्य न पिटे, कोई न मिटे ऐसा, न्याय कहाँ है ?
२६९ – ऊहापोह के, चक्रव्यूह में-धर्म, दुरुह हुआ।
२७० – नेता की दृष्टि, निजी दोषों पे हो, या, पर गुणों पे।

२७१ – गिनती नहीं, आम में मोर आयी, फल कितने ?
२७२ – दु:खी जग को, तज, कैसे तो जाऊँ, मोक्ष ? सोचता।
२७३ – दीप काजल, जल काई उगले, प्रसंग वश।
२७४ – बोलो ! माटी के, दीप-तले अंधेरा, या रतनों के ?
२७५ – बिना राग भी, जी सकते हो जैसे, निर्धूम अग्नि।
२७६ – दायित्व भार, कन्धों पे आते, शक्ति, सो न सकती।
२७७ – सुलझे भी हो, और औरों को क्यों तो ?, उलझा देते ?
२७८ – कब बोलते ?, क्यों बोलते ? क्या बिना, बोले न रहो ?
२७९ – तपो वर्धिनी, मही में ही मही है, स्वर्ग में नहीं।
२८० – और तो और, गीले दुपट्टे को भी, न फटकारो।

२८१ – ख़ूब बिगड़ा, तेरा उपयोग है, योगा कर ले !
२८२ – ज्ञान ज्ञेय से, बड़ा, आकाश आया, छोटी आँखों में।
२८३ – पचपन में, बचपन क्यों ? पढ़ो, अपनापन।
२८४ – भोगों की याद, सड़ी-गली धूप सी, जान खा जाती
२८५ – सहगामी हो, सहभागी बने सो, नियम नहीं।
२८६ – पद चिह्नों पै, प्रश्न चिह्न लगा सो, उत्तर क्या दूँ ( किधर जाना ?)
२८७ – निश्चिन्तता में, भोगी सो जाता, वहीं, योगी खो जाता।
२८८ – शत्रु मित्र में, समता रखें, न कि, भक्ष्या भक्ष्य में।
२८९ – आस्था झेलती, जब आपत्ति आती, ज्ञान चिल्लाता?
२९० – आत्मा ग़लती, रागाग्नि से, लोनी सी, कटती नहीं।

२९१ – नदी कभी भी, लौटती नहीं फिर !, तू क्यों लौटता ?
२९२ – समर्पण पे, कर्त्तव्य की कमी से, सन्देह न हो।
२९३ – कुण्डली मार, कंकर पत्थर पे, क्या मान बैठे ?
२९४ – खुद बँधता, जो औरों को बाँधता, निस्संग हो जा।
२९५ – सदुपयोग-, ज्ञान का दुर्लभ है, मद-सुलभ।
२९६ – ज्ञानी हो क्यों कि, अज्ञान की पीड़ा में, प्रसन्न-जीते।
२९७ – ज्ञान की प्यास, सो कहीं अज्ञान से, घृणा तो नहीं।
२९८ – प्रभु-पद में, वाणी, काया के साथ मन ही भक्ति।
२९९ – मूर्च्छा को कहा, परिग्रह, दाता भी, मूर्च्छित न हो।
३०० – जीवनोद्देश, जिना देश-पालन, अनुपदेश।

३०१ – द्वेष से राग, विषैला होता जैसा, शूल से फूल।
३०२ – विषय छूटे, ग्लानि मिटे, सेवा से, वात्सल्य बढ़े।
३०३ – अग्नि पिटती, लोह की संगति से, अब तो चेतो।
३०४ – सर्प ने छोड़ी, काँचली, वस्त्र छोड़े !, विष तो छोड़ो…!
३०५ – असमर्थन, विरोध सा लगता, विरोध नहीं।
३०६ – हम वस्तुत:, दो हैं, तो एक कैसे, हो सकते हैं ?
३०७ – मैं के स्थान में, हम का प्रयोग क्यों, किया जाता है ?
३०८ – मैं हट जाऊँ, किन्तु हवा मत दो, और न जले…!
३०९ – बड़ी बूँदों की, वर्षा सी बड़ी राशि, कम पचती।
३१० – जिज्ञासा यानी, प्राप्त में असन्तुष्टि, धैर्य की हार…!

