परिचय
भगवान सुमतिनाथ ( Sumatinath) जी वर्तमान काल के पांचवें तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें, जो संसार सागर(जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। सुमतिनाथ स्वामी का जन्म इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय परिवार में चैत्र शुक्ल ११ को हुआ था। अयोध्या में जन्मे सुमतिनाथ जी की माता सुमंगला और पिता मेघरथ थे।पूर्व जन्म
धातकीखंडद्वीप में मेरूपर्वत से पूर्व की ओर स्थित विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावती नाम का देश है। उसकी पुंडरीकिणी नगरी में रतिषेण नाम का राजा था। किसी दिन राजा ने विरक्त होकर अपना राज्य पुत्र को देकर अर्हन्नन्दन जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
गर्भ और जन्म
वैजयन्त विमान से च्युत होकर वह अहमिन्द्र इसी भरतक्षेत्र के अयोध्यापति मेघरथ की रानी मंगलावती के गर्भ में आया, वह दिन श्रावण शुक्ल द्वितीया का था। तदनन्तर चैत्र माह की शुक्ला एकादशी के दिन माता ने सुमतिनाथ तीर्थंकर को जन्म दिया।
ज्ञान और तप
वैशाख सुदी नवमी के दिन प्रात:काल सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली।
केवलज्ञान और मोक्ष
छद्मस्थ अवस्था में बीस वर्ष बिताकर सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त किया। इनकी सभा में एक सौ सोलह गणधर, तीन लाख बीस हजार मुनि, अनन्तमती आदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। अन्त में भगवान ने सम्मेदाचल पर पहुँचकर एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्त किया। सारे पंचकल्याणक महोत्सव आदि पूर्ववत् समझना ।
सुमतिनाथ भगवान का इतिहास
भगवान का चिन्ह – उनका चिन्ह चकवा है।
जन्म स्थान –अयोध्या (उत्तर प्रदेश)
जन्म कल्याणक – चैत्र शुक्ल ११
केवल ज्ञान स्थान – चैत्र शुक्ला ११(अयोध्या)
दीक्षा स्थान – सहेतुक वन,अयोध्या
पिता –मेघरथ
माता –सुमंगला
देहवर्ण – स्वर्ण
भगवान का वर्ण – क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
लंबाई/ ऊंचाई- ३०० धनुष (९०० मीटर)
आयु –४०,००,००० पूर्व
वृक्ष – प्रियंगु वृक्ष
यक्ष – तुम्बरु
यक्षिणी –पुरुषदत्ता देवी
प्रथम गणधर – वज्रसेन (अमर वज्र)
गणधरों की संख्या – 116
🙏 सुमतिनाथ का निर्वाण
अन्त में भगवान ने सम्मेदाचल पर पहुँचकर एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्त किया।
आचार्य सामंतभद्र द्वारा रचित स्वयंभूस्तोत्र चौबीस तीर्थंकरों की आराधना है। इसके पांच श्लोक ( सूक्तियाँ ) सुमतिनाथ को समर्पित हैं । इनमें से अंतिम है:
किसी वस्तु में अस्तित्व और अनअस्तित्व के गुण विशेष दृष्टिकोण से मान्य हैं; कथन की वैधता उस विशेष क्षण में वक्ता की पसंद पर निर्भर होती है कि वह किस विशेषता को सामने लाना चाहता है क्योंकि अन्य विशेषता पृष्ठभूमि में चली जाती है। हे भगवान सुमतिनाथ, आपने इस प्रकार पदार्थों की वास्तविकता को समझाया था; आपकी आराधना मेरी बुद्धि को बढ़ाए!
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