भगवान संभवनाथ (Sambhavnath) जी जैन धर्म के तृतीय तीर्थंकर थे। इनके पिता का नाम जितारी था तथा माता का नाम सुसेना था, प्रभु का जन्म इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय परिवार में मार्गशीर्ष चतुर्दशी को हुआ था।
पुनर्जन्म
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर एक ‘कच्छ’ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में राजा विमलवाहन राज्य करता था। एक दिन वह किसी कारण से विरक्त होकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंग श्रुत को पढ़कर उन्हीं भगवान के चरण सान्निध्य में सोलह कारण भावनाद्वारा तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। संन्यासविधि से मरण कर प्रथम ग्रैवेयक के सुदर्शन विमान में तेतीस सागर की आयु वाला अहमिन्द्र देव हो गया।
गर्भ और जन्म
इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की श्रावस्ती नगरी के राजा दृढ़राज इक्ष्वाकुवंशीय, काश्यपगोत्रीय थे। उनकी रानी का नाम सुषेणा था। फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन, मृगशिरानक्षत्र में रानी ने पूर्वोक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया और कार्तिक शुक्ला पौर्णमासी के दिन मृगशिरा नक्षत्र में तीन ज्ञानधारी पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र ने पूर्वोक्त विधि से गर्भकल्याणक मनाया था, उस समय जन्मोत्सव करके ‘संभवनाथ’ यह नाम रखा। इनकी आयु साठ लाख पूर्व की तथा ऊँचाई चार सौ धनुष थी।
तप
भगवान को राज्य सुख का अनुभव करते हुए जब चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वांग व्यतीत हो चुके,तब किसी दिन मेघों का विभ्रम देखने से उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया।तब भगवान देवों द्वारा लाई गई ‘सिद्धार्था’ पालकी में बैठकर सहेतुक वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे जाकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। भगवान की प्रथम पारणा का लाभ श्रावस्ती के राजा सुरेन्द्रदत्त ने प्राप्त किया था।
केवल ज्ञान की प्राप्ति
उन्होंने दीक्षा लेकर मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया, ओर अपने पुत्र को अपने राज्य का संचालन करने के लिए कहा। हालाँकि शुरू में वह तैयार नहीं थे, लेकिन जब राजा ने जोर दिया तो उनके बेटे ने जिम्मेदारी ली और अपना राज्य उसे सौंप दिया। तब राजा ने श्री स्वयंप्रभा सूरि से दीक्षा ली।
उन्होंने कठोर तपस्या शुरू कर दी और प्रतिक्रमण करके सभी कषायों से छुटकारा पा लिया और पवित्र हो गये। उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ। सहेतुक वन में श्रावस्ती नगरी मे भगवान सम्भवनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। मृत्यु के बाद, उन्होंने नौवें स्वर्ग अनात में पुनर्जन्म लिया।
केवलज्ञान और मोक्ष
संभवनाथ भगवान चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मौन से तपश्चरण करते हुए दीक्षा वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन मृगशिर नक्षत्र में अनन्तचतुष्टय को प्राप्त कर केवली हो गये। इनके समवसरण में चारूषेण आदि एक सौ पाँच गणधर थे, दो लाख मुनि, धर्मार्या आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अन्त में जब आयु का एक माह अवशिष्ट रहा, तब उन्होंने सम्मेदाचल पर जाकर एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया तथा चैत्रमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन सूर्यास्त के समय मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया। देवों द्वारा किए गए पंचकल्याणक महोत्सव को पूर्ववत् समझना चाहिए।
🙏 सम्भवनाथ का निर्वाण
सम्भवनाथ जिन वर्तमान काल के तीसरे तीर्थंकर है, भगवान संभवनाथ जी ने सम्मेद शिखरजी मे अपने समस्त घनघाती कर्मो का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया और सिद्ध कहलाये। प्रभु का निर्वाण चैत्र सुदी 6 को हुआ था, भगवान संभवनाथ जी के प्रथम शिष्य का नाम चारूदत तथा प्रथम शिष्या का नाम श्यामा था। प्रभु के प्रथम गणधर चारूजी थे।
सम्भवनाथ भगवान का इतिहास
भगवान सम्भवनाथ का चिन्ह- उनका चिन्ह घोड़ा है।
जन्म स्थान – श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश)
जन्म कल्याणक – कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा
केवल ज्ञान स्थान – सहेतुक वन में श्रावस्ती नगरी
दीक्षा स्थान – सहेतुक वन में श्रावस्ती नगरी
पिता – राजा जितारि
माता –सुसेना रानी
देहवर्ण- स्वर्ण
भगवान का वर्ण- क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
लंबाई/ ऊंचाई-४०० धनुष (१२०० मीटर)
आयु- ६०,००,००० पूर्व
वृक्ष- शालवृक्ष
यक्ष –त्रिमुख
यक्षिणी –प्रज्ञप्ती देवी
प्रथम गणधर –श्री चारूदत्त जी
गणधरों की संख्या – 105
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