३११ – बिना अति के, प्रशस्त नति करो, सो विनती है।
३१२ – सुनो तो सही, पहले सोचो नहीं, पछताओगे।
३१३ – केन्द्र को छूती, नपी, सीधी रेखाएँ, वृत्त बनाती।
३१४ – शक्ति की व्यक्ति, और व्यक्ति की मुक्ति होती रहती।
३१५ – जो है ‘सो’ थामें, बदलता, होगा ‘सो’ है में ढलता।
३१६ – चिन्तन-मुद्रा, प्रभु की नहीं क्यों कि वह दोष है।
३१७ – पथ में क्यों तो, रुको, नदी को देखो चलते चलो।
३१८ – ज्ञानी ज्ञान को, कब जानता जब, आपे में होता।
३१९ – बँटा समाज, पंथ-जाति-वाद में, धर्म बाद में
३२० – घर की बात, घर तक ही रहे।, बे-घर न हो।

३२१ – अकेला न हूँ, गुरुदेव साथ हैं, हैं आत्मसात् वे।
३२२ – निर्भय बनो, पै निर्भीक होने का, गर्व न पालो।
३२३ – अति मात्रा में, पथ्य भी कुपथ्य हो, मात्रा माँ सी हो।
३२४ – संकट से भी, धर्म-संकट और, विकट होता।
३२५ – अँधेरे में हो, किंकर्त्तव्य मूढ़ सो, कर्त्तव्य जीवी।
३२६ – धन आता दो, कूप साफ़ कर दो, नया पानी लो।
३२७ – हम से कोई, दु:खी नहीं हो, बस !, यही सेवा है।
३२८ – चालक नहीं, गाड़ी दिखती, मैं न, साड़ी दिखती।
३२९ – एक दिशा में, सूर्य उगे कि दशों-, दिशाएँ ख़ुश।
३३० – जीत सको तो, किसी का दिल जीतो, सो, वैर न हो।

३३१ – सिंह से वन, सिंह, वन से बचा, पूरक बनो।
३३२ – तैरना हो तो, तैरो हवा में, छोड़ो !, पहले मोह।
३३३ – गुरु कृपा से, बाँसुरी बना, मैं तो, ठेठ बाँस था।
३३४ – पर्याय क्या है ?, तरंग जल की सो !, नयी-नयी है।
३३५ – पुण्य का त्याग, अभी न, बुझे आग, पानी का त्याग।
३३६ – प्रेरणा तो दूँ, निर्दोष होने, रुचि, आप की होगी।
३३७ – वे चल बसे, यानी यहाँ से वहाँ, जा कर बसे।
३३८ – कहो न, सहो, सही परीक्षा यही, आपे में रहो।
३३९ – पाँचों की रक्षा, मुठ्ठी में, मुठ्ठी बँधी, लाखों की मानी।
३४० – केन्द्र की ओर, तरंगें लौटती सी, ज्ञान की यात्रा।

३४१ – बँधो न बाँधो, काल से व काल को, कालजयी हो।
३४२ – गुरु नम्र हो, झंझा में बड़ गिरे, बेंत ज्यों की त्यों।
३४३ – तैरो नहीं तो, डूबो कैसे, ऐसे में, निधि पाओगे ?
३४४ – मध्य रात्रि में, विभीषण आ मिला, राम, राम थे।
३४५ – व्यापक कौन ?, गुरु या गुरु वाणी, किस से पूछें ?
३४६ – योग का क्षेत्र, अंतर्राष्ट्रीय, नहीं, अंतर्जगत् है।
३४७ -मत दिलाओ, विश्वास लौट आता, व्यवहार से। (आचरण से)
३४८ -सार्थक बोलो, व्यर्थ नहीं साधना, सो छोटी नहीं।
३४९ -मैं खड़ा नहीं, देह को खड़ा कर, देख रहा हूँ।
३५० -आँखें ना मूँदों, नाही आँख दिखाओ, सही क्या देखो?

