तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ का जीवन परिचय
भगवान पद्मप्रभ(Padamprabh) जी वर्तमान काल के छठवें तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें, जो संसार सागर(जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। पद्मप्रभ स्वामी का जन्म इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय परिवार में कार्तिक कृष्ण १३ को हुआ था। कोशाम्बी में जन्मे पद्मप्रभ जी की माता सुसीमा और पिता श्रीधर धरण राज थे। किसी दिन भोगों से विरक्त होकर पिहितास्रव जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर ली, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया | धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतानदी के दक्षिण तट पर वत्सदेश है। उसके सुसीमा नगर के अधिपति अपराजित थे।
गर्भ और जन्म
इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में धरण महाराज की सुसीमा रानी ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन उक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद उनका नाम ‘पद्मप्रभ’ रखा। पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी के इक्ष्वाकु वंश में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष द्वादशी को चित्रा नक्षत्र में हुआ था। इनकी माता का नाम सुसीमा देवी और पिता का नाम धरणराज था। इनके शरीर का वर्ण लाल जबकि चिह्न कमल था।
तप
किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया जिससे भगवान को वैराग्य हो गया। वे देवों द्वारा लाई गई ‘निवृत्ति’ नाम की पालकी पर बैठ मनोहर नाम के वन में गये और कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली।
केवलज्ञान और मोक्ष
छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्यान्ह में केवलज्ञान प्रकट हो गया। बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त कर लिया।
पद्मप्रभु के यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम अप्रति चक्रेश्वरी था। जैनियों के मतानुसार भगवान पद्मप्रभ के गणधरों की संख्या 108 थी, जिनमें पद्योतन स्वामी इनके प्रथम गणधर थे।
पद्मप्रभ को कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को कौशाम्बी में दीक्षा की प्राप्ति हुई।
दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद इन्होनें खीर से प्रथम पारणा किया था।
इसके पश्चात् 6 महीने तक कठोर तप करने के बाद पद्मप्रभ को कौशाम्बी में ही चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को 'प्रियंगु' वृक्ष के नीचे 'कैवल्य ज्ञान' की प्राप्ति हुई।
जैन धर्मावलम्बियों के मतानुसार फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को सम्मेद शिखर पर इन्होंने निर्वाण को प्राप्त किया।[1]
केवल ज्ञान की प्राप्ति
छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्यान्ह में केवलज्ञान प्रकट हो गया।
पद्मप्रभ भगवान का इतिहास
भगवान का चिन्ह – उनका चिन्ह कमल है।
जन्म स्थान – कोशाम्बी
जन्म कल्याणक – कार्तिक कृष्ण १३
केवल ज्ञान स्थान – कोशाम्बी मनोहर वन
दीक्षा स्थान –कोशाम्बी
पिता –श्रीधर धरण राज
माता – सुसीमा
देहवर्ण – लाल
भगवान का वर्ण – क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
लंबाई/ ऊंचाई-२५० धनुष (७५० मीटर)
आयु –3०,००,००० पूर्व
वृक्ष – प्रियंगु वृक्ष
यक्ष – कुसुम
यक्षिणी – मनोवेगा देवी
प्रथम गणधर –वज्र चमर जी
गणधरों की संख्या – 111
🙏 पद्मप्रभ का निर्वाण
बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त कर लिया।
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