तीर्थंकर भगवान अभिनन्दननाथ का जीवन परिचय
जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर भगवान अभिनन्दननाथ ( Abhinandan nath) हैं। भगवान अभिनन्दननाथ जी को अभिनन्दन स्वामी के नाम से भी जाना जाता है। अभिनन्दननाथ स्वामी का जन्म इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय परिवार में माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को हुआ था। अयोध्या में जन्मे अभिनन्दननाथ जी की माता सिद्धार्था देवी और पिता राजा संवर थे। इनका वर्ण सुवर्ण और चिह्न बंदर था। इनके यक्ष का नाम यक्षेश्वर और यक्षिणी का नाम व्रजशृंखला था। अपने पिता की आज्ञानुसार अभिनन्दननाथ जी ने राज्य का संचालन भी किया। लेकिन जल्द ही उनका सांसारिक जीवन से मोह भंग हो गया |
अयोध्या नगरी मे इक्ष्वाकुवन्शीय महाराज सन्वर राज्य करते थे | उनकी रानी का नाम सि सिद्धार्था देवी था | एक रात्रि मे महारानी ने १४ स्वपन देखे | भविष्य -वेत्ताओ से स्वपन फ़ल -प्रच्छा की गयी | उन्होने स्पष्ट किया -म्हारानी एक एसे तेजस्वी पुत्र को जन्म देगी जो या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा , अथवा धर्मतीर्थ का सन्स्थापक तीर्थन्कर होगा | स्वप्न – फ़ल ज्ञात कर सर्वत्र हर्ष फ़ैल गया |एक अन्य विशेष प्रभाव यह हुआ कि राजपरिवार सहित समस्त नागरिको मे पा्रस्परिक अभिवादन – अभिनन्दन रुपी सदगुण का अतिशय विकास हुआ | सभी ने इसे महारानी के गर्भस्थ पुण्यशाली जीव का प्रभाव माना | माघ शुक्ल द्वितीया को महारानी ने एक तेजस्वी शिशु को जन्म दिया | देवो ओर मानवो ने प्रभु का जन्मोत्सव मनाया | नामकरण की वेला मे महाराज ने घोषणा की -हमारे पुत्र के गर्भ मे आते ही सर्वत्र अभिवादन – अभिनन्दन के सदगुन का प्रसार हुआ ,इसलिए इसका नाम ‘ अभिनन्दन ‘ रखा जाता है |
अभिननदन कालक्रम से युवा हुए | पिता के प्रव्रजित होने पर इन्होने राज्य का सन्चालन भी किया | इनके कुशल शासन मे सर्वत्र सुख ,सम्रद्धि ओर न्याय की व्रद्धि हुई | कालन्त्तर मे पुत्र को राजपद प्रदान कर , अभिनन्दननाथ ने प्रव्रजया अन्गीकार की | अठारह वर्षो तक प्रभु छ्दमस्थ अवस्था मे रहे | तत्पश्चात पोष शुक्ल चतुअर्दशी के दिन प्रभु ने केवल -ज्ञान प्राप्त किया | देवताओ ने उप्स्थित हो कैवल्य महोत्सव मनाया एवम समवसरण की रचना की | प्रभु ने धर्मोपदेश दिया | हजारो लोगो ने साधु ,साध्वी , श्रावक ओर श्राविका -धर्म को अन्गीकार किया | इस प्रकार चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई | सुदीर्घ काल तक भव्य प्राणियो को धर्माम्रत का पान कराने के पश्चात वैशाख शुक्ल अष्टमी को सम्मेद शिखर से भगवान मोक्ष पधारे |
भगवान के धर्म्परिवार का विवरण इस प्रकार है – वज्रनाभि आदि एक सौ सोलह गणधर ,तीन लाख श्रामण , छह लाख तीस हजार श्रमणिया ,दो लाख अट्ठासी हजार श्रावक एवम पान्च लाख सत्ताईस हजार श्राविकाए |
केवल ज्ञान की प्राप्ति
छद्मस्थ अवस्था के अठारह वर्ष बीत जाने पर दीक्षा वन में असन वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए। पौष शुक्ल चतुर्दशी के दिन शाम के समय पुनर्वसु नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इनके समवसरण में वज्रनाभि आदि एक सौ तीन गणधर, तीन लाख मुनि, मेरुषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच बारह सभा में बैठकर धर्मोपदेश श्रवण करते थे।
अभिनन्दननाथ भगवान का इतिहास
भगवान का चिन्ह – उनका चिन्ह बंदर है।
जन्म स्थान –अयोध्या (उत्तर प्रदेश)
जन्म कल्याणक – माघ शुक्ल द्वादशी
केवल ज्ञान स्थान – अयोध्या
दीक्षा स्थान –अयोध्या
माता – श्री सिद्धार्था देवी
देहवर्ण- स्वर्ण
भगवान का वर्ण- क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
लंबाई/ ऊंचाई- ३५० धनुष (१०५० मीटर)
आयु – ५०,००,००० पूर्व
वृक्ष –असन वृक्ष
यक्ष – यक्षेश्वर
यक्षिणी –वज्रश्रृंखला देवी
प्रथम गणधर – वज्रानाभी
गणधरों की संख्या – 103
🙏 अभिनन्दननाथ का निर्वाण
इन अभिनन्दननाथ भगवान ने अन्त में सम्मेदशिखर पर पहुँचकर एक महीने का प्रतिमायोग लेकर वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन प्रात:काल के समय अनेक मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान के चिन्ह का महत्व
बन्दर – यह भगवान अभिनन्दननाथ का चिन्ह है | बन्दर का स्वभाव चंचल होता है | मन की चंचलता की तुलना बन्दर से की जाती है | हमारा मन जब भगवान के चरणों मे लीन हो जाता है , तो वह भी संसार में वन्दनीय बन जाता है | श्रीराम का परम भक्त हनुमान वानर जाति में जन्म लेता है | अपने चंचल मन को स्थिर करके प्रभु के चरणों में मन लगाने से वह पूजनीय बन गया | इसी प्रकार हम भी तीर्थंकर अभिनन्दननाथ जी के चरणों में मन लगाने से अभिनन्दनीय , वन्दनीय बन सकते हैं |
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