३५१ -हाथ ना मलो, ना ही हाथ दिखाओ, हाथ मिलाओ।
३५२ -जाने केवली, इतना जानता हूँ, जानन हारा।
३५३ -ठण्डे बस्ते में, मन को रखना ही, मोक्षमार्ग है।
३५४ -आँखें देखती, हैं मन सोचता है, इसमें मैं हूँ।
३५५ -उड़ना भूली, चिड़िया सोने की तू, उठ उड़ जा।
३५६ -झूठ भी यदि, सफ़ेद हो तो सत्य, कटु क्यों न हो ?
३५७ -परिधि में ना, परिधि में हूँ हाँ हूँ, परिधि सृष्टा।
३५८ -बचो-बचाओ, पाप से पापी से ना, पुण्य कमाओ।
३५९ -हँसो-हँसाओ, हँसी किसी की नहीं, इतिहास हो।
३६० -अति संधान, अनुसंधान नहीं, संधान साधो।

३६१ -है का होना ही, द्र्व्य का स्वभाव है, सो सनातन।
३६२ -सुना था सुनो, ”अर्थ की ओर न जा” डूबो आपे में।
३६३ -अपनी नहीं, आहुति अहं की दो, झाँको आपे में।
३६४ -पीछे भी देखो, पिछलग्गू न बनो, पीछे रहोगे।
३६५ -द्वेष पचाओ, इतिहास रचाओ, नेता बने हो।
३६६ -काम चलाऊ, नहीं काम का बनूँ, काम हंता भी।
३६७ -आँखों से आँखें, न मिले तो भीतरी, आँखें खुलेगी।
३६८ -ऊधमी तो है, उद्यमी आदमी सो, मिलते कहाँ ?
३६९ -तुम तो करो, हड़ताल मैं सुनूँ हर ताल को।
३७० -संग्रह कहाँ, वस्तु विनिमय में, मूर्च्छा मिटती।

३७१ -सगा हो दगा, अर्थ विनिमय में, मूर्च्छा बढ़ती।
३७२ -धुन के पक्के, सिद्धांत के पक्के हो, न हो उचक्के । (बनो मुनक्के)
३७३ -नये सिरे से, सिर से उर से हो, वर्षादया की।
३७४ -ज़रा ना चाहूँ, अजरामर बनूँ, नज़र चाहूँ।
३७५ ‍-बिना खिलौना, कैसे किससे खेलूँ, बनूँ खिलौना।
३७६ -चिराग़ नहीं, आग जलाऊँ, ताकि, कर्म दग्ध हों।
३७७ -खेती-बाड़ी है, भारत की मर्यादा, शिक्षा साड़ी है।
३७८ -शरण लेना, शरण देना दोनों, पथ में होते।
३७९ -दादा हो रहो, दादागिरी न करो, दायित्व पालो।
३८० -हाथ तो डालो, वामी में विष को भी, सुधा दो हो तो।

३८१ -श्वेत पत्र पे, श्वेत स्याही से कुछ, लिखा सो पढ़ो।
३८२ -राज़ी ना होना, नाराज़ सा लगता, नाराज़ नहीं।
३८३ -भार तो उठा, चल न सकता तो, पैर उठेंगे।
३८४ -मन का काम, मत करो मन से, काम लो मोक्ष।
३८५ ‍-छात्र तो न हो, शोधार्थी शिक्षक व, प्रयोगधर्मी।
३८६ -दिन में शशि, शर्मिंदा हैं तारायें, घूँघट में है।
३८७ -दीक्षा ली जाती, पद दिया जाता है, सो यथायोग्य ।
३८८ -उन्हें न भूलो, जिनसे बचना है, वक़्त-वक्त पे।
३८९ -सूत्र कभी भी, वासा नहीं होता सो, भाव बदलो। (भाव सु-धारो)
३९० -ध्यान काल में, ज्ञान का श्रम कहाँ, पूरा विश्राम।

३९१ -खान-पान हो, संस्कारित शिक्षा से, खान-दान हो।
३९२ -ऐसा संकेत, शब्दों से भी अधिक, हो तलस्पर्शी।
३९३ -हम अधिक, पढ़े-लिखे हैं कम, समझदार
३९४ -मेरी दो आँखें मेरी ओर हजार सतर्क होऊँ।
३९५ -मुक़द्दर है, उतनी ही चद्दर, पैर फैलाओ।
३९६ -घुटने टेक, और घुटने दो न, घोंटते जाओ।
३९७ -अशुद्धि मिटे, बुध्दि की वृध्दि न हो। विशुध्दि बढ़े।
३९८ -गोबर डालो, मिट्टी में सोना पालो, यूरिया राख।
३९९ – हमसे उन्हें, पाप बंध नहीं हो, यही सेवा है।
४०० – प्राणायाम से, श्वास का मात्र न हो, प्राण दस है।

४०१ – देख रहा हूँ, देख न पा रही है, वे आँखें मुझे।
४०२ – दुस्संगति से बचो, सत् संगति में, रहो न रहो।
४०३ – दुर्ध्यान से तो, दूर रहो सध्यान, करो न करो।
४०४ – कर्रा न भले, टर्रा न हो तो पक्का, पक सकोगे।
४०५ – अंधाधुँध यूँ, महाबंध न करो, अंधों में अंधों।
४०६ – कमी निकालो, हम भी हम होंगे, कहाँ न कमी।
४०७ – लज्जा आती है, पलकों को बना ले, घूँघट में जा।
४०८ – कड़वी दवा, उसे रुचति जिसे, आरोग्य पाना।
४०९ – स्व आश्रित हूँ , शासन प्रशासन, स्वशासित हैं।
४१० – सागर शांत, मछली अशांत क्यों ? स्वाश्रित हो जा।

४११ – कोठिया नहीं, छप्पर फाड़ देती, पक्की आस्था हो।
४१२ – धनी से नहीं, निर्धनी निर्धनी से, मिले सुखी हो।
४१३ – दण्डशास्त्र क्यों ? जैसा प्रभू ने देखा, जो होना हुआ।
४१४ – ईर्ष्या क्यों करो. ईर्ष्या तो बड़ों से हो, छोटे क्यों बनो ?
४१५ – टूट चुका है, बिखरा भर नहीं, कभी जुड़ा था।
४१६ – तपस्या नहीं, पैरों की पूजा देख, आँखें रो रही।
४१७ – भिन्न क्या जुड़ा ? अभिन्न कभी टूटा, कभी सोचा भी ?
४१८ – कौन किससे ? कम है मत कहो, मैं क्या कम हूँ ?
४१९ – त्याग का त्याग, अभी न बुझे आग, पानी का त्याग।
४२० – प्रेरणा तो दूँ , निर्दोष होने बचो, दोष से आप।

४२१ – यात्रा वृत्तांत, ‘‍’लिख रहा हूँ वो भी”, बिन लेखनी।
४२२ – मन की बात ”सुनना नहीं होता” मोक्षमार्ग में।
४२३ – ठंडे बस्ते में ”मन को रखो फिर” आत्मा में डूबो। (आत्मा से बोलो)
४२४ – खाली हाथ ले ”आया था जाना भी है” खाली हाथ ले।
४२५ – आँखें देखती ”मन याद करता” दोनों में मैं हूँ।
४२६ – दिख रहा जो ‘दृष्टा नहीं दृष्टा सो” दिखता नहीं।
४२७ – आग से बचा ‘धूंवा से जला (व्रती) सा, तू” मद से घिरा।
४२८ – चूल को देखूँ ‘मूलको बंदू भूल” आमूल चूल।
४२९ – अंधी दौड़ में ”आँख वाले हो क्यों तो” भाग लो सोचो।
४३० – महाकाव्य भी ”स्वर्णाभरण सम” निर्दोष न हो।

४३१ – पैरों में काँटे ”गड़े आँखों में फूल” आँखें क्यों चली।
४३२ – चक्री भी लौटा ”समवशरण से ” कारण मोह।
४३३ – दर्शन से ना ”ज्ञान से आज आस्था” भय भीत है।
४३४ – एकता में ही ”अनेकांत फले सो” एकांत टले।
४३५ – पीठ से मैत्री ”पेट ने की तब से” जीभ दुखी है।
४३६ – सूर्य उगा सो ”सब को दिखता क्यों” आँखे तो खोलो।
४३७ – अंधे बहरे ”मूक क्या बिना शब्द” शिक्षा ना पाते।
४३८ – पद यात्री हो ”पद की इच्छा बिन” पथ पे चलूँ।
४३९ – सही चिंतक ”अशोक जड़ सम” सखोल जाता।
४४० – बिन्दु की रक्षा, सिन्धु में नहीं बिन्दु, बिन्दु से मिले।

४४१ – भोग के पीछे, भोग चल रहा है, योगी है मौन।
४४२ – श्वेत पे काला, या काले पे श्वेत हो, मंगल कौन?
४४३ – थोपी योजना, पूर्ण होने से पूर्व, खण्डहर सी।
४४४ – हिन्दुस्थान में, सफल फिसल के, फसल होते।
४४५ – शब्दों में अर्थ, यदि भरा किससे, कब क्यों बोलो।
४४६ – व्यंजन छोडूँ, गूंग है पढूँ है सो, स्वर में सनूँ।
४४७ – कटु प्रयोग, उसे रूचता जिसे, आरोग्य पाना।
४४८ – एक से नहीं, एकता से काम लो, काम कम हो।
४४९ – बड़ों छोटो पे, वात्सल्य विनय से, एकता पाये।
४५० – शब्दों में अर्थ, है या आत्मा में इसे, कौन जानता।

४५१ – असत्य बचे, बाधा न सत्य कभी, पिटे न बस।
४५२ – किसे मैं कहूँ, मुझे मैं नहीं मिला, तुम्हें क्या (मैं) मिला।
४५३ – मण्डूक बनो, कूप मण्डूक नहीं, नहीं डूबोगे।
४५४ – किस मूढ़ में, मोड़ पे खड़ा सही, मोड़ा मुड़ जा।
४५५ – बहुत सोचो, कब करो ना सोचे, करो लुटोगे।
४५६ – मरघट पे जमघट है शव, कहता लौटूँ।
४५७ – ज्ञानी बने हो, जब बोलो अपना, स्वाद छूटता।
४५८ – कोहरा को ना, को रहा कोहरे में, ढली मोह है।
४५९ – जल में नाव, कोई चलाता किंतु, रेत में मित्रों।
४६० – रोते को देख, रोते तो कभी और, रोना होता है।

४६१ – तुम्बी तैरती, तारती औरों को भी, गीली क्या सूखी?
४६२ – भली नासिका, तू क्यों कर फूलती, मान हानि में।
४६३ – कैदी हूँ, देह, जेल में जेलर ना, तो भी वहीं हूँ।
४६४ – हाथ कंगन, बिना बोले रहे, दो, बर्तन क्यों ना?
४६५ – बंदर कूंदे, अचूक और उसे, अस्थिर कहो।
४६६ – सहजता औ, प्रतिकार का भाव, बेमेल रहे।
४६७ – पर की पीड़ा, अपनी करुणा की, परीक्षा लेती।
४६८ – परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ ज्ञान को।
४६९ – पक्की नींव है, घर कच्चा है छांव, घनी है बस।
४७० – कर्त्तव्य मान, ऋण रणांगन को, पीठ नहीं दो।

४७१ – पगडंडी में, डंडे पडते तो क्या, राजमार्ग में?
४७२ – प्रतिशोध में, बोध अंधा हो जाता, शोध तो दूर।
४७३ – मैं क्या जानता, क्या क्या न जानता सो, गुरु जी जानें।
४७४ – धनिक बनो, अधिक वैधानिक, पहले बनो।
४७५ – दर्पण कभी, न रोया श्रद्धा कम, क्यों रोओ हँसो।
४७६ – है का होना ही, द्रव्य का प्रवास है, सो सनातन।
४७७ – सन्निधिता क्यों, प्रतिनिधि हूँ फिर, क्या निधि माँगू।
४७८ – सब अपने, कार्यों में लग गये, मन न लगा।
४७९ – बाहर आते, टेड़ी चाल सर्प की, बिल में सीधी।
४८० – मनोनुकूल, आज्ञा दे दूँ कैसे दूँ, बँधा विधि से।

४८१ – उत्साह बढ़े, उत्सुकुता भगे तो, अगाध धैर्य। (गाम्भीर्य बढ़े)
४८२ – दोनों, न चाहो, एक दूसरे को या, दोनों में एक। (कोई भी एक)
४८३ – पुरुष भोक्तृ, नारी भोक्त न मुक्ति, दोनों से परे।
४८४ – कचरा डालो, अधकचरा नहीं, खाद तो डालो।
४८५ – कचरा बनूँ, अधकचरा नहीं, खाद तो बनूँ।
४८६ – वैधानिक तो, तनिक बनो फिर, अधिक धनी।
४८७ – बाहर टेड़ा। बिल में सीधा होता। भीतर जाओ।
४८८ – ऊधम नहीं, उद्यम करो बनो, दमी आदमी।
४८९ – आज सहारा, हाय को है हायकू, कवि के लिए।
४९०  – ध्वनि न देओ, गति धीमी हो निजी, और औरों की।

४९१ – तिल की ओट, पहाड़ छुपा ज्ञान, ज्ञेय से बड़ा।
४९२ – एकजुट हो, एक से नहीं जुड़ो, बेजोड़ जोड़ो।
४९३ – डूबना ध्यान, तैरना सामायिक, डूबो तो जानो।
४९४ – सामायिक में, करना कुछ नहीं, शांत बैठना।
४९५ – दायित्व भार, कंधों पर आते ही, शक्ति आ जाती।
४९६ – दवा तो दवा, कटु या मीठी जब, आरोग्य पान।
४९७ – ज्ञान के सादृश, आस्था भी भीति से सो, कंपती नहीं।
४९८ – कब और क्यों, जहां से निकला सो, स्मृति में लाओ।
४९९ – ममता से भी, समता की क्षमता, अमिता मानी।
५०० – लज्जा न बेचो ‘शील का पालन सो’ ढीला ढीला न।

५०१ – तरण नहीं ‘वितरण बिना हो’ चिरमरण। (भूयोमरण)
५०२ – योग में देखा, कोलाहल मन का, नींद ले रहा।
५०३ – जिनसे मेरे, कर्म धुले टले वो, शत्रु ही कैसे।
५०४ – जिनसे मेरे, कर्म बँधे फले वो, मित्र ही कैसे।
५०५ – वो जवान था, बूढ़ा होकर वह, पूरा हो गया।
५०६ – दर्प देखने, दर्पण देखना क्या, बुद्धिमानी है?
५०७ – उपयोग का, सही उपयोग हो, सही बात है।
५०८ – विष का पान, समता सहित भी, अमृत बने।
५०९ – उनके तीर, न तो डूबो अर्जुन, पाओ न तीर।

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कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो ...

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||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे...

बारह भावना (राजा राणा छत्रपति) || BARAH BHAVNA ( Raja rana chatrapati)

|| बारह भावना ||  कविश्री भूध्ररदास (अनित्य भावना) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१|| (अशरण भावना) दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार | मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२|| (संसार भावना) दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान | कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३|| (एकत्व भावना) आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय | यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४|| (अन्यत्व भावना) जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५|| (अशुचि भावना) दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह | भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६|| (आस्रव भावना) मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा | कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७|| (संवर भावना) सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे | तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें || (निर्जरा भावना) ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर | या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८|| पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार | ...

छहढाला -श्री दौलतराम जी || Chah Dhala , Chahdhala

छहढाला | Chahdhala -----पहली ढाल----- तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥ जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त । तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1) ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान। मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2) तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3) एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार। निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4) दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5) कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6) कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन। छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7) वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने । अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8) तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै ...

सुप्रभात स्त्रोत्रं | Shubprabhat Stotra

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद...

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित | Mangalashtak - Mangal asthak stotra

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र - अर्थ सहित अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्   ||1|| अर्थ – इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों  परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् ||2|| अर्थ – शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने...